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श्रमिक

जागा श्रमिक अभाव की चादर पीछे कर

चला अपने भाग्य से लड़ने डट कर

रेशमी विस्तर में सोने वालों,

तुमने कभी सुबह उठ कर देखा है ।

 

साहस की ईंटों को चुनता हैं अरमानों के गारे से

फिर भी खुशी चलती है दीवार पर, उसके आगे

संगमरमर के महलों में सुख से रहने वालों,

तुमने उनके भूखे पेटों को कभी देखा है ।

 

तारों की छांव में रोज सबसे आगे उठता

फिर भी जीवन की अरूढ़ाई ना देख पाता

तरुणाई श्रमिकों की पीने वालों,

इनके सिकुड़े…

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Added by kalpna mishra bajpai on October 30, 2014 at 7:30am — 10 Comments

ग़ज़ल- सारथी || बेख़ुदी में पुकारा करेंगे ||

बेख़ुदी में पुकारा करेंगे 

बोल कैसे गुजारा करेंगे /१

आज उनसे निगाहें लड़ीं हैं 

आज जश्ने-बहारा करेंगे /२ 

शोरगुल में कहाँ बात होगी 

कनखियों से इशारा करेंगे /३

बेतहाशा हसीं आप हैं जी 

रोज सदके उतारा करेंगे /४ 

देखना हमसे मिलकर गये हैं 

आईने को निहारा करेंगे /५ 

...........................................
सर्वथा मौलिक व अप्रकाशित

अरकान: २१२ २१२ २१२२

Added by Saarthi Baidyanath on October 29, 2014 at 11:00pm — 21 Comments

साँसों के संबंध का , बस इतना अनुवाद..............

धीरज धर कर जीवन को , पाला होता काश

पुष्प ना बनता मैं भले , बन ही जाता घास 

कितने जमनों का भँवर लिपटा मेरे पाव

धूप भी अब लगती सुखद जैसे ठंडी छाव

प्यासे को पानी मिले , गर भूखे को अन्न

हर गरीब हो जाए इस , धरती पे संपन्न

आकर बैठो पास में मेरे भी , कुछ वक़्त

आगे का लगता सफ़र होने को है सख़्त

मिला मुझे जैसा भी जो , स्वीकारा बे-खोट

इसलिए शायद हृदय , पाया मेरा चोट

नींदे जगती रात भर , सोते रहते…

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Added by ajay sharma on October 29, 2014 at 10:30pm — 8 Comments

काले धन का हल्ला

छन्न पकैया छन्न पकैया, काले धन का हल्ला ।

चोरों के सरदारों ने जो, भरा स्वीस का गल्ला ।।



छन्न पकैया छन्न पकैया, कौन जीत अब लाये ।

चोर चोर मौसेरे भाई, किसको चोर बताये ।।



छन्न पकैया छन्न पकैया, सपना बहुत दिखाये ।

दिन आयेंगे अच्छे कह कह, हमको तो भरमाये ।।



छन्न पकैया छन्न पकैया, धन का लालच छोड़ो ।

होते चार बाट चोरी धन, इससे मुख तुम मोड़ो ।।



छन्न पकैया छन्न पकैया, काले गोरे परखो ।

कालों को दो काला पानी, बात बना मत टरको ।। …

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Added by रमेश कुमार चौहान on October 29, 2014 at 9:30pm — 6 Comments

मैं नदी हूँ

क्योकि में इक नदी हूँ

मेरा कोई दोष नहीं

फिर भी मैं दोषी हूँ

करते तुम सब लोग हो

भरती मैं हूँ ..

क्योकि में इक नदी हूँ

मुझमे भी जीवन है

मेरा भी  अस्तित्व है

मेरी एक पहचान है

जो लोग करते पूजा हैं  

वही गंदगी भी देते हैं  

चुपचाप सब सहती हूँ

क्या करूँ मैं इक नदी हूँ ...

