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"संघर्ष में आनंद"

संघर्ष,

कहीं भी हो ,

कैसा भी हो,

होता, बहुत  बुरा है ,

बहुत तड़पाता है,

काटता है ,

दुधारा छुरा है !

 

लेकिन,

संघर्ष न हो ,

तो सूख जाता है ,

मन का चमन ,

हर हाल में,हरा रखे ,

आदमी को,

संघर्ष वो सुरा है !

 

डरता,

जो पीने से ,

संघर्ष के,

छलकते हुए पैमाने ,

उस आदमी का जीवन,

बड़ा बेरंग,

बड़ा बेसुरा है !

 

लड़ता ,

हर आदमी…

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Added by Hari Prakash Dubey on January 26, 2015 at 2:00am — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आखिर मैं आज कहाँ हूँ ? (मिथिलेश वामनकर)

वो अलसाया-सा इक दिन

बस अलसाया होता तो कितना अच्छा

 

जिसकी

थकी-थकी सी संध्या

जो गिरती औंधी-औंधी सी

रक्ताभ हुआ सारा मौसम

ऐसा क्यों है.....

बोलो पंछी?

 

ऐसा मौसम,

ऐसा आलम  

लाल रोष से बादल जिसके

और

पिघलता ह्रदय रात का

अपना भोंडा सिर फैलाकर अन्धकार पागल-सा फिरता

हर एक पहर के

कान खड़े है

सन्नाटे का शोर सुन रहे

ख़ामोशी के होंठ कांपते

कुछ कहने को फूटे कैसे…

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Added by मिथिलेश वामनकर on January 26, 2015 at 12:30am — 32 Comments

है ईश्वर तुल्य वो , जो अपने वतन पर मरने वाला है .......

बडा मंदिर न मस्जिद , न कोई गिरजा शिवाला है

न कोई अर्चना , पूजा बडी , अरदास , माला है

वतन सबसे बडा मंदिर , वतन सबसे बडी पूजा

है ईश्वर तुल्य वो , जो अपने वतन पर मरने वाला है ।

जो सच की पैरवी और झूठ का प्रतिकार करता है ,

मोहब्बत हो जिसे इंसानियत से और एतबार करता है

जरूरी है नहीं हर शख्स सरहद पर लडे जाकर ,

वही सच्चा सिपाही है , जो वतन से प्यार से करता है ।

न कोई आरजू , ख्वाहि श , न कोई शर्त रखते हैं ।

न बोझा कोई सीने पर , न सर पे कर्ज…

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Added by ajay sharma on January 25, 2015 at 11:01pm — 9 Comments

मैं बदल गया हूँ!

आसमान में उगता सूरज, जलता सूरज तपता सूरज

बदरियों की बगियाँ में, लुका-छिपी करता सूरज

सांझ सकारे किसी किनारे, धीरे धीरे ढलता सूरज

मैं भी तो इस सूरज सा, चढ़ा कभी कभी ढ़ल गया हूँ

जाने क्यों कहते हैं लोग, की मैं बदल गया हूँ!…

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Added by Ranveer Pratap Singh on January 25, 2015 at 10:00pm — 6 Comments

जीवन यात्रा

यह बचपन ,बचपन मैं जवान हो गया

जानता नहीं बचपन ,बचपन क्या चीज है

नहीं जानता  है यह हंसना -खेलना

नहीं जानता यह रूठना मनाना,

जानता नहीं यह माँ बाप का प्यार

सीखा नहीं क्या होता है बचपन का दुलार

नहीं सीखा इसने पढ़ना लिखना ,

हाँ सीख लिया है जिंदगी को पढ़ना

जानता हैं चौबीसों घंटे मेहनत करना

रोटी कपडा मिलता है इसे इनाम

यह बचपन,बचपन मैं जवान हो गया

अब यह जवान हो गया है

जवान होते होते जिसने अपनी जवानी ,

बचपन मैं…

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Added by Shyam Mathpal on January 25, 2015 at 9:05pm — 7 Comments

मौत ने काटी फसल और जिंदगी बोती रही

रात में फुटपाथ पर इक बेबसी रोती रही,

लोग तो जागे मगर संवेदना सोती रही,

शाम होते ही जमीं पर तीरगी छाने लगी,

आसमानों में सुबह तक रोशनी होती रही,

याद की चादर वो अपने आंसुओं की धार से,

दर्द की कालिख मिटाने के लिए धोती रही,

किसलिए इतनी मशक्कत, जब उसे पीना नहीं

शहद मधुमक्खी न जाने किसलिए ढोती रही

ऐ खुदा तेरी खुदाई का सबब ये भी मिला,

मौत ने काटी फसल और जिंदगी बोती रही।।

.

