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(१)

 

"मुई मई जान लेने आ गई"। मनफूला ने पंखा झलते हुए कहा। सुबह के दस बज रहे थे और दस बजे से ही गर्म हवा बहनी शुरू हो गई थी। गर्मी ने इस बार पिछले सत्ताईस वर्षों का रिकार्ड तोड़ दिया था। उनकी बहू राधा आँवले के चूर्ण को छोटी छोटी शीशियों में भर रही थी। उसका ब्लाउज पसीने से पूरी तरह भीग चुका था। उनका बेटा श्रीराम बाहर कुएँ से पानी खींचकर नहाने जा रहा था। घर के आँगन में दीवार से सटकर खड़ी एक पुरानी साइकिल श्रीराम का इंतजार कर रही थी।  

 

श्रीराम आँवले के मौसम में कच्चा आँवला बाजार से खरीदता था और उसे प्लास्टिक के खाली ड्रमों में भरकर प्रिजरवेटिव की मदद से सुरक्षित करवा लेता था। फिर अपने घर पर ही आँवले के विभिन्न उत्पाद जैसे मुरब्बा, लड्डू, कैंडी, चूरन, आँवला रस इत्यादि बनाकर साल भर उन्हें बेचता था। इस तरह वो अपनी बीबी और बूढ़ी माँ का पेट पालता था। यूँ तो उसकी शादी हुए सात साल हो गये थे मगर कोई औलाद उसे अब तक नहीं हुई थी। वो अक्सर अपने आप से कहता कि चलो अच्छा ही है कि कोई बच्चा नहीं है वरना उसका खर्चा कहाँ से निकलता।

 

नहा धो कर उसने मुरब्बे से भरे छोटे छोटे मर्तबान पुरानी ट्यूब की सहायता से साइकिल के कैरियर पर बाँधे और एक झोले में आँवला चूर्ण की छोटी छोटी शीशियाँ भरकर झोला साइकिल के हैंडल पर टाँग दिया। उसके बाद वो रसोई के पास पीढ़ा जमाकर बैठ गया। राधा ने गेहूँ की दो मोटी मोटी रोटियाँ और पानी पानी दाल एक थाली में लाकर उसके सामने रख दी। दाल ने तेजी से आगे बढ़कर रोटियों को अपनी चपेट में ले लिया। श्रीराम ने पहले तो बुरा सा मुँह बनाया फिर सोचा आखिर पेट में जाकर तो सब मिल ही जाना है। अपनी इस सोच पर उसे हँसी आई और उसने खाना शुरू कर दिया।

 

तभी पीछे से मनफूला की आवाज आई, "एक तो मई आग उगल रही है ऊपर से मुई बिजली दिन भर नहीं रहती। इस बार की गर्मी तो मेरी जान लेकर ही रहेगी।"

 

बात श्रीराम के कानों में पड़ी। उसे कल के अखबार में पढ़ी खबर याद आ गई जिसमें लिखा हुआ था कि गर्मी ने पिछले सत्ताईस वर्षों का रिकार्ड तोड़ दिया है और इस बार बारिश समय से होने की संभावना भी कम ही है। ये गर्मी जुलाई के आख़िरी सप्ताह तक झेलनी पड़ सकती है।

 

तभी मनफूला की आवाज़ फिर आई, "बगल में नकुल बहादुर इनवर्टर ले आये हैं। घर के सब लोग दिनभर एक कमरे में बैठकर आराम से हवा खाते हैं और यहाँ पंखा झलते झलते जान निकली जा रही है। बेटा तुम भी इनवर्टर खरीद ही लो वरना ये गर्मी तुम्हारी माँ की आखिरी गर्मी साबित होगी।"

 

