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ग़ज़ल - गुरप्रीत सिंह जम्मू

22-22-22-22-22-2

तुम कोई पैग़ाम कभी तो भिजवाओ।

वरना मेरे कबूतर वापिस दे जाओ।

जिसको तुमने अपने दिल से भुलाया है,

क्या ये वाजिब है खुद उसको याद आओ ?

मैने कहा जब,तुमने दिल को ज़ख़्म दिया,

वो बोले, कितना गहरा है, दिखलाओ।

जब से तुम बिछड़े हो, खुद से दूर हूं मैं,

प्लीज़ किसी दिन मुझ को मुझ से मिलवाओ।

आंखों में हैं ख्वाब भरे, पर नींद उड़ी,

गर ये प्यार नहीं तो क्या है, समझाओ।

'वो' कब के…

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Added by Gurpreet Singh jammu on November 15, 2021 at 11:30am — 6 Comments

अब तो इंसाफ भी करें साहिब.......ग़ज़ल सालिक गणवीर

2122-1212-22/112

अब तो इंसाफ भी करें साहिब

हक़ मिरा मुझको दे भी दें साहिब (1)

ऊँचे पेड़ों ने फिर से की साजिश

लोग सब धूप में रहें साहिब (2)

आप सब क्यों उड़े हवाओं में

हम ज़मीं पर ही क्यों चलें साहिब (3)

काग़ज़ों पर लिखा तो पढ़ते हैं

पीठ पर भी कभी लिखें साहिब (4)

न ज़मीं है न आसमाँ अपना

ये बता दो कहाँ रहें साहिब (5)

इतना अफ़सोस है अगर फिर तो

शर्म से डूब कर मरें साहिब (6)

आप सुनते नहीं…

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Added by सालिक गणवीर on November 13, 2021 at 9:54pm — 10 Comments

ग़ज़ल -बेटे से बढ़ के फर्ज निभाती हैं बेटियाँ

2 2 1 2 1 2 1 1 2 2 1 2 1 2

बचपन की याद हमको दिलाती हैं बेटियाँ|

उंगली पकड़ के जब भी घुमाती हैं बेटियाँ|

 

हाथों से अपने जब भी खिलाती हैं  देखिये 

दादी की याद हमको दिलाती हैं बेटियाँ|

 

बेटा बसा है देखिये जब से विदेश में

इस घर के सारे बोझ उठाती हैं बेटियाँ |

 

जर्जर शरीर में जो न आती है नींद तो 

दे दे के थपकियाँ भी सुलाती हैं बेटियाँ|

 

बेटी की शान में मैं भला और क्या कहूँ,

बेटे से बढ़ के…

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Added by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on November 11, 2021 at 9:00pm — 3 Comments

यूँ जो दिल खोलकर मिल रही हो तुम

यूँ जो दिल खोलकर मिल रही हो तुम 

लगता है के अब मैं तुमको बिल्कुल याद नही 

ऐसा होता है निकाह के बाद अक्सर 

ऐसा होने मे कोइ गलत बात नही 

अब मेरे खयालों से आज़ाद हो तुम 

किसी और के साथ आबाद हो…

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Added by AMAN SINHA on November 11, 2021 at 11:00am — No Comments

बन्धनहीन जीवन :. . . .

बन्धनहीन जीवन :......

क्यों हम 

अपने दु :ख को

विभक्त नहीं कर सकते ?

क्यों हम

कामनाओं की झील में

स्वयं को लीन कर

जीवित रहना चाहते हैं ?

क्यों

यथार्थ के शूल

हमारे पाँव को नहीं सुहाते ?

शायद

हम स्वप्न लोक के यथार्थ से

अनभिज्ञ रहना चाहते हैं ।

एक आदत सी हो गई है

मुदित नयन में

जीने की ।

अन्धकार की चकाचौंध को

अपनी सोच की हाला में

मिला कर पीने की…

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Added by Sushil Sarna on November 10, 2021 at 1:54pm — 4 Comments

ग़ज़ल नूर की - क्या ही तुझ में ऐब निकालूँ क्या ही तुझ पर वार करूँ

क्या ही तुझ में ऐब निकालूँ क्या ही तुझ पर वार करूँ

ये तो न होगा फेर में तेरे अपनी ज़ुबाँ को ख़ार करूँ.

.

हर्फ़ों से क्या नेज़े बनाऊँ क्या ही कलम तलवार करूँ

बेहतर है मैं ख़ुद को अपनी ग़ज़लों से सरशार करूँ.

.

