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श्वेत वसना दुग्ध सी, मन मुग्ध करती चंद्रिका।

तन सितारों से सजाकर, भू पे उतरी चंद्रिका।

 

चाँद ने जब बुर्ज से, झाँका भुवन की झील में,

झिलमिलाती साथ आई, सर्द सजनी चंद्रिका।

 

पात झूमें, पुष्प हरषे, रात ने अंगड़ाई ली,

पाश में ले हर कली को, चूम चहकी चंद्रिका।

 

घन घनेरे, आसमाँ से, छोड़ डेरा छिप गए,

जब धरा पर शीत बदली, बन के बरसी चंद्रिका।

 

पर्वतों से, वादियों से, पाख भर मिलती रही,

सागरों की हर लहर से, खूब खेली चंद्रिका।

 

प्राणियों में प्रेम बोया, हर किरण से सींचकर,

प्रेमियों सँग गुनगुनाई, रात रानी चंद्रिका।

 

हर कलम की बन ग़ज़ल, शब भर सफर करती रही,

शबनमी प्रातः में चल दी, भाव भीगी चंद्रिका।

मौलिक व अप्रकाशित

कल्पना रामानी

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Comment by कल्पना रामानी on December 17, 2013 at 10:47pm

अदरणीया मीना जी, हार्दिक धन्यवाद

Comment by Meena Pathak on December 9, 2013 at 3:21pm

क्या बात है दी ... आनंद आ गया .. मन झूम उठा पढ़ के | सादर बधाई आप को 

Comment by कल्पना रामानी on December 8, 2013 at 6:24pm

आदरणीय सौरभ जी, नौका विहार!!! आहा, आपने तो एक दूसरे ही लोक में पहुँचा  दिया । काश, आपकी  मधुर आवाज़ का  मैं भी आनंद ले पाती! जब से आपकी टिप्पणी पढ़ी है  कल्पनालोक में खो गई हूँ, और मन गुनगुनाए जा रहा है। खैर...

रचना पर आने और सराहने के लिए आपका हार्दिक आभार

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 8, 2013 at 2:45am

वाह वाह वाह !

प्रकृति-सुषमा का मनोरम पहलू गदरायी चाँदनी रात, निरभ्र वातावरण एवं मंथर-मंथर होता हुआ नौका-विहार ! ..

आपकी ग़ज़ल ने भिगो दिया, आदरणीया !  हम सिक्त-सिक्त दुर्निवार स-सुर क्या हुए..  बस होते चले गये.. ओ माँझी रेऽऽऽऽऽऽऽ... ...

:-)))))

सादर

Comment by कल्पना रामानी on December 6, 2013 at 6:44pm

हार्दिक धन्यवाद सरिता जी

Comment by Sarita Bhatia on December 6, 2013 at 10:38am

वाह दी ,कमाल 

Comment by राजेश 'मृदु' on December 5, 2013 at 7:25pm

मैं शीत बदली को शीत का बदलना समझ रहा था, अब समझ गया, आभार आपका

Comment by कल्पना रामानी on December 5, 2013 at 6:45pm

आदरणीय आशीष जी, हार्दिक धन्यवाद

Comment by कल्पना रामानी on December 5, 2013 at 6:44pm

आदरणीया राजेश जी, आपका हृदय से धन्यवाद

Comment by कल्पना रामानी on December 5, 2013 at 6:43pm

राजेश जी, पंक्ति का भावार्थ तो बिलकुल स्पष्ट है-बादल होंगे तो चाँद कहाँ होगा? चाँद के होने से चाँदनी(शीत बदली)धरा पर  बरसी और उसे देखकर बादल छिप गए। विस्तार से कहें तो- घने बादल थे लेकिन चाँद भी तो वहीं होता है ना? जब चाँद बादलों की ओट से बाहर निकला और चाँदनी शीत बदली बनकर बरसी (शीतलता चाँदनी का गुण है)तो बादल छिप गए। और पूरा चाँद(यह उजले पाख का वर्णन है)रह गया। अगर सचमुच स्पष्ट कर सकी हूँ तो बताइये। पसंद करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद। सादर

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