तो इतनी देर से इनवर्टर की भूमिका बाँधी जा रही थी। श्रीरामने मन ही मन सोचा। अभी कल ही श्रीराम ने माँ को बताया था कि गर्मी में साइकिल चलाते चलाते उसका बुरा हाल हो जाता है। ऊपर से लू लगने से बचने के लिए सर और मुँह पर कपड़ा बाँधना पड़ता है जिससे पसीना सर से बहबहकर आँखों तक पहुँच जाता है। आँखों में घुसते ही पसीना ऐसी जलन पैदा करता है जैसी आँखों में मिर्ची का पाउडर डाल दिया गया हो। ऐसे में श्रीराम साइकिल सँभाले या आँखें साफ करे इसलिए वो एक सेकेंड हैंड मोटर साइकिल खरीदना चाहता है। उसने चौदह हज़ार रूपये जोड़ रखे हैं लेकिन तिवारी जी अपनी आठ साल पुरानी मोटर साइकिल के अठारह हजार रूपये से एक पैसा कम लेने के लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए उसे अभी चार हजार और बचाने हैं। अब माँ चाहती है कि इन पैसों से वो इनवर्टर खरीद ले। आखिर अब तक तो बिना इनवर्टर के काम चल ही रहा था न।

(२)

 

आज श्रीराम को अपनी साइकिल के पैडल बहुत भारी लग रहे थे। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वो क्या करे। उसे कक्षा पाँच में पढ़ाई गई प्रेमचंद की कहानी ईदगाह बार बार याद आ रही थी। एक तरफ उसकी अपनी सुविधा थी और एक तरफ माँ का आराम। नहीं, नहीं, आराम नहीं, जरूरत। माँ बेचारी दिन भर पंखा झलते झलते सचमुच परेशान हो जाती होगी।

 

श्रीराम ने साइकिल खींचते खींचते अपने आप से कहा, "तो क्या करूँ? इनवर्टर खरीद लूँ। लेकिन अगर मोटर साइकिल खरीदता हूँ तो ज्यादा सामान कम समय में बेच सकूँगा। इससे आमदनी बढ़ जाएगी और आने वाले सात आठ महीनों में मैं इनवर्टर खरीदने भर का पैसा बचा लूँगा। लेकिन अभी इस रिकार्ड तोड़ गर्मी के तीन महीने और झेलने हैं। ऐसे में कहीं अगर माँ को कुछ हो गया तो? नहीं नहीं इनवर्टर ही खरीद लेता हूँ। मोटर साइकिल का क्या है फिर खरीद लूँगा और पैसा माँ से बड़ा थोड़े ही होता है।"

 

उसकी साइकिल रास्ते में पड़ने वाली रेलवे लाइन को काफी पीछे छोड़ आई थी। अब सामने ही तिवारी जी का घर था। श्रीराम ने दूर से ही देख लिया कि तिवारी जी अपने घर के बाहर लगे नीम के पेड़ की छाया में चारपाई डाले बैठे हुए हैं। इनवर्टर खरीदने का निर्णय लेने के बाद वो चाहता था कि आज तिवारी जी से उसका सामना न हो लेकिन तिवारी ने उसे दूर से ही देख लिया और हाथ के इशारे से अपने पास बुलाया। श्रीराम के पास और कोई चारा नहीं था उसे तिवारी जी के पास जाना ही पड़ा।

 

तिवारी जी ने उसे बैठने के लिए फाइबर की कुर्सी दी। नौकर से पानी और गुड़ लाने के लिए कहा फिर श्रीराम से मुखातिब हुए, "हाँ, तो कब खरीद रहे हो मोटर साइकिल। देखो कल पास के गाँव से एक दूध बेचने वाला आया था वो उन्नीस हजार देने को तैयार था लेकिन मैंने कह दिया कि मैंने श्रीराम को अठारह हजार में देने का वादा कर लिया है। अब मैं वादा खिलाफ़ी नहीं कर सकता। लेकिन इसका मतलब ये मत समझना कि मैं साल भर तुम्हारा इंतजार करूँगा।"

 

श्रीराम ने भी दुनिया देखी थी। उसे मालूम था कि इस मोटर साइकिल के कोई पन्द्रह हजार भी दे दे तो बहुत बड़ी बात है। ये तो उसकी जरूरत थी जो सोलह-सत्रह हजार की मोटर साइकिल अठारह हजार में खरीद रहा था। तिवारी जी भी कितनी सफाई से सफेद झूठ बोलते हैं, उसने सोचा। तभी नौकर गुड़ की भेली और पानी ले आया। श्रीराम ने गुड़ खाकर पानी पिया और तृप्त होकर बोला, "तिवारी जी मैंने मोटर साइकिल खरीदने की विचार त्याग दिया है। इस बार बहुत गर्मी पड़ रही है और मैं सोच रहा हूँ कि एक इनवर्टर खरीद लूँ। मोटर साइकिल एक-दो साल बाद खरीदूँगा। अम्मा कह रही हैं कि अगर इस बार इनवर्टर नहीं खरीदा तो ये गर्मी उनके जीवन की आखिरी गर्मी साबित होगी।"

