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एक तरही ग़ज़ल....

हमेशा दौड़ में पिछड़ा रहा हूँ

मगर चिन्तन में मैं कछुआ रहा हूँ

खिलौना मैं नहीं जो खेल लोगे

हूँ इंसा मैं  भी ये  समझा रहा हूँ

सितम ढाओं, गुमां कर लो जी भर के

ये मत कहना कि मैं पछता रहा हूँ

मैं मुफ़लिस ही सही कोई नहीं गम

हमेशा दिल से ही सच्चा रहा हूँ

तेरी तस्वीर पलकों में सजा के

तेरी  यादों से दिल बहला रहा हूँ 

मौलिक व् अप्रकाशित 

Added by MAHIMA SHREE on October 20, 2014 at 10:00am — 5 Comments

कहानी

जाने किस तानेबाने मे उलझी, मैं अपनी खिड़की पे खड़ी थी।

इतने में मैंने देखा - एक सदाबहार का पौधा जो कि खिड़की की चौखट और दीवार की संद से निकल कर लहलहा रहा था ।

उसके हरे चिकने पत्ते प्याजी रंग के फूल मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे, लेकिन दीवार में बरसात का पानी मरेगा , ये सोच कर मैंने उखाड़ने के लिये हाथ बढ़ाया ही था, कि नीचे गली से आवाज आई-

"पौधे ले लो पौधे"

मैंने देखा-तो ठेले पर देसी गुलाब, इंगलिश गुलाब ,बोगन बेलिया ,एरोकेरिया पाम की विभिन्न किस्में रखी थी।

ये इंगलिश…

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Added by Dr.sandhya tiwari on October 19, 2014 at 10:30pm — 8 Comments

कविता

 कविता 

कविता हृदय की सहचरी है 

भावों से भरी हुई रस भरी है।

जिंदा दिलों की रवानगी है 

कविता कवि की वानगी है । 

कविता अपने दिल से उदार है

कवि के भावों की चित्रकार है ।

समेटती कई रहस्यों को अपने में

 संवेदनावों पर करती प्रहार है । 

उगती है कलम के साथ कागज पर 

पहुँच इसकी हृदय के उस पार है । 

कविता माला है भावों और शब्दों की 

शुष्क मन को भी करती तार-तार है…

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Added by kalpna mishra bajpai on October 19, 2014 at 10:00pm — 5 Comments

उत्सव [दोहावली]

उत्सव लाये हैं ख़ुशी,खूब सजे बाजार

साथ मिठाई के सजे,भिन्न भिन्न उपहार |



रंग रूप लेकर नए ,चमक उठे सब गेह

उत्सव हैं सब गर्व के ,बाँटे खुशियाँ नेह |



उत्सव धनतेरस हुआ,त्रयोदशी के वार

नूतन बर्तन हैं सजे ,और स्वर्ण बाजार |



छोटी दीवाली जले,यम दीपक हर द्वार

मुक्त हुईं कन्या सभी,नरकासुर को मार |



उत्सव दीपों का सभी,मनाते संग प्यार

सबको बाँटे रोशनी ,दीवाली त्यौहार |



अन्नकूट उत्सव रचा, दीवाली पश्चात

भोग…

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Added by Sarita Bhatia on October 19, 2014 at 8:00pm — 7 Comments

मैं गीतों को भी अब ग़ज़ल लिख रहा हूँ (डॉ. राकेश जोशी)

मैं गीतों को भी अब ग़ज़ल लिख रहा हूँ
हरेक फूल को मैं कँवल लिख रहा हूँ

कभी आज पर ही यकीं था मुझे भी
मगर आज को अब मैं कल लिख रहा हूँ

बहुत कीमती हैं ये आँसू तुम्हारे
तभी आँसुओं को मैं जल लिख रहा हूँ

लिखा है बहुत ही कठिन ज़िंदगी ने
तभी आजकल मैं सरल लिख रहा हूँ

समय चल रहा है मैं तन्हा खड़ा हूँ
सदियाँ गँवाकर मैं पल लिख रहा हूँ

मैं बदला हूँ इतना कि अब हर जगह पर
तू भी तो थोड़ा बदल लिख रहा हूँ

"मौलिक व अप्रकाशित"

