भूख
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भूख हायकु
विचलित है मन
शब्द मनन|
पत्तल झूँठा
चाट भरता पेट
अमीर शेष|
झूठन चाट
शांत की उदराग्नि
कुत्तों के संग|
भृत्य लाड़ले ...सेवक
अवशेष भोजन
भूख मिटाते|
सगाई-शादी
क्यों भोजन…
Added by savitamishra on July 1, 2014 at 9:00pm — 6 Comments
स्वप्न
पावस-अमावस में, निविड़ में बीहड़ में
साहस की मूर्ति बनी कृष्ण अभिसारिका I
नीर नेत्र-नीरज में धर्म वृत्ति धीरज में
श्रृद्धा भक्ति भाव भरी आयी सुकुमारिका I
देखा प्रिय पंथ में खड़े है अड़े भासमान
धाय गिरी अंक मे अधीर हुयी चारिका I
चौंकि उठी उसी क्षण स्वप्न सुख भंग हुआ
हाय ! कहाँ कान्ह वे तो जाय बसे द्वारिका I
मुक्ति-चतुष्टय
(भारतीय दर्शन में चार प्रकार की मुक्ति मानी…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 1, 2014 at 7:00pm — 22 Comments
जब यादों की शबनम रोती है
तब सारी शब नम सी होती है
मेरी परवाह करे क्यों दुनिया
ज़ख्मो पर वाह सदा होती है
जगमग देखी जो मेरी दुनिया
जग मग में खार पिरोती हैं
प्रिय तम में उसको छोड़ गया
वो प्रियतम की खातिर रोती है
मूसा फिर आये राह दिखाने
राह…
ContinueAdded by gumnaam pithoragarhi on July 1, 2014 at 4:00pm — 11 Comments
प्रेम स्पंदन ....
नयन आलिंगन.....
अपरिभाषित और अलौकिक.....
प्रेम स्पंदन//
मौन आवरण में ....
अधरों का अधरों से....
मधुर अभिनंदन//
महकें स्वप्न....
नेत्र विला में....
जैसे महके.....
हरदम चंदन//
मेघ वृष्टि की.....
अनुभूति को ....
कह पाये न....
प्रेम अगन में....
भीगा ये तन//
विछोह वेदना…
ContinueAdded by Sushil Sarna on July 1, 2014 at 2:00pm — 24 Comments
मन के भावो को
कल्पना की कलम से
कोरे कागज़ पर
उतारता हूँ.
शब्दों की आड़ में,
चिंता के झाड़ से
बचाई "संवेदना" को
संवारता हूँ,
कागज की नाव पर
सपनो के सागर में
सच की पतवार लिए
हिलकोरे खाता हूँ.
डूबना -उतराना तो
खेल है जीवन का
जाने क्या आश लिए
क्षितिज तक जाता हूँ.
विजय प्रकाश शर्मा.
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on July 1, 2014 at 11:00am — 14 Comments
फिर वही कहानी “नारी व्यथा”
आज फिर सुर्ख़ियों में पढ़कर एक नारी की व्यथा,
व्यथित कर गयी मेरे मन को स्वतः
नारी के दर्द में लिपटे ये शब्द संजीव हो उठे हैं
इस समाज के दम्भी पुरुष
कभी किसी दीवार के पार उतर के निहारना
नारी और पुरुष के रिश्ते की उधडन नजर आएगी तुम्हे
कलाइयों को कसके भींचता हुआ, खींचता है अपनी ओर
बिस्तर पर रेंगते हुए, बदन को कुचलता है
बेबसी और लाचारी में सिसकती है,
दबी सहमी नारी की देह पर ठहाकों से लिखता है, …
Added by sunita dohare on July 1, 2014 at 1:30am — 19 Comments
फूल कैसे खिलें ? ( एक अतुकांत चिंतन )
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प्रेम विहीन हाथ मिले तो ज़रूर
मुर्दों की तरह , यंत्रवत
तो भी खुश हैं हम
शायद अज्ञानता और बेहोशी भी खुशी देती है ,एक प्रकार की
झूठी ही सही
और झूठी इसलिये
क्यों कि बेहोशी का सुख हो या दुख , झूठा ही होता है
इसलिये भी, क्योंकि
हम स्वयँ जीते ही कहाँ है
जीती तो है एक भीड़ हमारी जगह ,
भीड़ विचारों की , तर्कों – कुतर्कों की
भीड़ शंकाओं- कुशंकाओं की ,…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on June 30, 2014 at 6:42pm — 22 Comments
अहंकार ना
कभी आ जाये हमें
दिन न आये |
मनमोहन
छेड़े बंसी की तान
झूमती आऊं |
तनहा तुम
देगा न कोई साथ
खयाल रहे |
प्रकृति हमें
देती सब संपदा
लगाएं वृक्ष |
समेट रही
आँचल में अपने
पुष्प बिखरे |
अजनबी हम
चलते रहे साथ
इक दूजे के |
माता का हाथ
रहे सदैव माथ
धन्य जीवन |
पारिजात…
ContinueAdded by Meena Pathak on June 30, 2014 at 5:24pm — 17 Comments
काम से थककर चूर पत्नी ने कमर पीड़ा से कराहते हुए दर्द भरे स्वर में कहा - ‘हाय रा s sम !’
बिस्तर पर लेटे –लेटे पति ने पत्नी की व्यथा सुनी, बुरा सा मुंह बनाया और जोर से आह भरी – ‘हाय सी s sता !'