 

ये सुनकर तिवारी जी के हाथों के तोते उड़ गये। बड़ी मुश्किल से तो ये खरीददार मिला था वरना कोई आठ साल पुरानी मोटरसाइकिल के पंद्रह हजार देने को भी तैयार नहीं था। तिवारी जी ने बात सँभालने की कोशिश की, "क्या पागलों जैसी बात कर रहे हो। इतनी अच्छी हालत में और इतने कम दाम में मोटर साइकिल फिर नहीं मिलेगी। इनवर्टर का क्या है वो तो कभी भी खरीदो नया ही खरीदना पड़ेगा। उसमें तो सबसे महत्वपूर्ण बैटरी ही होती है और बैटरी सेकेंड हैंड लेने का कोई मतलब ही नहीं है। फिर मनफूला भौजी का क्या है। जैसे पचास से ज्यादा गर्मियाँ काट ली हैं वैसे एक और काट लेंगी और ये मौसम विभाग वालों की बात कभी सच होती भी है। देख लेना जैसे ही गर्मी और बढ़ेगी बारिश शुरू हो जाएगी और तापमान सामान्य हो जाएगा। तुम नाहक ही चिंता में घुले जा रहे हो।"

 

लेकिन श्रीराम के चेहरे को देखकर तिवारी जी समझ गए कि इस भाषण का कोई असर उस पर नहीं हुआ। अंत में हथियार डालते हुए बोले, "अच्छा चलो तुम सोलह हजार दे देना। लेकिन इस शर्त पर कि अब तुम और देर नहीं करोगे। तुम्हारे पास जो है वही देकर मोटर साइकिल ले जाओ और बाकी के पैसे धीरे धीरे चुका देना।"

 

तिवारी जी की बात सुनते ही श्रीराम की आँखें चमकने लगीं। एक पल के लिए ईदगाह के हामिद का चिमटा उसके दिमाग में कौंधा मगर अगले ही पल उसने हामिद से उस चिमटे को छीनकर दूर फेंक दिया। उसने अपनी साइकिल उठाई और घर की तरफ चल पड़ा।

 

तिवारी जी अपनी युक्ति सफल होते देख मन ही मन मुस्कुराने लगे और श्रीराम की साइकिल निगाहों से ओझल होते ही मोटर साइकिल का पेट्रोल निकालने चल पड़े। उन्हें पता नहीं था कि श्रीराम को इतनी जल्दी मोटर साइकिल बेचनी पड़ेगी इसलिए उन्होंने मोटर साइकिल की टंकी फुल करा रखी थी। अब वो उतना ही पेट्रोल छोड़ना चाहते थे जितने से मोटर साइकिल पेट्रोल पंप तक पहुँच सके।

(३)

 

मनफूला आँगन में बैठी पंखा झल रही थी। श्रीराम को वापस आता देखकर चौंक गई। उसने पूछा, "क्या हुआ बेटा। तबीयत तो ठीक है।"

 

श्रीराम ने मनफूला को सारी बात बताई। सुनकर मनफूला समझ गई कि इस गर्मी में तो इनवर्टर आने से रहा। उसे खुशी भी हुई कि बैठे बिठाए दो हजार रूपये बच गये और तो और मोटरसाइकिल जो चार पाँच महीने बाद मिलती वो आज ही मिल जाएगी। अब उसका बेटा इतनी गर्मी में सामान लादकर साइकिल चलाने से बच जाएगा।

 

श्रीराम ने पैसे पैंट की जेब में रखे और तिवारी जी के घर की तरफ चल पड़ा। रास्ते में उसने सोचा कि क्यों न तिवारी जी पर थोड़ा और दबाव डाल कर देखा जाय। ये सोचकर वो उदास और रोनी सूरत बनाकर तिवारी जी के पास पहुँचा। तिवारी जी बेसब्री से उसका इंतजार कर रहे थे। श्रीराम बोला, "तिवारी जी, माँ नहीं मान रही हैं। वो कह रही हैं कि मैं कैसा बेटा हूँ जिसे माँ से ज़्यादा अपनी फ़िक्र है। मैंने सोच लिया है कि पहले मैं इनवर्टर खरीदूँगा। ऊपरवाले ने चाहा तो मोटरसाइकिल फिर कभी खरीद लूँगा।"