(अतुल)

मौलिक व…

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Added by atul kushwah on January 25, 2015 at 7:30pm — 23 Comments

ग़ज़ल

फंस गया चुंगल में जब शैतान के
हौसले बढने लगे इंसान के

तुमसे ये लग़ज़िश न हो जाए कहीं
हम बहुत पछताए दिल की मान के

उन से कह दो छोड़ दें भारत मिरा
लोग जो हामी हैं पाकिस्तान के

आप क्यूं ज़हमत उठाते हैं जनाब
ख़ुद ही दुश्मन हैं हम अपनी जान के

फ़िक्र उक़्बा की न दुनिया का ख़याल
सो गए ग़फ़लत की चादर तान के

बरकतें होने लगीं नाज़िल "समर"
पाँव घर में क्या पड़े महमान के

समर कबीर /मौलिक रचना अप्रकाशित

Added by Samar kabeer on January 25, 2015 at 6:12pm — 19 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
परिवर्तन - (अतुकांत): गिरिराज भंडारी

परिवर्तन

*******

 

बून्द की नाराजगी का संज्ञान

सागर ले ही

ज़रूरी नहीं

फिर भी नाराजगी बून्द की अपनी स्वतंत्रता है

प्रकृति प्रदत्त

 

संज्ञान अगर सागर ले भी ले तो

खुद में कोई परिवर्तन भी करे ये नितांत ज़रूरी नहीं  

वैसे हर नाराजगी कोई परिर्वतन ही चाहती हो किसी में

ये भी ज़रूरी नहीं

 

कुछ नाराजगी व्यवहारिक खानापूर्तियाँ भी होतीं है

कुछ स्वांतः सुखाय

अपने ज़िन्दा होने के सबूत के…

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Added by गिरिराज भंडारी on January 25, 2015 at 10:00am — 25 Comments

जुकाम

‘अजी सुनते हो ---

‘हाँ सुनाओ, ‘

‘वह मिसेज मल्होत्रा की बहू, जिसके फरवरी में बेटा हुआ था I वह बेटा निमोनिया से मर गया और हमारी जो महरिन है इसकी ननद के भी लल्ला हुआ था, वह भी तीन दिन पहले डायरिया से मर गया और अपनी बेटी की सहेली -----‘

‘--- उसका बच्चा भी मर गया होगा I’

‘हां बिलकुल ---- ‘

‘मगर यह स्टैटिक्स तुम मुझे क्यों बता रही हो ?’

‘किसे बताऊँ, एक वह अपनी पोती है I छह महीने की हो गयी, उसे जुकाम तक न हुआ I’

(मौलिक व् अप्रकाशित…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 24, 2015 at 9:10pm — 32 Comments

आसरा....(लघुकथा)

"अरे!!  तुम्हारे जैसे गरीब अनाथ के झोपड़े में महात्मा गाँधी की तस्वीर...”

 

“हाँ! साहब,  अभी कुछ दिन पहले ही लोगों ने चौराहे पर इस तस्वीर को लगाकर.. मालायें पहनाई, खूब  जोर-शोर से भाषण-बाजी की. फिर इसे सब,  वहीं छोड़कर चले गये.. ये वहां बे-सहारा थे,  तो इन्हें अपने घर ले आया...”

 

 

     जितेन्द्र पस्टारिया

 

 (मौलिक व् अप्रकाशित)   

 

Added by जितेन्द्र पस्टारिया on January 24, 2015 at 7:33pm — 22 Comments

गजल- आन बान शान पर तो मर मिटो या मार दों!

२१२१ २१२१ २१२१ २१२



भारती की मूरती को आज फिर संवार दों!

आर्यवर्त की रिदा को दूध सा निखार दों!!



जिन्दगी ये देश की है देश पर निसार दों!