[अप्रकाशित व् मौलिक]
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 30, 2014 at 4:00pm — 37 Comments
मुझको तो गुज़रा ज़माना चाहिए।
फिर वही बचपन सुहाना चाहिए।
जिस जगह उनसे मिली पहली दफा,
उस गली का वो मुहाना चाहिए।
तैरती हों दुम हिलातीं मछलियाँ,
वो पुनः पोखर पुराना चाहिए।
चुभ रही आबोहवा शहरी बहुत,
गाँव में इक आशियाना चाहिए।
भीड़ कोलाहल भरा ये कारवाँ,
छोड़ जाने का बहाना चाहिए।
सागरों की रेत से अब जी भरा,
घाट-पनघट, खिलखिलाना चाहिए।
घुट रहा दम बंद पिंजड़ों में…
Added by कल्पना रामानी on June 30, 2014 at 2:30pm — 21 Comments
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 30, 2014 at 12:00pm — 45 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on June 30, 2014 at 9:01am — 18 Comments
हमें वो वेवफा कह कर बुलाते है सितम देखो
चुरा कर नीद रातो की सताते है सितम देखो
कभी मै देखता भी तो नहीं था जाम के प्याले
कसम दे कर मुझे अपनी पिलाते है सितम देखो
बडे अरमान से जिसने बनाया आशिया मेरा
वही उस आशिये को अब जलाते है सितम देखो
न रूठे वो कभी हमसे हमारे साथ चलते थे
मगर अब साथ गैरो का निभाते है सितम देखो
खुले जो लब कभी जिनके हमारा नाम ही निकले
न जाने क्यो वही हमको भुलाते है सितम देखो
मौलिक व…
ContinueAdded by Akhand Gahmari on June 30, 2014 at 8:00am — 19 Comments
1.
चिंतन की मथनी करे, मन का मंथन नित्य |
सार-सार तरै ऊपर , छूटे निकृष्ट कृत्य ||
छूटे निकृष्ट कृत्य , विचार में शुद्धि आए |
उज्ज्वल होय चरित्र, उत्तम व्यवहार बनाए||
मिले सटीक उपाय, समस्या को हो भंजन |
चिंता भी हो दूर , करें जब मन में चितन ||
2.
अक्ल बिना बंधु देखो , सरै न एकौ काम |
सब जीवों में श्रेष्ठतम , मानव तेरा नाम||
मानव तेरा नाम, है यह विवेक सिखाती |
ऊँच-नीच की बात, मानवों को समझाती ||
इक जैसा…
ContinueAdded by shalini rastogi on June 29, 2014 at 11:00pm — 6 Comments
हम क्यों खोजते है
सच को
बार बार?
कस्तूरी के
मृग की तरह
वो तो सदा
हमारे बीच
ही रहता है.
हम उसे रोज
देखते है
सुनते हैं
सूंघते हैं
पर अंजान बन
उंघते है.
अगर हमने
मान लिया
हम सच जानते है
तो लोग हमें
झूठा कहेंगे
क्योंकि वो भी
कस्तूरी गंध के
सच को जानते है.
विजय प्रकाश शर्मा
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on June 29, 2014 at 9:30pm — 17 Comments
मुझे वो याद करते हैं जो भूले थे कभी मुझको,
बस ऐसे ही जहां भर की मिली है दोस्ती मुझको.
.
ज़माना ज़ह्र में डूबे हुए नश्तर चुभोता है,
बचाती ज़ह्र से लेकिन मेरी ये मयकशी मुझको.
.
मुझे कहने लगा ख़ंजर, “मुहब्बत है मुझे तुमसे,
कि इक दिन मार डालेगी तुम्हारी सादगी मुझको.”
.
ज़माने का जो मुजरिम है सज़ाए मौत पाता है,
मिली मेरे गुनाहों पर सज़ाए ज़िन्दगी मुझको.
.
ख़ुदाया शह्र -ए-पत्थर में बना मुझ को तू आईना,
समझनी है अभी इन…
Added by Nilesh Shevgaonkar on June 29, 2014 at 6:30pm — 24 Comments
आज सुबह-सुबह दरवाजे पर दस्तक हुई.
रोज की तरह..
वर्तमान ही होगा..
विगत के द्वार से आया
दुरदुराया गया हुआ.. / फिर से.
एक विगत…
Added by Saurabh Pandey on June 29, 2014 at 6:00pm — 32 Comments
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 29, 2014 at 4:34pm — 11 Comments
1222 1222 1222 1222
जुबाँ से विष उगलते और मन में नफरतें होतीं
न तू होता अगर दिल में न तेरी रहमतें होतीं
नहीं जीवन बनाता तू धड़कता फिर कहाँ से दिल
न कोई ख़्वाब ही पलते न कोई हसरतें होतीं
जो तेरे हाथ शानों पर नहीं होते अगर मेरे
कहाँ से होंसला होता कहाँ ये हिम्मतें होतीं
बिना मतलब यहाँ तो पेड़ से पत्ता नहीं हिलता
ज़माना साथ क्या देता बड़ी ही जिल्लतें होतीं
न तुझ में आस्था…
ContinueAdded by rajesh kumari on June 29, 2014 at 2:00pm — 23 Comments
भीषण गरमी का मौसम( अतुकांत)
भीषण गरमी के मौसम में
हम करते हैं आराम।
लेकिन जिन्दगी में,
कैसे करें आराम ।
काली काली जामुन
सावन से पहले की मीठी मीठी
हमने खायी,नहाते नहाते
क्या बिन बिजली हम जीते नहीं थे
अब सब बिजली के बिन चिल्लाते हैं
मजदूरों को कभी गरमी नहीं लगती
न वो बोलते हैं
अगर बोलें भी , तो कोई नहीं सुनता।।
मौलिक व अप्रकाशित।
Added by सूबे सिंह सुजान on June 29, 2014 at 1:22pm — 7 Comments
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