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क्षणिकाएँ

क्षणिकाएँ

आज़ादी का जश्न मना लेने भर से,

देश भक्तों की पहचान नही होती है ,

सिर उठाने की अगर कोशिश भी करे कोई तो ,

रूह कांप जाये ,ये वीर सपूतों की शान होती है.

उपजाऊ भूमी भी बंजर बन जाती है

बुद्दी जब…

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Added by Dr Dilip Mittal on November 28, 2013 at 9:30pm — 6 Comments

ग़ज़ल - (रवि प्रकाश)

बहर-ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽ
.
ज़िंदगी कैसी बग़ावत हो गई।
मौसमों से भी अदावत हो गई॥
.
ले चली है हाँकती जाने किधर,
वासना सबकी महावत हो गई।
.
संयमी का पेट आधा ही भरा,
भोगियों की रोज़ दावत हो गई।
.
चापलूसी है चलन में इन दिनों,
वीरता केवल कहावत हो गई।
.
रुक गई थी काँप के दो पल 'रवी',
साँस मेरी फिर यथावत हो गई॥
.
-मौलिक व अप्रकाशित॥

Added by Ravi Prakash on November 28, 2013 at 8:48pm — 15 Comments

गीत - जी रही हैं दूरियाँ

भींगते तकियों से आँसू पी रही हैं दूरियाँ

मस्त हो नजदीकियों में जी रही हैं दूरियाँ

अनदिखी कितनी लकीरें खींच आँगन में खड़ीं

अनसुनेपन को बना बिस्तर दलानों में पड़ीं

बैठ फटती तल्खियों को सी रही हैं दूरियाँ

तोड़ देतीं फूल गर खिलता कभी एहसास का

कर रहीं रिश्तों के घर को महल जैसे ताश का

इन गुनाहों की सदा दोषी रही हैं दूरियाँ

प्यार में जब घुन लगा तो खोखलापन आ गया

भूतबँगले सा वहाँ भी खालीपन ही छा गया

ऐसे ही माहौल में…

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Added by कुमार गौरव अजीतेन्दु on November 28, 2013 at 6:30pm — 11 Comments

चलो मिलते हैं वहाँ ........ मीना पाठक

धरती के उस छोर पर 

धानी चूनर ओढ़ कर    

वसुधा मिलती हैं अनन्त से जहाँ

चलो मिलते हैं वहाँ !!

 

बन्धन सारे तोड़ कर

लहरों की चादर ओढ़ कर

दरिया मिलता है किनारे से जहाँ

चलो मिलते हैं वहाँ!! 



पर्वतों से निकल कर

लम्बी दूरी चल कर

नदियाँ मिलती है सागर से जहाँ

चलो मिलते हैं वहाँ!! 



बसंती भोर में

खिले उपवन में

भँवरे फूलों से मिलते हैं जहाँ

चलो मिलते हैं वहाँ !!



स्वाति नक्षत्र के

वर्षा की…

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Added by Meena Pathak on November 28, 2013 at 6:11pm — 32 Comments

ग़ज़ल- सारथी || कली बेजार है ||

कली बेजार है, अपनी नजाकत से

बला की खूबसूरत हैं, क़यामत से/१

अकेला हुस्न जो देखा सरे-महफ़िल

तो हम पहलू में जा बैठे शरारत से /२

ज़मीं पर चाँद उतरा है ख़ुशी है ; पर

सितारे ग़मज़दा हैं इस बगावत से /३

बदन सोने सरीखा है , अगर मानो 

जरा सा तिल लगा दूँ मैं, इजाजत से /४

बड़े खामोश रहते हो, वजह क्या है

समंदर दिल में रक्खा है हिफाजत से/५

सुना जो बागबां से आप का किस्सा

गुलिस्तां छोड़ आये हैं शराफ़त से /६

मेरी माँ फिक्रमंदी में,…

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Added by Saarthi Baidyanath on November 28, 2013 at 11:30am — 19 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
!!!! टूटते विश्वास को !!!! नवगीत !!!! ( गिरिराज भंडारी )

!!!! टूटते विश्वास को !!!! नवगीत !!!!

किस तरह से

मै बचा लूँ

टूटते विश्वास को

 

लोग कहते,

भूल जाऊँ

आँख मून्दे ,

कान…

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Added by गिरिराज भंडारी on November 27, 2013 at 11:30pm — 28 Comments

जीव की जड़ता

छंद- द्रुतविलंबित

लक्षण -  12 वर्णों के चार चरणों  वाले इस छंद के प्रत्येक चरण में 1 नगण  2 भगण तथा 1 रगण होता है I

 

111    211     211     212

 

प्रकट  है  तटबंध   प्रवाहिका

नयन गोचर है   सरिता नहीं

इक तना लघु था  सहसा  तना

न चरता पशु भी इक पास में I

 

सरित का कुछ गान हुआ नहीं

पवन का कुछ भान हुआ नहीं

विरल जीवन मात्र पिपीलिका

सघन  है  वन  नीरव देश भी I

 

उस तने पर है  सब  जीव…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 27, 2013 at 8:00pm — 12 Comments

कौन जाने...