 

तिवारी जी को काटो तो खून नहीं। कुछ देर तक वो चुपचाप श्रीराम को देखते रहे फिर बोले, "कुल कितने पैसे लाये हो तुम।"

 

श्रीराम बोला, "अभी तो मेरे पास सिर्फ़ चौदह हज़ार रूपये हैं और दस हजार का तो इनवर्टर ही आएगा। बाकी बचेंगे चार हजार इतने में मोटरसाइकिल के टायर भी नहीं आएँगे।"

 

तिवारी जी अपना सर खुजाने लगे। थोड़ी देर बोले, "मेरे पास एक आइडिया है। चलो मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ इनवर्टर वाले के पास। तुम भीतर बैठो मैं मोटरसाइकिल निकालता हूँ।" तिवारी जी ने श्रीराम को मेहमानों वाले कमरे मैं बैठाया और पेट्रोल की कैन से करीब आधा लीटर पेट्रोल मोटरसाइकिल में डाल दिया। पेट्रोल डालने के बाद तिवारी जी ने श्रीराम को आवाज दी और दोनों लोग कस्बे की तरफ चल पड़े।

 

इनवर्टर वाला तिवारी जी का मित्र था। थोड़े मोलभाव के बाद वो दस हजार का इनवर्टर नौ हजार पाँच सौ में देने को तैयार हो गया। मोलभाव होने के बाद तिवारी जी ने कहा, "अभी तो श्रीराम के पास पाँच हजार रूपये ही हैं। तुम अभी इतना ही ले लो बाकी के ये दो तीन महीने में चुका देगा इसकी गारंटी मैं लेता हूँ।"

 

तिवारी जी की गारंटी पर इनवर्टर वाला मान गया। इनवर्टर के इस्तेमाल का तरीका श्रीराम को समझाकर उसने इनवर्टर मोटरसाइकिल की सीट पर बँधवा दिया। फिर दोनों तिवारी जी के घर की तरफ चल पड़े।

 

घर पहुँचकर तिवारी जी बोले, "लाओ अब बचे हुए नौ हजार रूपये दे दो और मोटरसाइकिल ले जाओ। मोटरसाइकिल रहेगी तुम्हारे पास तो तुम्हारी कमाई बढ़ जाएगी इसलिए वादा करो कि मेरे बाकी के पैसे पाँच-सात महीने में वापस कर दोगे। इनवर्टर वाले के पैसे बाद में दे देना।"

 

श्रीराम को तो जैसे मन माँगी मुराद मिल गई। लेकिन तिवारी जी इतनी आसानी से कहाँ छोड़ने वाले थे वो बोले, "जब तक मेरा पैसा चुका नहीं लेते हर महीने दो किलो आँवले के लड्डू मुझे दे जाना। समझ लो कि बाकी बचे पैसों का ब्याज है।"

 

श्रीराम ने हिसाब लगाया कि वो आँवले के लड्डू एक सौ पचास रूपये किलो बेचता है। तो एक महीने का ब्याज हो गया दो किलो आँवले का लड्डू यानी तीन सौ रुपये यानी सालाना छत्तीस सौ रूपये। सात हजार रूपये का सलाना ब्याज छत्तीस सौ रूपये। हे भगवान ये तो लूट है। उसने तिवारी जी को समझाया और कहा, "दो किलो आप को दे दूँगा तो मैं बेचूँगा क्या और बचाऊँगा क्या। आपने मेरे लिये इतना किया है तो आपको एक किलो हर महीने दे सकता हूँ। इससे ज्यादा नहीं दे पाऊँगा।"