ग़ालिब ही के जैसे सब को इश्क़ निकम्मा करता है

लेकिन मैं भी बाज़ न आऊँ जब भी करूँ दो चार करूँ.

.

चन्दन हूँ तो अक्सर मुझ से काले नाग लिपटते हैं

मैं भी शिव सा भोला भाला सब को गले का हार करूँ.

.

सब से उलझना तेरी फ़ितरत और मैं इक आज़ाद मनक…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on November 9, 2021 at 3:30pm — 10 Comments

ग़ज़ल नूर की - ज़ुल्म सहना छोड़ कर इन्कार करना सीख ले

ज़ुल्म सहना छोड़ कर इन्कार करना सीख ले

है अगर ज़िन्दा पलटकर वार करना सीख ले.   

.

एक नुस्ख़ा जो घटा देता है हर दुःख की मियाद

सच है जैसा वैसा ही स्वीकार करना सीख ले.

.

मज़हबों के खेल में होगी ये दुनिया और ख़राब 

अपने रब का दिल ही में दीदार करना सीख से.

.

तन है इक शापित अहिल्या चेतना के मार्ग पर

राम सी ठोकर लगा.. उद्धार करना सीख ले.

.

नफ़रतों की बलि न चढ़ जाए तेरी मासूमियत

मान इन्सानों को इन्सां प्यार करना सीख ले.

.

लग न…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on November 7, 2021 at 7:30pm — 15 Comments

ग़ज़ल-हमारे आँसू

2122      1122      1122       22
खोजने  जाऊँ कहाँ  जान से प्यारे  आँसू

ढल गये  आँख  से  चुपचाप हमारे  आँसू


इस तरह  देख सकूँगा न बिखरते  इनको

कितना टूटे हैं तो आँखों  में  सँवारे  आँसू



शब अँधेरी  है हवा  सर्द  तसव्वुर  उनका

याद  मीठी  है  बड़ी  और  हैं खारे  आँसू



मुझको भाती नहीं ये बोलती पुरनम आँखें

काश  आँखों से  चुरा लूँ  मैं  तुम्हारे  आँसू…

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Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 7, 2021 at 4:00pm — 8 Comments

ग़ज़ल

2122 2122 2122 2



ज़िन्दगी में हर कदम तेरा सहारा हूँ

नाव हो मझधार तो तेरा किनारा हूँ

तुम भटक जाओ अगर अनजान राहों में

पथ दिखाने को तुम्हें रौशन सितारा हूँ

ज़िन्दगी का खेल खेलो तुम निडरता से

हर सफलता के लिए मैं ही इशारा हूँ

राह जीने की सही तुमको दिखाऊंगा

ज़िन्दगी के सब अनुभवों का पिटारा हूँ

साथ क्यों दूं मैं तुम्हारा सोच मत ऐसा

अंश तुम मेरे पिता मैं ही तुम्हारा हूँ

- दयाराम मेठानी…

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Added by Dayaram Methani on November 6, 2021 at 10:00pm — 6 Comments

ग़ज़ल नूर की - हाँ में हाँ मिलाइये

हाँ में हाँ मिलाइये
वर्ना चोट खाइए.
.
हम नया अगर करें
तुहमतें लगाइए.
.
छन्द है ये कौन सा
अपना सर खुजाइये
.
मीर जी ख़ुदा नहीं
आप मान जाइए.
.
कुछ नये मुहावरे
सिन्फ़ में मिलाइये.
.
कोई तो दलील दें
यूँ सितम न ढाइए.
.
हम नये नयों को अब
यूँ न बर्गलाइये.
.
नूर है वो नूर है
उस से जगमगाइए.    .
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

Added by Nilesh Shevgaonkar on November 5, 2021 at 8:32pm — 9 Comments

दीप जलाना

जहाँ दिखे अँधियार वहीं पर दीप जलाना 

छाये खुशी अपार वहीं पर दीप जलाना 

अपने मन के भीतर का जो पापी तम है 

'अयं निजः' का भाव जहाँ पलता हरदम है 

'वसुधा ही परिवार' जहाँ अंधेरे में है 

सबसे पहले यार वहीं पर दीप जलाना 

जहाँ दिखे अँधियार………………..

