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(ग़ज़ल )...कहाँ मेरी ज़रूरत है

1222 - 1222 - 1222 - 1222

फ़क़त रिश्ते जताने को यहाँ मेरी ज़रूरत है 

अज़ीज़ों को सिवा इसके कहाँ मेरी ज़रूरत है 

मुझे ग़म देने वाले आज मेरी राह देखेंगे 

मुझे मालूम है उन को जहाँ मेरी ज़रूरत है 

मेरे अपने मेरे बनकर दग़ा देते रहे मुझको 

सभी को ग़ैर से रग़्बत कहाँ मेरी ज़रूरत है 

लिये उम्मीद बैठे हैं वो मेरी सादा-लौही पर 

चला आता हूँ मैं अक्सर जहाँ मेरी ज़रूरत है

कभी इतराते हैं ख़ुद पर कभी सहमे…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on December 10, 2021 at 6:54pm — 18 Comments

ग़ज़ल नूर की --- ग़म-ए-फ़िराक़ से गर हम दहक रहे होते

.

ग़म-ए-फ़िराक़ से गर हम दहक रहे होते

तो आफ़ताब से बढ़कर चमक रहे होते.

.

बदन की सिगड़ी के शोलों पे पक रहे होते

वो मेरे साथ अगर सुब्ह तक रहे होते.

.

तेरी शुआओं को पीकर बहक रहे होते

मेरी हवस को मेरे होंट बक रहे होते.

.

सुकून मिलता हमें काश जो ये हो जाता

कि हम भी यार के दिल की कसक रहे होते.   

.

तेरी नज़र से उतरना भी एक नेमत है

वगर्न: आँखों में सब की खटक रहे होते.

.

लबों का रस हमें मिलता तो शह’द होते हम

अगर जो…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on December 10, 2021 at 6:31pm — 20 Comments

कहो तो सुना दूँ फ़साना किसी का

122 122 122 122 

कहो तो सुना दूँ फ़साना किसी का

वो इज़हार-ए-उल्फ़त जताना किसी का

सुधार

नज़र से महब्बत जताना किसी का

हँसाना किसी का रुलाना किसी का

भुलाओगे कैसे सताना किसी का

नहीं रोक पाई कभी चाहकर मैं

दबे पा ख़यालों में आना किसी का

है यह भी महब्बत का दस्तूर यारो

न दिल भूले जो दिल से जाना किसी का

बहुत कोशिशें कीं मनाने की फ़िर भी

न मुमकिन हुआ लौट आना किसी का

दिल ए…

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Added by Rachna Bhatia on December 9, 2021 at 11:30am — 19 Comments

हमें लगता है हर मन में अगन जलने लगी है अब

१२२२/१२२२/१२२२/१२२२



बजेगा भोर का इक दिन गजर आहिस्ता आहिस्ता 

सियासत ये भी बदलेगी मगर आहिस्ता आहिस्ता/१

*

सघन  बादल  शिखर  ऊँचे  इन्हें  घेरे  हुए  हैं पर

उगेगी घाटियों  में  भी  सहर आहिस्ता आहिस्ता/२

*

हमें लगता है हर मन में अगन जलने लगी है अब

तपिस आने लगी है जो इधर आहिस्ता आहिस्ता/३

*

हमीं  कम  हौसले  वाले  पड़े  हैं  घाटियों  में  यूँ

चढ़े दिव्यांग वाले भी शिखर आहिस्ता आहिस्ता/४

*

अभी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 8, 2021 at 6:30am — 8 Comments

धक्का

निर्णय तुम्हारा निर्मल

तुम जाना ...भले जाना

पर जब भी जाना

अकस्मात

पहेली बन कर न जाना

कुछ कहकर

बता कर जाना

जानती हो न, चला जाता…

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Added by vijay nikore on December 7, 2021 at 12:00pm — 3 Comments

दोहा त्रयी. . . . . .

दोहा त्रयी. . . . . . 

