ग़ज़ल
मात्रिक (22)
संघर्षों के जीवन रण में अपना हिस्सा हार गया,
मान के मिथ्या इस आँगन को, कोई इस के पार गया.
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विद्वत्ता से श्रेष्ठ कहाई सत्कर्मों की पुण्याई,
अहँकार के फेर में रावण! तेरा जीवन सार गया.
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प्रश्न हमारे सच्चे थे पर उत्तर झूठे थे उनके,
जब से सच का बोध हुआ है, धर्मों का आधार गया.
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ईश्वर पूजा, अल्लाह पूजा, ख़ुद के तन को कष्ट दिए,
उस जीवन की आस में मानव, ये जीवन बेकार गया.
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ईश्वर तेरे साथ चलेगा बस…
Added by Nilesh Shevgaonkar on October 20, 2016 at 8:15pm — 13 Comments
चिरौंजीलाल बड़े पेशोपेश में थे, एक बार तो उनको लगा कि उनकी लुगाई ने बात बस यूँ ही कह दी, शायद बिना ज्यादा कुछ सोचे ही| लेकिन जब उन्होंने गौर से सोचा तो चेहरे पर चिंता की लकीरें दौड़ गईं कि भला मजाक में भी कोई ऐसा कहता है|
हफ़्तों क्या महीनों से ही घर में चर्चा चल रही थी और उनको बार बार याद दिलाया जा रहा था| वह एक कान से सुनते और दूसरे से निकाल देते, आखिर शादी के १५ वर्षों में इतना तो उन्होंने सीख ही लिया था| जब उनको लगता कि लुगाई समझ रही है कि वह अनसुना कर रहे हैं तो हाँ हूँ भी कह देते|…
Added by विनय कुमार on October 20, 2016 at 6:23pm — 4 Comments
Added by रामबली गुप्ता on October 20, 2016 at 11:00am — 15 Comments
2122 1122 1122 22
बात सरहद पे अगर अब भी पुरानी होगी
तब दिलों मे हमें दीवार उठानी होगी
हर कहानी में हक़ीकत भी ज़रा होती है
ये हक़ीकत भी किसी रोज़ कहानी होगी
हाथ जिनके भी बग़ावत पे उतर आये हों
पैर में उनके भला कैसे रवानी होगी
सभ्य लोगों में असभ्यों की तरह बात तो कर
ये नई नस्ल है, तेरी भी दिवानी होगी
अपने अजदाद कभी राम-किसन-गौतम थे
देखना घर मे बची कुछ तो निशानी होगी
रंग…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on October 20, 2016 at 8:10am — 19 Comments
१२२२ १२२२ १२२
इन आँखों में जो सपने रह गये हैं
बहुत ज़िद्दी, मगर ग़मख़ोर-से हैं
अमावस को कहेंगे आप भी क्या
अगर सम्मान में दीपक जले हैं
अँधेरों से भरी धारावियों में
कहें किससे ये मौसम दीप के हैं
प्रजातंत्री-गणित के सूत्र सारे
अमीरों के बनाये क़ायदे हैं
उन्हें शुभ-शुभ कहा चिडिया ने फिर से
तभी बन्दर यहाँ के चिढ़ गये हैं
उमस बेसाख़्ता हो, बंद कमरे-
कई लोगों को फिर भी जँच रहे हैं …
Added by Saurabh Pandey on October 20, 2016 at 4:00am — 26 Comments
भीतर पुराने धूल-सने मकबरे में
धुआँते, भूलभुलियों-से कमरे
अनुभूत भीषण एकान्त
विद्रोही भाव
जब सूझ नहीं कुछ पड़ता है
कुछ है जो घूमघाम कर बार-बार
नव-आविष्कृत बहाने लिए
अमुक स्थिति को ठेल…
ContinueAdded by vijay nikore on October 19, 2016 at 11:00pm — 14 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on October 19, 2016 at 2:00pm — 4 Comments
माँ ...
दर्द का
मंथन हुआ तो
एक सागर
बूँद बन
लहद पर
ऐसा गिरा
कि
गर्म लावे से पिघल
माँ
लहद से बाहर
आ गयी
ले के दर्द बेटे का
फिर
लहद में
समा गयी
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on October 19, 2016 at 1:00pm — 4 Comments
झील ने कवि से पूछा, “तुम भी मेरी तरह अपना स्तर क्यूँ बनाये रखना चाहते हो? मेरी तो मज़बूरी है, मुझे ऊँचाइयों ने कैद कर रखा है इसलिए मैं बह नहीं सकती। तुम्हारी क्या मज़बूरी है?”