जितनी बार भी मिले कि उतनी बार वार दों!!



गाडते चलो अमर तिरंगे को सितारो तक!

मानचित्र हिन्द का ब्रह्माण्ड पे उभार दों!!



जो सिमट गये वतन की राह में वे कह गये!

आन बान शान पर तो मर मिटो या मार दों!!



लोग जो अभी तलक जगे नहीं जगा दो अब!

देश की गली गली में जाके तुम पुकार दों!!



पाश्च… Continue

Added by Rahul Dangi Panchal on January 24, 2015 at 6:26pm — 25 Comments

विकट विरल है राह .................

विकट विरल है  राह  कठिन कदम कदम कुहासा है

खड़ा मुसाफिर मुश्किल में वो बेबस बहुत रूआंसा है

संयम और सहजता से निरंतर नित निज काम करो

शनै शनै पुरजोर प्रयासों से प्रज्ज्वलित इक आशा है

संकल्पों के यज्ञकुंड में श्रमनीर का  अर्घ्य दान करो

दिनकर दिलबर रश्क करे जिन्दगी की यह परिभाषा है

अरमानों के बीज रोप कर  सींचो  रोज  पसीने से

छ्टे कुहासे साफ़ डगर स्फुटन अंकुर की अभिलाषा है

@आनंद ०७/०१/२०१५ "मौलिक व…

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Added by anand murthy on January 24, 2015 at 1:30pm — 9 Comments

तूने व्यर्थ नयन छलकाये हैं…

तूने व्यर्थ नयन छलकाये हैं…

राही प्रेम पगडंडी पर

क्योँ तूने कदम बढाये हैं

हर कदम पर देते धोखे

छलिया हुस्न के साये हैं

तेरे निश्छल भाव को समझें

किसके पास ये फुर्सत है

पल भर में ये अपने हैं

अगले ही पल पराये हैं

व्यर्थ है बादल भटकन तेरी

प्रेम विहीन ये मरुस्थल है

तुझे पुकारें तुझसे लिपटें

कहाँ वो व्याकुल बाहें हैं

हर और लगा बाजार यहाँ

हर और मुस्कानों के मेले हैं

छद्म वेश में करती घायल

बे-बाण यहाँ…

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Added by Sushil Sarna on January 24, 2015 at 12:30pm — 20 Comments

चूड़ियाँ (कहानी )

रात के ९ बजे थे |खाना खाकर विनीत बिस्तर पर लेट गया और radio-mirchi on कर दिया-  “चूड़ी मजा ना देगी,/कंगन मजा ना/देगा, तेरे बगैर साजन /सावन मजा ना देगा"

तभी खिलखिलाती हुई मुग्धा ने कमरे में घुसकर ध्यान भंग किया –“ चाचा-चाचा, अदिति दीदी कुछ कहना चाहती है

 “ हाँ बेटा बोल ,” विनीत ने कहा |

“ चाचा मुझे चाची के चूड़ीदान से कुछ रंग-बिरंगी चूड़ियाँ लेनी है वो सहमते हुए बोली |”

विनीत ने अदिति को देखा, एकबार आलमारी की तरफ देखा जहाँ निम्मा का चुड़ीदान रखा था | कुछ देर चुप…

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Added by somesh kumar on January 24, 2015 at 11:30am — 14 Comments

गुरू दक्षिणा (लघुकथा) :कान्ता राॅय

" वाह !! बहुत खूब रितेश गुप्ता , तुमने संस्था का नाम ऊँचा किया है । हम सबको तुम पर गर्व है । " पीठ थपथपाकर मोहित सर ने जब शाबाशी दी तो रितेश दर्प से भर उठा ।
" सर , सब आपके मार्ग दर्शन का ही नतीजा है । "
" फिर तो मुझे गुरू दक्षिणा भी मिलना चाहिए तुम से । " मोहित सर की बाँछे खिल उठी ।
" क्या बात करते है सर ...? लाखों रूपयों की फीस के बाद अब यह गुरू दक्षिणा भी ___ ...? "