ह्रदय सरोवर में भरा, इच्छाओं का नीर ।
जितना इसमें डूबते, उतनी बढ़ती पीर ।।

मन्दिर -मन्दिर घूमिये , मिले न मन को चैन ।
मन के मन्दिर को लगें, अच्छे मन के बैन ।।

झूठे भी सच्चे लगें, स्वार्थ नीर में चित्र ।
मतलब के संसार में, थोड़े सच्चे मित्र ।।

सुशील सरना / 6-12-21
मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on December 6, 2021 at 3:08pm — 10 Comments

यह भूला-बिसरा पत्र ...तुम्हारे लिए

तेरे स्नेह के आंचल की छाँह तले

पल रहा अविरल कैसा ख़याल है यह

कि रिश्ते की हर मुस्कान को

या ज़िन्दगी की शराफ़त को

प्यार के अलफ़ाज़ से

क़लम में पिरो लिया है,

और फिर सी दिया है... कि

भूले से भी कहीं-कभी

इस रिश्ते की पावन

मासूम बखिया न उधड़े

और फिर कस दिया है उसे

कि उसमें कभी भी अचानक

वक़्त का कोई

झोल न पड़ जाए।

 

सुखी रहो, सुखी रहो, सुखी रहो

हर साँस हर धड़कन दुहराए

स्नेह का यही एक ही…

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Added by vijay nikore on December 5, 2021 at 5:06pm — 18 Comments

दोहा मुक्तक

मन से मन की हो गई, मन ही मन में बात ।
मन ने मन को वस्ल की, दी मन में सौगात ।
मन मधुकर मन पद्म में, ढूँढे मन का छोर -
साथ निशा के हो गया , मन में उदित  प्रभात ।

तन में चलते श्वास का, मत करना विश्वास ।
इस तन के अस्तित्व का, श्वास -श्वास आभास ।
ये जीवन है मरीचिका , इसकी साँझ न भोर -
झूठा पतझड़ है यहाँ, झूठा है मधुमास ।

सुशील सरना / 4-12-21

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on December 4, 2021 at 12:00pm — 4 Comments

रहीम काका - लघुकथा -

रहीम काका - लघुकथा - 

"गोविन्द, यार कहाँ है तू?  बस चलने वाली है।हम  बार बार बस वालों को निवेदन कर रुकवा रहे हैं। अब उन्होंने केवल दस मिनट का समय दिया है।

"मैं पांच मिनट में पहुंच रहा हूँ।"…

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Added by TEJ VEER SINGH on December 4, 2021 at 9:27am — 8 Comments

दूर तम में बैठकर वो रोशनी अच्छी लगी- लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२१२२/२१२२/२१२२/२१२



मन था सुन्दर तो वदन की हर कमी अच्छी लगी

उस के अधरों  ने  कही  जो  शायरी  अच्छी लगी/१

*

सात जन्मों  के  लिए  वो  बन्धनों  में बँध गये

जिन्दगी के बाद जिनको जिन्दगी अच्छी लगी/२

*

आँख चुँधियाती रही जो पास में अपनी सनम

दूर  तम  में  बैठकर  वो  रोशनी  अच्छी  लगी/३

*

एक  हम  ही  भागते  रंगीनियों  से  दूर  नित

और किसको बोलिए तो सादगी अच्छी लगी/४

*

हाथ में था हाथ उनका दूर तक कोई न…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 3, 2021 at 7:32pm — 8 Comments

ग़ज़ल - गुरप्रीत सिंह जम्मू

22-22-22-22-22-22-22-2

उस लड़की को डेट करूँ ये मेरी पहली ख़्वाहिश है।

और ये ख़्वाहिश पूरी हो जाए बस ये दूजी विश है।

हँसना, शर्माना, भरमाना और फिर ना ना ना करना,

उस लड़की का हर इक नख़रा सचमुच कितना गर्लिश है।

मेरा बांकपना और उसकी मस्ती जब आपस में मिले,

ये जो प्यार हमारा है ये उस पल की पैदाइश है।

मेरे ख़्वाब में आना हो तो छाता लेकर आना तुम,

मेरी आँखों के ख़ित्ते में अक्सर रहती बारिश है।

क्यों न हुई वो मेरी?…

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Added by Gurpreet Singh jammu on December 2, 2021 at 7:39pm — 8 Comments