कौन जाने

सिर्फ मैं हूँ,

या कि कोई और भी है,

जो उलझता है,

तड़पता है,

झुलसता है,

कभी फिर

बुझ भी जाता है...

जो उलझता है,

कि जैसे

ज़िन्दगी के क़ायदे-क़ानून

बनकर साजिशों के तार

चारों ओर से घेरा बनाकर

हर नये सपने

हर एक ख़्वाहिश

के सीने में चुभाकर

रवायतों की सलाईयाँ,

बुनते और बिछाते जा रहे हों

मकड़ियों के जाल...

जो तड़पता है,

उसी मानिन्द

जैसे सीपियों…

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Added by अजय कुमार सिंह on November 27, 2013 at 5:51pm — 13 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
सृजन-सृजन (अतुकांत) ...............डॉ० प्राची

शब्द तरंगहीन 

      गहनतम 

      सान्द्रतम 

      और 

      निर्बाध उन्मुक्तता में अवस्थित

      विलगता-विलयन के 

      सुलझे तारों पर स्पंदित

मन का अंतर्गुन्जन... / मदमस्त

जब चुन बैठे कोई स्वप्न 

और 

नियति 

चरितार्थ करने को हो बाध्य !

तब,

विधि विधान…

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Added by Dr.Prachi Singh on November 27, 2013 at 3:00pm — 34 Comments

ढूँढ़ लाया है

उजालों की पनाहों में अंधेरे ढूँढ़ लाया है ।

ये दिल नादाँ बुरे हालात मेरे ढूँढ़ लाया है ।

के बीती रात जो यादें भुलाकर सो गया था मै ,

उन्हें जाने कहाँ से फिर सवेरे ढूँढ़ लाया है ।

ये अरमाँ ये तमन्नायें ये ख्वाहिश और ये सपने ,

मेरे चैनों सुकूनों के लुटेरे ढूँढ़ लाया है ।

ख़यालों कल्पनाओं की अज़ब दुनिया में खोया है ,

हकीकत से परे पहलू घनेरे ढूँढ़ लाया है ।

कभी सीखा न था हमने ग़ज़ल गीतों का ये दमखम ,

मेरी जानिब…

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Added by Neeraj Nishchal on November 27, 2013 at 1:32pm — 11 Comments

चंद मुक्तक

1. .....कुछ दीप जलते रह गए …



शायद हमारे प्यार के ....कुछ शब्द अधूरे रह गए

कुछ सकुचाये इकरार से ...कुछ नज़र से बह गए

मासूम लौ निर्बल हुई कम्बखत पवन के जोर से

कहने कहानी प्यार की ..कुछ दीप जलते रह गए

...............................................................................

2. ..........जिस्म तेरी यादों का ....

कफ़स बन के रह गया है .....ये जिस्म तेरी यादों का

सह रहा है अज़ाब कितना .अब ये दिल टूटे वादों का

अब तलब…

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Added by Sushil Sarna on November 27, 2013 at 1:00pm — 14 Comments

गीत (राजेश 'मृदु)

सारथी, अब रुको

ये जुए खोल दो

बस इसी ठांव तक

था नाता तेरा

पथ यहां से अगम

विघ्‍न होंगे चरम

बस इसी गांव तक

था अहाता तेरा

कर्म तरणी सखे

पार ले चल मुझे

सत्‍य साथी मेरे

धर्म त्राता मेरा

होम होना नियम

टूटने दे भरम

नीर नीरव धरा

क्षीर दाता मेरा

जा तुझे है शपथ

कर न मुझको विपथ

फिर मिलूंगा तुझे

है वादा मेरा

(मौलिक एवं…

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Added by राजेश 'मृदु' on November 27, 2013 at 12:33pm — 19 Comments

दोहा-१०(विविधा)

व्यर्थ प्रपंचन छोड़कर,मीठी वाणी बोल! 

कर तू खुद ही न्याय अब,अंतर के पट खोल !!



धुआँ धुआँ चहुँ ओर है,घिरी अँधेरी रात !

जुगनूँ फिर भी कर रहा,उजियारे की बात !!



लोगों को क्या हो गया,करते उल्टी बात !

कहें रात को दिवस अब ,और दिवस को रात !!



शब्दों के सामर्थ्य का, ऐसा हो अध्याय।

चले लेखनी आपकी, लिखे न्याय ही न्याय॥



नीति नियम दिखते नहीं ,भ्रष्ट हुए सब तंत्र !