Added by Dr. Rakesh Joshi on October 19, 2014 at 5:30pm — 6 Comments

गलती क्या थी मेरी माई.......गीत

'गलती क्या थी मेरी माई'



आज खबर एक फिर है आई

गर्भ में ही मासूम मिटाई।



पति भूला पितृत्व भी अपना

सास ससुर का 'वंश'का सपना

देख दशा नारी जीवन की

मौन मुहर उसने भी लगाई।...आज खबर



जीवन उसका लगा दाँव पर,

मृत्यु ने दस्तक दी ठाँव पर,

घबराये सब घर भर वाले,

खबर मायके तक पहुंचाई।...आज खबर



मात-पिता का फटा कलेजा,

भाई ने संदेसा भेजा,

बहना को गर कहीं हुआ कुछ,

अब खैर ना रही तुम्हारी।...आज खबर



भाभी ने आकर… Continue

Added by seemahari sharma on October 19, 2014 at 4:34pm — 11 Comments

कहाँ गए वो लोग

कहाँ गए वो लोग

औरों के गम में रोने वाले

संग दालान में सोने वाले।

साँझ ढले मानस का पाठ

सुनने और सुनाने वाले ।

होती थी जब बेटी विदा

पड़ोस की चाची रोती थी

फूल खिले किसी के आँगन

मिलकर सोहर गाने वाले

पाँव में भले दरारें थी

पर निश्छल निर्दोष हंसी

शादी के महीनो पहले

ब्याह के गीत गाने वाले

पूजा हो या कार्य प्रयोजन

पूरा गाँव उमड़ता था

किसी के घर विपत्ति हो

सामूहिक रूप से लड़ता था…

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Added by Neeraj Neer on October 19, 2014 at 3:45pm — 8 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
मैं जीवन रंगोली-रंगोली सजा लूँ (डॉ० प्राची)

तुम मुस्कुराहट के

दीपक जलाओ

मैं जीवन रंगोली-रंगोली सजा लूँ

....चलो आज मैं भी दीवाली मना लूँ

 

माटी बनूँ ! रूँध लो, गूँथ लो तुम

युति चाक मढ़ दो, नवल रूप दो तुम

स्वर्णिम अगन से

जले प्राण बाती-

मैं स्वप्निल सितारे लिये जगमगा लूँ

....चलो आज मैं भी दीवाली मना लूँ

 

ओढूँ विभा सप्तरंगी…

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Added by Dr.Prachi Singh on October 19, 2014 at 12:00pm — 12 Comments

ढीली लगाम

"अगर पी.पी.एफ कि डिटेल्स मिल जाती तो मैं अपनी सम्पति का ब्यौरा दे देती ताकि वीज़ा मिलने में आसानी रहे |” श्रीमती धनकड़ ने कहा

“आप तो वी.आर.एस.लेकर वहीं सेटल होने वाली हैं ना ?” एक साथी ने पूछ लिया

“दिमाग थोड़े खराब है ! इतनी अच्छी सरकारी नौकरी,मूंगफली फोड़नी नहीं, घुमने-फिरने जाते रहेंगे | वैसे भी वहाँ के क़ानून बहुत सख्त हैं ,अपनी तो यहीं बल्ले-बल्ले है जी |”

सोमेश कुमार (मौलिक एवं अप्रकाशित )

Added by somesh kumar on October 19, 2014 at 9:30am — 3 Comments

शर्म (लघुकथा)

