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1221 1221 1221 121


हमेशा  राह में  नदियों,  बिछे पत्थर नहीं होते
मिला वनवास जिनको हो, उनके घर नहीं होते

.
किसी से बावफा तो, किसी से बेवफा क्यों दिल
कभी   इन  सवालों के,  कोई  उत्तर  नहीं होते

.
कभी  चलके, कभी  तर के, जहाँ   घूम  लेते हैं
परिन्दे जिनके उड़ने को, वदन पे पर नहीं होते

.
चला  देते  हैं झट खन्जर,  नीदों में भी साये पे
ये ना समझो जहन में कातिलों के डर नहीं होते

.
गर  जीना हो  भोलापन,  रहो  भीड़  से बचकर
कभी  भीड़ के  तन पे ‘मुसाफिर’ सर नहीं होते

.
घुला विष है दिमागों में, दिलों में भेडि़ये का खूं
वो तो हैं  वासना  के बुत, उनमें नर नहीं होते

.
-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
रचना मौलिक और अप्रकाशित है

  3 दिसम्बर 2013

Views: 657

Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 7, 2013 at 12:13pm

आदरणीय नीलेश भाई, आशुतोष भाई एवं अनंत जी परामर्श के लिए हार्दिक धन्यवाद, आशा है इसी प्रकार मार्ग दर्शन करते रहँगे . आपके परामर्शानुसार प्रथम दो शेरो को 1222  में बाँधने का प्रयास किया है, सफल हुआ या नहीं बताएँ .पुनः हार्दिक धन्यवाद

सदा  इस  राह पर नदिया, कभी  बिछे पत्थर  नहीं होते
मिला जिनको वनवास होता है, उनके  हित घर नहीं होते
किसी से ये बावफा है तो, किसी से फिर बेवफा क्यों दिल
कभी  ऐसे   सवालों के, कहीं  भी  कोई  उत्तर  नहीं होते
कहीं चल कर, कभी  तर कर, वो दुनियाँ भी घूम   लेते हैं
परिन्दे जिन्हें कुदरत ने  दिए उड़ने को, कोई पर नहीं होते
कि चलाते  हमने देखे  हैं , साये पे नीदों में  भी झट खंजर
न समझाओ हमें इतना, जहन में कातिलों के डर नहीं होते
अगर  जीना हो  भोलापन,  तो  रहना  हर  भीड़ से बचकर
‘मुसाफिर’ खड़ी  भीड़ के  तन पर, कभी  भी सर नहीं होते
घुला हो विष जिनके मानस में और दिलों में भेडि़ये का खूं
ये वासना के बुत भले ही घूमते हैं पर उनमें नर नहीं होते

Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 5, 2013 at 9:27am

आदरणीय मेरी तरफ से आपका मंच पर हार्दिक अभिनन्दन ,,मैं भी अरुण जी और निलेश जी से इत्तेफाक रखता हूँ ..सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on December 5, 2013 at 7:29am

मंच पर स्वागत है भाई ... आप इस रचना को १२२२/ १२२२/ १२२२/ १२२२ में बंधने का प्रयास करें ... चूंकि आप ने मात्रा भार दिया है ऊपर अत: आप को ज्यादा कठिनाई नहीं होगी ... ये दरअस्ल इसी बहर की ग़ज़ल है ... 
बधाई 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 4, 2013 at 10:29pm

अनंत जी परामर्श के लिए धन्यवाद .किन्तु मैं आपकी बात सही तरह समझ नहीं पाया .यदि संशोधन सुझाएँ तो आभारी रहूँगा .पुनः धन्यवाद .

Comment by अरुन 'अनन्त' on December 4, 2013 at 4:28pm

आदरणीय मुसाफिर जी ओ बी ओ में आपका स्वागत है अच्छी ग़ज़ल हुई है कुछ अशआरों की पुनः तक्तीअ कर लें. शेर नम्बर चार में तदाबुले रदीफ़ का दोष है देख लीजिये. इस प्रयास हेतु बधाई स्वीकारें

Comment by Neeraj Nishchal on December 4, 2013 at 6:39am

गर जीना हो भोलापन, रहो भीड़ से बचकर
कभी भीड़ के तन पे ‘मुसाफिर’ सर नहीं होते

बहुत खूबसूरत

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 4, 2013 at 3:29am

आदरणीय भाई गोपाल जी , गिरिराज भाई , श्याम बन्धु तथा मुखर्जी बहन उत्साहबर्धन के लिए धन्यवाद .

भाई गिरिराज जी आपका सुझाव अच्छा लगा . असल बात यह है कि मुझे ग़ज़लशास्त्र का अधिक ज्ञान  नहीं है. इस कारन गलतियां सम्भव हैं . पर भरोसा है कि आप जैसे जानकारों के स्नेह से धीरे धीरे सीख जाऊँगा. इसी प्रकार मार्गदर्शन करते रहिये .

पुनः हार्दिक धन्यवाद . 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 3, 2013 at 6:18pm

धामी जी

आपका कथ्य अच्छा है i गिरिराज भाई की बात पर भी गौर कर ले i

मेरी  शुभ कामनाये i

Comment by coontee mukerji on December 3, 2013 at 4:17pm

घुला विष है दिमागों में, दिलों में भेडि़ये का खूं
वो तो हैं  वासना  के बुत, उनमें नर नहीं होते...............बहुत खूब


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Comment by गिरिराज भंडारी on December 3, 2013 at 1:58pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई , बहुत खूब सूरत गज़ल कही है , हर शे र बहुत अच्छी बातें कह रहे है !!!!  आपको ढेरों बधाई !!!!

आपके लिखे बह्र से कुछ शे र बाहर जा रहे हैं , एक बार और तक्तीअ कर के देख लें !!!!!

हमेशा  राह में  नदियों  --  की जगह -- राह मे नदिया - कर के देखें शायद जादा अच्छा लगे !!!!

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