कान्ता राॅय
भोपाल
मौलिक और अप्रकाशित

Added by kanta roy on January 24, 2015 at 8:00am — 14 Comments

गज़ल

बह्र - 1212/1122/1212/22





किसी का इश्क जो हमको खुशी नहीं देता

तो यार हमको कभी बेरुखी नहीं देता



ये मामला-ए-तिज़ारत है गऱ जो समझो तो

नहीं तो हमको वो यूं बेबसी नहीं देता



बनाना दोस्त जहॉं मे तो याद ये रखना

हर एक दीप यहॉं रोशनी नहीं देता



हमारा मुल्क पढ़ाता जरूर है सबको

ये और बात सही नौकरी नही देता



जो हो सके तो लगा लेता हूं मै सीने से

मै खाली हॉंथ मे सिक्के कभी नही देता



मेरी निगाह मे इंसान हो नहीं… Continue

Added by Anurag Singh "rishi" on January 24, 2015 at 12:30am — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
एक तरही ग़ज़ल

 2122 1212 22

झूठ ही बन गया है आँचल क्या

धूप लगने लगी है अफ़्ज़ल क्या                         (अफ़्ज़ल –भला)

 

अक्ल की बंद खिड़कियाँ खोलो

टाट लगने लगा है मखमल क्या

 

जो मुहब्बत दिखा रहे हो आज

दिल में कायम रहेगा ये कल क्या

 

किस्से कुछ और थे हकीकत और

ये रवायात बदलीं पल-पल क्या

 

छटपटाहट सी क्यूँ है चेहरे पर

मच उठी दिल में कोई हलचल क्या

 

फर्ज़ अपना भुला दिया…

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Added by शिज्जु "शकूर" on January 23, 2015 at 10:16pm — 14 Comments

ग़ज़ल .........;;;गुमनाम पिथौरागढ़ी

चादर झीनी देख कबीरा

मैली ओढ़ी देख कबीरा

जीना मरना सब साथ चले

काया साझी देख कबीरा

ईश भगत का रिश्ता ऐसा

भूखा रोटी देख कबीरा

ऊँच नीच का अंतर कैसा

काया माटी देख कबीरा

यम इक राजा मिलना चाहे

आत्मा रानी देख कबीरा

मौलिक व अप्रकाशित

गुमनाम पिथौरागढ़ी

आपके सुझाओं व समालोचना की प्रतीक्षा में ......

Added by gumnaam pithoragarhi on January 23, 2015 at 7:29pm — 14 Comments

दान (लघुकथा)

ठण्ड भयानक पड़ने लगी थी और विभिन्न समाजसेवी संस्थाएं रोज लोगों से अपील कर रही थीं कि सड़क के किनारे रह रहे लोगों को गर्म वस्त्र दान करें | सड़क पर तमाम न्यूज़ चैनल की गाड़ियां घूम रही थीं और इन कार्यक्रमों को दिखा रही थीं |

उस मोहल्ले के आखीर में भी एक भिखारी सड़क पर पड़ा हुआ था | कुछ लोगों ने उसे ऊनी कम्बल इत्यादि दान किये और ये भी उन चैनल्स ने कैमरों में कैद किया लेकिन उसकी हल्की बुदबुदाहट पर किसी ने ध्यान नहीं दिया |

सुबह वो भिखारी मरा पड़ा था | लोग खाने के लिए देना भूल गए थे…

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Added by विनय कुमार on January 23, 2015 at 6:00pm — 22 Comments

आज की प्रलय

"आज की प्रलय"

कोहरे का कहर सांझ घिरने के साथ साथ बढ़ता जा रहा था, गंगाजी से उठती ठंडी हवा शरीर को छूरी की तरह काट रही थी। विश्वा को लगने लगा था कि आज की रात रेतीली जमीन पर बिछे चिथड़े भी उसको इस प्रलय से नही बचा पायगें। मानवीय आस तो बाकी थी नही सो विश्वा अपने ईष्ठ देव को ही बार बार याद करने लगा।

"भाई ये बहुत अच्छा हुआ जो सुरज ढलने से पहले संस्कार हो गया ।"

"सही कहा भैयाजी नही तो सारी रात ठंडी में गंगा किनारे ही बितानी पड़ती।"

सामने से गुजरते कुछ लोगो की आवाजे सुनकर…

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Added by VIRENDER VEER MEHTA on January 23, 2015 at 4:30pm — 10 Comments

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