जागो अब भी जागो

विलुप्त हो जाऊ उस से

पहले मुझे बचा लो

नहीं तो रह जाओगे प्यासे

जैसे बीन पानी मछली तरसे ,

जाने कितने दोहन हुए…

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Added by Alok Mittal on October 29, 2014 at 6:00pm — 10 Comments

ताना

"ममी बिस्कुट "22 महीने की उस बच्ची ने तुतलाती आवाज में कहा ।

माँ के बोलने से पहले ही दादी चीखी

" हाँ खिला न बिस्कुट यहा तो तेरे बाप ने पैसे रखे है । 3 बेटियाँ पैदा कर दी । अब तो जिन्दगी भर खिलाना ही है कुतिया कही की ...."

"माँजी गाली मत दो"

"अरे कलमुँही बकरी की तरह लडकियों की रेवड फेला दी और मुझसे जबान लड़ाती है । "

"बच्चे तो भगवान की देन है "

"तो उसी भगवन से इक बेटा क्यों न ले आई ।"

शाम को

"अरी ओ अभागन ! कमरे में मर गई क्या ? इन बकरियों की मेमे को तो बंद… Continue

Added by किशन कुमार "आजाद" on October 29, 2014 at 6:30am — 6 Comments

मानसिकता

     मानसिकता

“ सुना है ,कल छठ की गजटेड छुट्टी है ? ” मिस कामिनी ने चिप्स मुँह में भरते हुए कहा

“जी |”

“ अच्छा है एक और दिन आराम को मिला पर किसी और पर्व पे करनी चाहिए थी इसीलिए तो इन लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है दिल्ली में - - - “उन्होंने गिरे हुए चिप्स को पैरों से रौंदते हुए कहा |

“तो कहाँ जाएँगे ये लोग !क्या ये देश/शहर इनका नही हैं ?”

“वहीं रहें ,सिर्फ उतने आने दिए जाएँ जिससे गंदगी ना हो और हमे लेबर वगैरह आराम से मिलते रहें “उन्होंने खाली पैक्ट वहीं फैंक…

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Added by somesh kumar on October 28, 2014 at 11:24pm — 8 Comments

ग़ज़ल -निलेश "नूर"

मेरे दिल से ये भी न पूछिए, कि जला कहाँ ये बुझा कहाँ,

जो शरर था आग़ था ख़ाक है लगी इसको ऐसी हवा कहाँ.

.

कई संग उठे हैं मेरी तरफ़, कई उँगलियाँ मेरी ओर हैं,  

जो सज़ा मिली है गुनाह की वो गुनाह मैंने किया कहाँ.

.

मेरे लडखडाने की देर है, मुझे मयपरस्त कहेंगे सब,

उन्हें क्या पता मुझे इश्क़ है, कभी जाम मैंने छुआ कहाँ.     

.  

जो ख़ुदा कहे यहीं जम रहूँ, जो इशारा हो अभी चल पडूँ,

ये जो वक़्त है ये घड़ी का है, ये कभी किसी का हुआ कहाँ.   

.

ये…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on October 28, 2014 at 11:09am — 12 Comments

खुशियों की तारीख

खुशियों की तारीख

अस्पताल के हृदय-वार्ड में वो दम्पति उदास और गमगीन बैठा था |रह-रह कर उनके गलों से आँसू नीचे ढलक रहे थे |दीवाली और तीन साल की इकलौती बेटी के जन्मदिन में शामिल ना हो पाने की कसक ने उनके अंदर चक्रवात ला दिया था |स्त्री के हृदय-आपरेशन के बाद आई विसंगतियों के कारण वे घर से 250 किमी दूर यहाँ बेटी को एक पड़ोसी के यहाँ छोडकर पड़े थे | राम जी को जब सारी स्थिति पता चली तो वो दम्पति के पास पहुँचे और पति के काँधे पर हाथ रखकर समझाया –ये सही रहीं तो जीवन की कितनी ही दिवाली…

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Added by somesh kumar on October 27, 2014 at 11:00pm — 2 Comments

ग़ज़ल ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

याद तेरी है कोई दल दल क्या
डूबता जाता हूँ मैं ;पल पल क्या

हर क़दम पे मिले फ़ना आशिक़
है तुम्हारी गली भी मक़्तल क्या

हो गए चूर सपने बच्चों के
खा गई बाप को ये बोतल क्या

सच ओ ईमाँ की बात करता है
उसको कहता जहां ये पागल क्या

ढूंढ ही लेते हैं मुझे ये ज़ख़्म
ज़ख़्म भी बन गए है गूगल क्या

मौलिक व अप्रकाशित
गुमनाम पिथौरागढ़ी

Added by gumnaam pithoragarhi on October 27, 2014 at 8:20pm — 12 Comments

मुझको फुर्सत में सताती है मेरी तनहाई...