कवि को झटका लगा। उसे ऊँचाइयों ने कैद तो नहीं कर रखा था पर उसे ऊँचाइयों की आदत हो गई थी। तभी तो आजकल उसे अपनी कविताओं में ठहरे पानी जैसी बदबू आने लगी थी। कुछ क्षण बाद कवि ने झील से पूछा, “पर अपना स्तर गिराकर नीचे बहने में क्या लाभ है। इससे तो अच्छा है कि यही स्तर बनाये रखा जाय।”
झील बोली,…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 19, 2016 at 10:04am — 22 Comments
Added by Manan Kumar singh on October 18, 2016 at 8:00pm — 8 Comments
अस्पताल में आई. सी. यू. में भर्ती बेगम साहिबा को अपने जीवन के अंतिम पलों का अहसास होने लगा था । लेकिन मज़ाकिया स्वभाव के ज़िंदा दिल मिर्ज़ा साहब उनका हौसला बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे।
"अब तो जा रहीं हूँ जनाब, अपना ख़्याल रखियेगा, ऐसे ही ख़ुशमिज़ाज बने रहियेगा!" बेगम ने मिर्ज़ा जी की हथेली थामते हुए कहा।
"पगली, ये भी कोई मज़ाक का वक़्त है, लोग 'करवा चौथ' मना रहे हैं आज और तू जाने की बात सोच रही है, ऐं!" मिर्ज़ा जी ने उनके माथे पर बोसा देते हुए कहा।
"मैं कहती थी न कि मैं तुम्हारे…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 18, 2016 at 7:00pm — 7 Comments
पूरा दिन धूप में गुजर गया रग्घू का, लेकिन आज ठीक ठाक दिहाड़ी मिल गई थी उसको| आजकल मौसम कुछ बदल सा गया है, इस समय तो ठण्ड शुरू हो जाती थी और काम करने में दिक्कत नहीं होती थी, रग्घू सोचते हुए घर की तरफ चला| ठेला चलाना वैसे तो काफी श्रमसाध्य होता है, लेकिन जब घर पर पत्नी और बच्चे इंतज़ार में हों तो कोई और रास्ता भी नहीं बचता| मंडी के पास से गुजरते हुए उसकी नज़र किनारे बैठे एक बुढ़िया पर पड़ी जो केले बेच रही थी| केले पिलपिले और काले हो गए थे लेकिन काफी सस्ते मिले तो उसने एक दर्जन खरीद लिए|…
ContinueAdded by विनय कुमार on October 18, 2016 at 4:24pm — 4 Comments
Added by Seema Singh on October 18, 2016 at 1:48pm — 4 Comments
लम्हा ...
ख़ामोश था
मैं जब तलक
हर तरफ़
इक शोर था
खोली जुबाँ
जो मैंने ज़रा
तो
हर शोर
ख़ामोश हो गया
इक लम्हा
ज़लज़ले में सो गया
इक लम्हा
ज़लज़ला हो गया
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on October 18, 2016 at 1:44pm — 4 Comments
एक ही क्लास में पढ़े हुएI साथ साथ रहते बड़े हुएI मेरे दोस्त ने बेईमानी का रास्ता चुना और नजदीक के शहर में रहते हुए राजनेता बना और में ईमानदारी से गरीबी से लड़ते हुए टीचर बनाI लेकिन दोस्त की अच्छी बात ये रही की वो आज भी मुझसे बातें करता हैI और हर संभव मदद भी करता हैI और अपने शहर में आने का न्योता भी देता हैI आज उन से मिलने का प्लान बना लियाI बजाज का स्कूटर को बीस पच्चीस किक मारकर गर्म किया और अपनी भाग्यवान से धक्का मरवा कर चालू कियाI जैसे ही दोस्त के शहर पंहुचाI एक चौराहे पर ट्रैफिक पुलिस ने…
ContinueAdded by harikishan ojha on October 18, 2016 at 10:43am — 2 Comments
निशा अपने सात साल के बेटे के साथ दिवाली की खरीदारी करके घर वापिस आ रही थी। रस्ते में कुछ बच्चे पटाखे जला रहे थे। सारे वातावरण में बारूद की गंध और धुँआ फैला हुआ था। अचानक उसके बेटे को तेज खाँसी शुरू हो गई और इतनी बढ़ गई कि वह बेहोश हो गया। लोगों ने मदद करके उनको जल्दी से हस्पताल पहुँचाया। थोड़ी देर बाद वह सामान्य हो गया।
"डॉक्टर साहब, मेरे बेटे को क्या हुआ था? चिंता की बात तो नहीं है ना?"- निशा ने घबराते हुए पूछा।
"हाँ, यह अब ठीक है, लेकिन चिंता की बात तो है। इसे साँस…
ContinueAdded by विनोद खनगवाल on October 18, 2016 at 10:43am — 3 Comments
२१२२ २१२२ २१२
शत्रु ना छू पाय सीमा दोस्तों
सावधानी का ज़माना दोस्तों |
वीर हो बलवान हो तुम पासबाँ
हो बुलंदी पर तिरंगा दोस्तों |
शूरवीरों पर ही आश्रित भारती
शिर न झुकने पाय इसका दोस्तों |
माज़रा सरहद पे उलझा है बहुत
साथ मिलकर ठान लेना दोस्तों |
प्राण से प्यारा हमें कश्मीर है
हाथ से जाने न देना दोस्तों |
मौलिक /अप्रकाशित
Added by Kalipad Prasad Mandal on October 18, 2016 at 10:30am — 8 Comments
Added by नाथ सोनांचली on October 18, 2016 at 4:46am — 2 Comments
अनबोले लम्स ....
आज मेरे
दिल के आईने में
मुझे
तुम नज़र आये थे
तन्हाई थी
मैं थी
और
तुम थे
अपने लम्स के साथ
मेरे ज़िस्म पर
बे-आवाज़
हौले हौले
रेंगते हुए
मेरी
हर
न को
तुम कुचलते रहे
खामोशियाँ
सरगोशियां करती रहीं
लौ भी
कहीं तारीक में
खो गयी
बस
शेष रही
मैं
और
मेरे ज़िस्म के
हर मोड़ पर
तुम्हारे…
Added by Sushil Sarna on October 17, 2016 at 7:51pm — 2 Comments
Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 17, 2016 at 7:46pm — 4 Comments
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