आज का सच

लव यू -लव यू कहते रहो ,मिस यू -मिस यू जपते रहो 

पीठ फिरे तो गो टू हैल ,नारा भी बुलंद करो 

नहीं रहे वो सच्चे रिश्ते ,प्यार जहां पर पलता था 

आज के रिश्ते बस एक छलावा,सबकुछ एक दिखावा है 

मात-पिता का प्यार भी अब ,लगता ज़िम्मेदारी है 

भाई बहन का प्यार अब बस एक नातेदारी है 

रिश्तों का जहां मान नहीं ,कैसा युग ये आया है 

कहते हैं वे हमें पुरातन ,पर नवयुग से क्या पाया है ?

पति-पत्नी के रिश्तों की भी ,गरिमा अब है कहाँ बची 

नित होते तलाक़ों…

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Added by Veena Gupta on November 30, 2021 at 1:09am — 2 Comments

जिसकी आदत है घाव देने की - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२१२२ १२१२ २२

बल रहित मैं हूँ  भीम कहता है

तुच्छ खुद को असीम कहता है/१

*

जिसकी आदत है घाव देने की

वो स्वयम को हकीम कहता है/२

*

आम पीपल  को  भूल बैठा वो

और कीकर को नीम कहता है/३

*

राम से जो गुरेज उस को नित

क्यों तू खुद को रहीम कहता है/४

*

धर्म क्या है समझ  न पाया जो

धर्म को  वो  अफीम  कहता है/५

*

हाथ जिसका है कत्ल में या रब

वो भी खुद को नदीम कहता…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 29, 2021 at 10:04pm — 4 Comments

तेरे मेरे दोहे ......

तेरे मेरे दोहे :......

बनकर यकीन आ गए, वो ख़्वाबों के ख़्वाब ।

मिली दीद से दीद तो, फीकी लगी शराब ।।

जीवन आदि अनंत का, अद्भुत है संसार ।

एक पृष्ठ पर जीत है, एक पृष्ठ पर हार ।।

बढ़ती जाती कामना ,ज्यों-ज्यों घटता  श्वास ।

अवगुंठन में श्वास के, जीवित रहती प्यास ।।

कल में कल की कामना ,छल करती हर बार ।

कल के चक्कर में फँसा , ये सारा संसार ।।

बेचैनी में बुझ गए , जलते हुए चराग़ ।

उम्र भर का दे गए, इस…

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Added by Sushil Sarna on November 28, 2021 at 1:30pm — 16 Comments

क्यों कर हसीन ख्वाब की बस्ती मिटा दूँ मैं- लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२१/१२२१/२१२



कैसे किसी की याद में सब कुछ भुला दूँ मैं

क्यों कर हसीन ख्वाब की बस्ती मिटा दूँ मैं/१

*

बचपन में जिसने आँखों को आँसू नहीं दिया 

क्योंकर जवानी जोश  में  उस को रुला दूँ मैं/२

*

शायद कहीं  पे  भूल  से वादा  गया मैं भूल

जिससे लिखा है न्याय में खुद को दगा दूँ मैं/३

*

घर में उजाला  मेरे  भी  आयेगा डर यही

पथ में किसी के दीप तो यारो जला दूँ मैं/४

*

अपना पराया भेद  वो  भूलेगा इस से क्या

उसकी जमीं में अपनी भी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 27, 2021 at 11:14pm — 2 Comments

भूख नैसर्गिक है — डॉo विजय शंकर

भूख नैसर्गिक है ,

पर रोटी , रोटी

नैसर्गिक नहीं है।

भूख का निदान

स्वयं को करना होता है ,

रोटी कमानी पड़ती है ,

रोटी खरीदनी पड़ती है ,

रोटी पर टैक्स चुकाना पड़ता है ,

रोटी निदान है , आय का जरिया है।

भूख ऐसी कुछ नहीं , उसका निदान ,

आदमी से क्या कुछ नहीं करा देता है ,

उसे एक शब्द में कमाई कह देते हैं।

अपने लिए , अपने पेट के लिए।

सब कुछ नैसर्गिक है ......... ?