बात करता हूं तो बातों में मेरी तनहाई

आंसुओं की तरह आंखों में मेरी तनहाई,

मेरी दहलीज पे जलते हुए चरागों को

आंधी बन करके बुझाती है मेरी तनहाई,

बेवफाई का गिला जब भी किया है मैंने

मुस्कराती है, रुलाती है मेरी तनहाई,

मेरे हिस्से के ये इतवार इन्हें तुम ले लो

मुझे फुर्सत में सताती है मेरी तनहाई,

जिंदगी मौत की राहों पे चला करती है

आईना रोज दिखाती है मेरी तनहाई,

दुश्मनों ने तो हमें वार करके छोड…

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Added by atul kushwah on October 27, 2014 at 6:00pm — 11 Comments

जेवर (लघुकथा)

चमचमाती हुई विेदेशी गाड़ी देखकर जैसे कान्ता ही चौंधिया गईं गाड़ी का दरबाजा खुला तो अन्दर से निकले बिदेशी इत्र का ज़बरदस्त झौंका उसके नथुनों से टकराया। सर से पाँव तक ज़ेवरों से लदी हुई बन्दिता नपे तुले पाँव जमीन पर रखते हुए गाड़ी से बाहर आई और कहा : “

मैने सोचा, तुम्हें शादी में अपने साथ ही ले चलूँ  और इसी बहाने तुम्हारा घर भी देख लूँ । किधर हे तुम्हारा घर ?”

“वो उधर उस गली में, लेकिन उधर गाड़ी नही जाएगी। ” कान्ता ने अपने घर की तरफ इशारा करते हुए बताया ।

“गाडी वहाँ नही जा सकती, तुम…

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Added by Bipul Sijapati on October 27, 2014 at 2:00pm — 8 Comments

गली में खेलती वो लड़की

गली में खेलती वो लड़की

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गली में खेलती वो लड़की

कई आँखों के केंद्र में है |

कुछ आँखों के लिए वो सरसरी भर है

कुछ दूरबीन लगाए बैठी हैं

देखती रहती हैं 

उसकी हर छोटी-बड़ी चपलता 

कुछ आँखों के लिए वो किरकिरी है

लगातार बदलती हवा का

दुष्परिणाम 

इतनी बड़ी लड़की का गली में खेलना..

मतलब, उसे गलत दिशा में धकेलना है !

अच्छा नहीं होता 

लड़कियों को इतनी छूट का मिलना 

इसीकारण, उसकी माँ उसे देती रहती है नसीहतों के घूँट…

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Added by somesh kumar on October 27, 2014 at 11:30am — 10 Comments

अधसूखे घाव

सिसकियों से सींची

टूटी ज़िन्दगी बार-बार जीने के बाद

पंख कटे रक्ताक्त पंछी-सी मैं…

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Added by vijay nikore on October 26, 2014 at 8:00pm — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल

2122 1122 22

खुद से यूँ आप वफ़ा कर चलिये

गाह सच को न छुपा कर चलिये

 

मैं इबादत में करूँ सजदे आप

दैर पर शीश नवा कर चलिये

 

दिल में भर जाये सड़न ही न कहीं

नफ़रतें दिल से हटा कर चलिये

 

चलिये महका के ज़माने भर को

प्यार का फूल खिला कर चलिये

 

कीजिये अम्न की कोशिश यों भी

हक़ में इंसाँ के दुआ कर चलिये

 

क्यूँ रहे हुस्न ही पर्दे में जनाब

आप भी नज़रें झुका कर…

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Added by शिज्जु "शकूर" on October 26, 2014 at 8:00pm — 26 Comments