कुत्तों की भोऊ-भोऊ,कोऊ-कोऊ, केए–केए से आवेशित हो कर अनुज बाहर आता है | पीछे छुपाए हुए डंडे को लेकर आगे बढ़ता है बाकी कुत्ते भाग खड़े होते हैं, पर आलिंगनबद्ध जोड़े के ऊपर तीन-चार डंडे भाज देता है | कराहता-चीखता-प्रतिरोध करता युग्ल कुछ दूर चला जाता है | खीझा हुआ अनुज अपनी पत्नी कि कोमल पुकार पर घर के भीतर हो लेता है | मोहल्ले के अन्य शर्मसार लोग भी अपने घरों के दरवाजें, खिड़कियाँ, बतियाँ बंद करने लगते हैं | बाहर स्ट्रीट-लाइट में युग्ल प्रतिद्वन्दियों के बीच, बेझिझक अपने प्रेम-अनुमोदन और सृजनीकरण…

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Added by somesh kumar on October 18, 2014 at 11:00pm — 4 Comments

अपनी दिवाली (लघुकथा)

"माँ ! आज मैं सुबह ही सभी के घर जाकर,  दियो में बचे हुए तेल इकठ्ठा कर लाया हूँ,
आज तो पूड़ी बनाओगी ना? "

"मौलिक व अप्रकाशित"

Added by Pawan Kumar on October 18, 2014 at 3:30pm — 14 Comments

धरती माँ.....

धरती माँ.....



प्राण प्रकृति सब कुछ झुलसाना

सूर्य हुआ है मनमाना।

मर्जी अपनी आना जाना

मेघ हुआ है मस्ताना।



तप्त पीत प्रकृति कर डाली

घैर्य धरा का जाँच रहा।

हँसता मुस्काता जन जीवन

निष्ठुर दिनकर दाघ रहा।

विनय कर रही धरती माता

मेहा जल्दी आ जाना।



कुपित हो गए काले मेघा

जमकर बरखा बरसाई।

रश्मि सँग रवि बंदी बनाया

ऊषा बिन लाली आई।

धरती माँ फिर विनय कर रही

सूर्य देवता आ जाना।

सीमा हरि शर्मा… Continue

Added by seemahari sharma on October 18, 2014 at 2:43pm — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल

1222- 1222- 1222

मुनव्वर शाम के रंगीं नज़ारों में

नुमायाँ फूल हों जैसे बहारों में

 

कहीं कम हो न जाये बज़्म की रौनक

लगा दो कुछ दिये भी चाँद तारों में

 

फ़रोग़े शम्अ महफिल में लगे है यूँ

झलकता हुस्न हो जैसे हज़ारों में

 

लकीरें धूप की झाँके दरीचे से

सवेरा छुप के बैठा है दरारों में

 

न जाने रंग कितने रोज़ भर जाये

ये नूरे शम्स झीलों कोहसारों में

 

हवा के सामने शिद्दत से जलती…

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Added by शिज्जु "शकूर" on October 18, 2014 at 8:59am — 12 Comments

समरूपता

“मोनू बेटा आज मालकिन ने 500 रुपया ईनाम दिए हैं ,चलो तुम्हें दिवाली के नए कपड़े दिलवा दें “माँ ने कहा

“माई ,हमे स्कूल कि ड्रेस दिवाए दो,प्रार्थना में गुरूजी अलग खड़ा कर देत हैं |”बच्चे के चेहरे पर संतोषभरी मायूसी थी |

सोमेश कुमार (मौलिक एवं अप्रकाशित )

Added by somesh kumar on October 17, 2014 at 7:30pm — 5 Comments

नवेली का भोज -डॉo विजय शंकर

नई नई शादी हुयी थी उनकीं। कुछ दिन दावतों वावतों का दौर चला फिर कुछ ख़ास दोस्तों ने कहना शुरू किया , " भाभी जी क्या बनाती हैं , कैसा बनाती हैं , कभी हम भी तो देखें। " जी , भाई साहब , क्यों नहीं , जरूर ", भाभी जी का सभी को यही जवाब होता था। फिर एक दिन उन्होंने पूरा भोज बनाया, कई तरह के पकवान बनाये , डाइनिंग टेबल पर सब सजाया , चारों एंगिल से उसकी फोटो खींची और फेसबुक पर डाल दी और लिख दिया , "सभी जानने वालों के देखने के लिए "