जिसे देखिये रट रहा ,लोलुपता का…

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Added by ram shiromani pathak on November 26, 2013 at 11:30pm — 28 Comments

भिखारिन (हास्य व्यंग्य) अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव

छोटे शहर में ब्याही गईं, कुछ महानगर की लड़कियाँ।                   

जींस टॉप लेकर आईं, ससुराल में अपनी लड़कियाँ।।                   

 

बहुयें सभी बन गई सहेली, मुलाकातें भी होती रहीं।     

जींस-टॉप में पहुँच गईं, एक उत्सव में बहू बेटियाँ॥

 

सास -   ससुर नाराज हुए, पति देव बहुत शर्मिंदा हुए।                           

भिखारियों को घर पे बुलाए, साथ थी उनकी बेटियाँ।।

 

बड़ी देर तक समझाये फिर, जींस पेंट और टॉप…

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Added by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on November 26, 2013 at 10:30pm — 31 Comments

***मैं बहुत हेट करती हूँ ……………***

मैं बहुत हेट करती हूँ ……………



हेट हेट हेट

हाँ

मैं बहुत हेट करती हूँ

ये लव

मुहब्बत

और

प्यार जैसे

सब लफ़्ज़ों से

मुझे…

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Added by Sushil Sarna on November 26, 2013 at 12:30pm — 18 Comments

अपनी अपनी राह

'क्या सोचा?'

'अभी कुछ नहीं सोचा I '

'वैसे तुम बेकार घबरा रही हो  i'

'मै घबरा नहीं रही '

'फिर-----?'

'सोचती हूँ यह कोई विकल्प नहीं है I '

'क्यों ------?'

'कल यही स्थिति फिर आएगी I '

'तब की तब देखा जायेगा I '

'तो अभी क्यों न देख ले ?'

'तुम समझी नहीं --'

'क्या---?'

'अभी हमें इसमें फंसने की क्या जरूरत है ?'

'क्यों ----?'

'ये दिन मौज करने के है, ऐश करने के है I '

'और-----बहारो  के मजे लूटने के…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 26, 2013 at 12:17pm — 7 Comments

घर से निकली तो वो अखबार में आ जाती है

बात सच जो लबे खुद्दार में आ जाती है

मैं ये सोचे हूँ क्यूँ बेकार में आ जाती है

 

सारा दिन खेलती है साथ में बच्चों के जो  

उनके सोते ही वो बाज़ार में आ जाती है

 

हर दफा सुन के चुनावी औ सियासी बातें

याँ चमक सूरते बीमार में आ जाती है

 

गालियाँ भीड़ को दे यार से भी लड़ मर ले

कैसे हिम्मत किसी मैख्वार में आ जाती है

 

रोते चेहरों को हँसाना ही जिन्हें है भाता  

रूह उन जैसी भी संसार में आ जाती…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on November 26, 2013 at 11:56am — 17 Comments

निरंतरता .... (विजय निकोर)

निरंतरता

 

निरंतरता?

निरंतरता क्या है?

यही न

कि पलक के झपकते ही यहाँ

सब बदल जाता है निरंतर

उतर-उतर जाता है दिन

फिसलते हर पल की तरह ...

मेरे उसे जी लेने से पहले

 

बार-बार

बदल-बदल जाने की निरंतरता

 

"कल के वायदे

कल के थे

आज की बात कुछ और"

मात्र इतना ही कह कर

बदल जाते हैं दिल ...

हाथ में आया न आया तब

सब छूट जाता है, टूट जाता है

मन का…

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Added by vijay nikore on November 26, 2013 at 9:30am — 24 Comments

पुस्तक का लोकार्पण

       पुस्तक रूप में छपना किसी भी रचनाकार का स्वप्न होता है. आज के युग में जब योग्यता पर पैसे को तरजीह दी जाती हो, एक सामान्य व्यक्ति के लिए अपनी रचनाओं को पुस्तक रूप में छपवाना अत्यंत दुष्कर कार्य है, वह भी तब विशेष रूप से, जबकि आपका नाम साहित्य के क्षेत्र में नया हो. ओबीओ से जुड़े हम १५ रचनाकारों के लिए इस स्वप्न के सच होने का अवसर आया जब अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबद ने साझा संकलन की एक श्रंखला प्रारम्भ की. ‘परों को खोलते हुए-१’ के रूप में हम १५ रचनाकारों की अतुकांत…

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Added by बृजेश नीरज on November 25, 2013 at 11:23pm — 34 Comments

" नपुंसक सोच "

वे विचार करते हैं

पर नहीं जनम लेता कोई नया विचार बाँझ मस्तिष्क से

इसी सोच विचार में बैठे रहने ने

अकड़ा दी है उनकी पीठ और गर्दन

कहीं से आती भी है आहट

किसी  नए विचार की

तो उस पर ध्यान देने कि अपेक्षा

वो करते हैं प्रयास

अकड़ी गर्दन घुमा कर देखने का कि

ये आवाज़ कहाँ से आती है

तब जाके जान पाता हूँ मैं कि

सुनने से ज़यादा , उनके लिए महत्वपूर्ण है

देखना आवाज़ कि शकलो-सूरत

और इस तरह नहीं ले पाते

वे ' गोद ' किसी भी नए विचार को…

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Added by AjAy Kumar Bohat on November 25, 2013 at 10:18pm — 10 Comments

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