सर्वव्यापी (लघुकथा)

" त्योहारों के मौसम में इनकी बिक्री बहुत बढ़ गयी है " मुस्कुराते दुकानदारों की बातचीत सुनते हुए उसने देखा, फुटपाथ पर बिछे हुए तमाम देवी देवताओं के चित्र इसकी गवाही दे रहे थे |

" भगवान हर जगह होते हैं , उन्हें खोजने की जरुरत नहीं " , मंदिर में सुना ये प्रवचन उसे याद आ गया |

मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on October 26, 2014 at 1:00am — 10 Comments

एक कप चाय (लघुकथा)

"यार एक कप चाय मिल जाती तो मजा आ जाता I"  

पतिदेव का हुक्म सुन घर की साफ़ सफाई करके थकी हारी पत्नी रसोईघर की तरफ मुड़ गयी.

साहब सोफे पर बैठ कर टीवी ऑन कर मजे से चैनल बदलते हुए कह रहे थे:

"आज तो यार बहुत थक गए, दीपावली पर बाज़ार जाना, उफ्फ्फ्फ़ ...."

पति की हां में हां मिलाते हुए पत्नी चाय देकर वापिस मुड़ गई और अपने काम में लग गयी !

"मौलिक व अप्रकाशित"…

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Added by Alok Mittal on October 25, 2014 at 11:30pm — 17 Comments

सफाई (लघुकथा) : डॉo विजय शंकर

दावत जोरदार रही , सब ने छक के खाया, खाना था ही इतना बढ़िया , तिस पर बिठा कर पत्तल पर प्रेम से परोस-परोस कर खिलाया गया था। अब कहाँ होतीं हैं ऐसी दावतें। देर रात तक नौकरों ने सारे पत्तल इकठ्ठा करके पास तिराहे के कोने पर, जहां लोग कूड़ा फेंकते थे , फेंक दिये। लोग रात देर तक टहल टहल कर बतियाते रहे , दावत की तारीफ करते रहे। सब कुछ अच्छा था पर किसी एक-दो को अच्छा नहीं लगा। किसी ने सुबह-सुबह इधर-उधर दो एक फोन कर दिये । साढ़े दस तक एक बाबू साहब एक डायरी लेकर आ गए। उन्हें बुलवाया , कहा , अच्छी दावत…

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Added by Dr. Vijai Shanker on October 25, 2014 at 9:30pm — 9 Comments

कहानी : शगुन

माध्यमिक बोर्ड उत्तर पुस्तिकाओं की जंचाई चरम पर थी । मास्साब दनादन काॅपी जांचने में मशगूल थे। एकाएक ! एक काॅपी के दो पन्ने ही चेक कर पाये थे ,कि काॅपी में चिपका सौ का नोट, रोल नम्बर ,विद्यार्थी का नाम और एक टिप्पणी :

"कृपया नम्बर बढा दीजिये।"



अड़ोसी पड़ोसी मास्टर मास्टरनियों ने एक दूसरे को कनखियों से देखा । जैसे मन ही मन कह रहे हो ;

"हाय! ये काॅपी मेरे बंडल में क्यों न निकली ?"



बीस पच्चीस काॅपियों के बाद फिर एक काॅपी में पाँच सौ का नोट और कुछ वैसी ही मिलती…

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Added by Dr.sandhya tiwari on October 25, 2014 at 2:00pm — 3 Comments

क्षणिकाएँ

क्षणिकाएँ

1.

थम गई

गर्जन मेघों की

दामिनी भी

शरमा गयी

सावन की पहली बूँद

उनकी ज़ुल्फ़ों से टकरा गयी

............................................

2.

साया जवानी का

अंजाम देख

घबरा गया

वर्तमान की

टूटी लाठी से

भूतकाल टकरा गया

..............................................

3.

किसकी जुदाई का दंश

पाषाण को रुला गया

लहरों पे झील की

आसमाँ का चाँद

बस तन्हा 

रह गया…

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Added by Sushil Sarna on October 25, 2014 at 2:00pm — 13 Comments

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