अंततः में तिवारी जी एक किलो लड्डू हर महीने पर राजी हो गये। श्रीराम मोटरसाइकिल और इनवर्टर के साथ अपने घर पहुँचा। साइकिल उसने तिवारी जी के यहाँ यह कहकर छोड़ दी कि कल आकर ले जाऊँगा। श्रीराम ने घर के सामने ले जाकर मोटरसाइकिल खड़ी की तो उसकी माँ अंदर से हल्दी, अक्षत और रोली ले आई। रोली से मोटरसाइकिल की टंकी पर स्वास्तिक का निशान बनाकर शुभ-लाभ लिखा और हल्दी अक्षत लगाने लगी।

 

श्रीराम बोला, "माँ, सारा हल्दी अक्षत इस मोटरसाइकिल पर ही मत खर्च कर देना। इनवर्टर भी ले आया हूँ मैं।"            

 

फिर श्रीराम ने माँ को सारी कहानी सुनाई। सुनकर माँ की आँखों में ख़ुशी के आँसू आ गये। द्वार पर लगा नीम का पेड़ भी ख़ुशी से झूमने लगा। कुँए का पानी जो दिनोंदिन नीचे जा रहा था ख़ुशी के मारे एक फुट ऊपर चढ़ आया।

 

यह सब देखकर धरती ने सूरज से कहा, “ये कैसा न्याय है देवता?  जो भिन्न भिन्न तरीकों से मेरा तापमान बढ़ाते हैं वो सब के सब वातानुकूलित कमरों में बैठकर सामान्य तापमान का आनन्द उठाते हैं और जो बेचारे मेरे शरीर का तापमान कम करने में मेरी मदद करते हैं उन्हें गर्मी भिन्न भिन्न तरीकों से कष्ट देती है।”

 

सूरज क्या कहता। तारों के जलने का नियम तो ईश्वर ने सृष्टि के प्रारम्भ में ही बना दिया था। तब से अब तक उन्हीं नियमों में बँधा सूरज लगातार जल रहा है। वो चाहकर भी अपना तापमान कम नहीं कर सकता। उसने कहा, “हे देवि! मैं तो नियमों से बँधा हुआ हूँ। मैं चाहकर भी अपना तापमान कम नहीं कर सकता। अब तो आप ही कुछ कीजिए या तो अपनी गति परिवर्तित कर लीजिए या फिर अपनी धुरी पर थोड़ा और झुक जाइये।” यह कहकर सूरज मुस्कुरा उठा। उसे मालूम था कि जैसे वो नियमों में बँधा हुआ है वैसे ही धरती भी नियमों में बँधी हुई है।

 

धरती के पास सूरज की इस बात का कोई उत्तर नहीं है। वो बड़े बड़े डायनासोरों को पलक झपकते ही विलुप्त होते देख चुकी है। वो जानती है कि मानव उसका सबसे बुद्धिमान बच्चा है लेकिन इसी बच्चे के भविष्य की चिन्ता आज उसे सबसे ज़्यादा सता रही है।

 

समाप्त

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 3, 2015 at 12:15pm
बहुत बहुत धन्यवाद हरि प्रकाश जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 3, 2015 at 12:14pm
बहुत बहुत शुक्रिया जितेन्द्र जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 3, 2015 at 12:14pm
तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ शिज्जू जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 3, 2015 at 12:13pm
बहुत बहुत शुक्रिया जवाहर लाल जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 3, 2015 at 12:12pm
बहुत बहुत शुक्रिया गिरिराज जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 3, 2015 at 12:12pm
बहुत बहुत शुक्रिया महर्षि त्रिपाठी जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 3, 2015 at 12:11pm
बहुत बहुत शुक्रिया सोमेश कुमार जी, आपका सुझाव विचारणीय है। मैं इस पर जरूर ध्यान दूँगा।
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 3, 2015 at 12:07pm
बहुत बहुत शुक्रिया डॉ गोपाल नारायन जी
Comment by Hari Prakash Dubey on March 2, 2015 at 12:38pm

आदरणीय धर्मेन्द्र जी ,सुन्दर रचना है , इस प्रभावशाली कहानी के लिए हार्दिक बधाई आपको !सादर 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 2, 2015 at 11:41am

आपकी पहली गद्य रचना पढने को मिली. बेमिसाल गजलों के साथ, आपकी कहानी भी बहुत उम्दा है आदरणीय धर्मेन्द्र जी. बहुत अच्छा लगा पढ़कर. हार्दिक बधाई

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