डेढ़ सौ लाइक आ गए और बहुतों ने कमेंट भी किया , " मजा आ गया…

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Added by Dr. Vijai Shanker on October 17, 2014 at 5:00pm — 10 Comments

इक दिया चाहिए रोशनी के लिए

इक दिया चाहिए रोशनी के लिए

बालता हूं जिगर मैं इसी के लिए

 

रोटी कपड़ा मकाँ की तरह साथियों

रौशनी लाज़मी हो सभी के लिए

 

वो भटकता हुआ इक मुसाफ़िर है ख़ुद

चुन रहे हो जिसे रहबरी के लिए

 

हौसला जिंदगी को ग़ज़ल ने दिया

मैं तो तैयार था ख़ुदकुशी के लिए

 

खैरियत से रहे सब हबीबो-अदू

मैं दुआ माँगता हूं सभी के लिए

 

मैं ग़मों को गले से लगाता रहा

लोग रोते रहे जब ख़ुशी के लिए

 

दोस्ती …

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Added by khursheed khairadi on October 17, 2014 at 3:00pm — 7 Comments

गीत: रँग जीवन हैं कितने

*रँग जीवन हैं कितने.

सुख अनंत मन की सीमा में,

दुख के क्षण हैं कितने ?

अभिलाषा आकाश विषद है,

है प्रकाश से भरा गगन.

रोक सकेंगे बादल कितना,

किरणों का अवनि अवतरण.

चपला चीर रही हिय घन का,

तम के घन हैं कितने ?

..दुख के क्षण हैं कितने ?

काल-चक्र चल रहा निरंतर,

निशा-दिवस आते जाते,

बारिश सर्दी गर्मी मौसम,

नव अनुभव हमें दिलाते.

है अमृतमयी पावस फुहार,

जल प्लावन हैं कितने ?

..दुख के क्षण हैं कितने ?

अनजानों की ठोकर सह…

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Added by harivallabh sharma on October 16, 2014 at 11:29pm — 14 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
तीन दोहे ...............डॉ० प्राची

प्रेम अगन करती सदा, चेतन का विस्तार

रोम-रोम तप भाव-तन, धरे नवल शृंगार

 

मैं-तुम भेद-विभेद हैं, मायावी मद भ्राम

द्वैत विलित अद्वैत सत, चिदानन्द अविराम

 

सूक्ष्म धार ले स्थूल तन, पराश्रव्य हो श्रव्य

गुह्य सहज प्रत्यक्ष हो, सधें नियत मंतव्य 

डॉ० प्राची 

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Dr.Prachi Singh on October 16, 2014 at 11:00pm — 18 Comments

लघुकथा : आस्तीन

"अरे, बड़ा अजीब सा नाम लगा इस बंगले का, आस्तीन भी कोई नाम है !" शहर में नए आये व्यक्ति ने दोस्त से पूछा !

"जी, ये बंगला जिन्होंने बनवाया वो अब वृद्धाश्रम में रहते हैं !"

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by Neeles Sharma on October 16, 2014 at 7:00pm — 13 Comments

लघुकथा : उलट गीता

"देखो जी, जवान लड़का है ,गलती हो गयी ! लड़की बेशक बलात्कार कहे, कमी उसमें भी होगी !"

"जान लगा दूंगा ,बेटे को जेल न जाने दूंगा !"

पिता ने ये कहते हुए चिंतातुर माँ को दिलासा दी !

.

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

Added by Neeles Sharma on October 16, 2014 at 6:30pm — 6 Comments

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