व्यापार के लिए , राजस्व के लिए।

मौलिक…

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Added by Dr. Vijai Shanker on November 27, 2021 at 11:29am — 2 Comments

हुई कागजों में पूरी यूँ तो नीर की जरूरत - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

११२१/२१२२/११२१/२१२२



भरें खूब घर स्वयं के सदा देशभर को छल के

मिले सारे अगुआ क्योंकर यहाँ सूरतें बदल के/१

*

गिरी  राजनीति  ऐसी  मेरे  देश  में  निरन्तर

कोई जेल से लड़ा तो कोई जेल से निकल के/२

*

मिटा भाईचारा अब तो बँटे सारे मजहबों में

सही बात हैं समझते कहाँ लोग आजकल के/३

*

हुई कागजों में  पूरी  यूँ  तो  नीर की जरूरत

चहुँ ओर किन्तु दिखते हमें सिर्फ सूखे नल के/४

*

कई दौर गुफ्तगू के किये हल को हर समस्या

नहीं आया कोई रस्ता कभी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 25, 2021 at 11:22pm — 2 Comments

ग़ज़ल-तुम्हारे प्यार के क़ाबिल

1222 1222 1222 1222

जरा सा मसअला है ये नहीं  तकरार के  क़ाबिल

किनारा हो नहीं सकता कभी मझधार के क़ाबिल

न ये संसार  है मेरे  किसी भी  काम का  हमदम

नहीं हूँ मैं किसी  भी तौर से  संसार के  क़ाबिल

न मेरी  पीर है  ऐसी  जिसे  दिल  में रखे  कोई

न मेरी  भावनायें हैं  किसी  आभार के  क़ाबिल

ये मुमकिन है ज़माने में हंसी तुझसे ज़ियादा हों

सिवा तेरे  नहीं कोई  मेरे  अश'आर के  क़ाबिल

मेरे आँसू तुम्हारी आँखों से बहते तो अच्छा…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 25, 2021 at 12:00pm — 14 Comments

मिथ्या जगत

मिथ्या अगर जगत ये होता ,क्यूँ कर इसमें आते हम 

देवों को भी जो दुर्लभ है ,वह मानुष जन्म क्यों पाते हम 

ज्ञानी जन बस यही बताते ,मिथ्या जग के सुख दुःख सारे 

पर इस जग में आ कर ही तो ,मोती ज्ञान के पाए सारे 

ईश्वर की अद्भुत रचना ये सृष्टि ,नहीं जानता कोई कुछ भी 

फिर भी ज्ञान सभी जन बाटें ,मानो स्रषटा हैं बस वे ही  

जगत सत्य है या है मिथ्या ,क्यूंकर इसपर करें बहस 

ईश्वर प्रदत्त अमूल्य जीवन को ,जिएँ सभी हम जी भरकर 

उस अद्भुत कारीगर की ,रचना…

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Added by Veena Gupta on November 19, 2021 at 4:43am — 3 Comments

ग़ज़ल नूर की - मेरी ज़ीस्त की कड़ी धूप ने मुझे रख दिया है निचोड़ कर

.

मेरी ज़ीस्त की कड़ी धूप ने मुझे रख दिया है निचोड़ कर,

अभी शाम ढलने ही वाली थी कोई चल दिया मुझे छोड़ कर.

.

मैं था मुब्तिला किसी ख़ाब में किसी मोड़ पर ज़रा छाँव थी

उसे ये भी रास न आ सका सो जगा गया वो झंझोड़ कर.

.

मेरे दिल में अक्स उन्हीं का था उन्हें ऐतबार मगर न था 

कभी देखते रहे तोड़ कर कभी दिल की किरचों को जोड़ कर.   

.

जो  किताब ए ज़ीस्त में  शक्ल थी वो जो नाम था मुझे याद है  

वो जो पेज फिर न मैं पढ़ सका जो रखा था मैने ही मोड़ कर.  …

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Added by Nilesh Shevgaonkar on November 18, 2021 at 5:00pm — 8 Comments

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