मुरझाए से होठों पर मुस्कान बिछाने 

छोटी-छोटी खुशियों को सम्मान दिलाने 

जिन दर दीप नहीं पहुँचे हैं उन तक जाकर 

रोशन करना द्वार वहीं पर दीप जलाना 

जहाँ दिखे…

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Added by आशीष यादव on November 4, 2021 at 2:30pm — 6 Comments

ग़ज़ल - 'आरज़ू' टूटी न उम्मीद से रिश्ता टूटा

वज़्न -2122 1122 1122 22/112

क्यों इसे आब दिया सोच के दरिया टूटा

जब समुंदर के किनारे कोई तिश्ना टूटा

एक साबित क़दम इंसान यूँ तन्हा टूटा

देख कर उसको न टूटे कोई ऐसा टूटा

वस्ल की जिस पे मुकद्दर ने लिखी थी तहरीर

वक़्त की शाख़ से वो क़ीमती लम्हा टूटा

तेरे बिन ज़ीस्त मेरी तुझ-सी ही मुश्किल गुज़री

हिज्र में मुझ पे भी तो ग़म का हिमाला टूटा

कुछ न टूटा मेरे हालात की आँधी में बस

जिसमें तुम थे वही ख़्वाबों…

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Added by Anjuman Mansury 'Arzoo' on November 3, 2021 at 11:22am — 4 Comments

परम चेतना एक (कुछ विचार)

सब धर्मों का सार जो

वह तो केवल एक

बाह्य रूप दिखता अलग

परम चेतना एक

फैलाते भ्रम व्यर्थ ही

जो विवेक से शून्य

वे मतिभ्रष्ट, विवेकहीन

उन्हे चढ़ा अहमन्य

हुए विषमता से परे 

जिन्हे सत्य का बोध

गुण-अवगुण से हो विलग

नित्य बसे मन मोद

प्रकृति और चैतन्य का

आपस का संयोग

उस दर्पण में फलीभूत 

हो ज्ञानी का योग

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Usha Awasthi on November 3, 2021 at 6:44am — 3 Comments

ग़ज़ल नूर की - ग़ज़लों का आनन्द समझ में आ जाए

ग़ज़लों का आनन्द समझ में आ जाए

काश तुन्हें यह छन्द समझ में आ जाए.

.

संस्कृत से फ़ारस का नाता जान सको

लफ्ज़ अगर गुलकन्द समझ में आ जाए.

.

रस की ला-महदूदी को पहचानों गर

फूलों का मकरन्द समझ में आ जाए.

.

दिल में जन्नत की हसरत जो जाग उठे

हों कितना पाबन्द समझ में आ जाए.

.

भीषण द्वंद्व मैं बाहर का भी जीत ही लूँ

पहले अन्तर-द्वन्द समझ में आ जाए.

.

मन्द बुद्धि का मन्द समझ में आता है

अक्ल-मन्द का मन्द समझ में आ जाए.…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on November 1, 2021 at 6:00pm — 8 Comments

"दीप" की ग़ज़ल

122 122 122 122

किसी और की अब जरूरत नहीं है

मगर तुम न कहना मुहब्बत नहीं है

हुई जब से शादी तो फुर्सत नहीं है

रहूंँ मायके में इज़ाज़त नहीं है

मैं मदहोश उनकी ही यादों में रहता

मुझे भूलने की तो आदत नहीं है

सरे आम होते यहां ज़ुर्म रहते

उसे रोकने की भी हिम्मत नहीं है

तुम्हें गर न देखें थमी सांस रहती

अगर मर गया भी तो हैरत नहीं है

फ़कत इश्क़ में अब दिखावा ही दिखता

नये शोहदों में…

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Added by Deepanjali Dubey on November 1, 2021 at 3:00pm — 3 Comments

ग़ज़ल-जय गान पर

2122 2122 2122 212

1

जब भी छाए अब्र मुश्किल के वतन की आन पर

खेले हैं तब तब हमारे तिफ़्ल अपनी जान पर

2

आज़मा ले लाख अपना रौब रुतबा शान पर

हो न पाएगा कभी हावी तू हिन्दुस्तान पर

3

हम नहीं होते परेशाँ धर्म से या ज़ात से

ख़ूँ जले अपना तो झूठे और बेईमान पर

4

माना हैं मतभेद भाषा वेष भूषा धर्म में

फ़ख़्र करते हैं प सब भारत के बढ़ते मान पर

5

एक दिन ऐसा भी "निर्मल" देखना तुम…

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Added by Rachna Bhatia on November 1, 2021 at 11:00am — 5 Comments

रद्दी - लघुकथा -

रद्दी - लघुकथा - 

"अरे, ये क्या, सारी की सारी पुस्तकें वापस  लेकर आ गये।" 

"क्या करूं पुष्पा, तुम ही बताओ? पूरा दिन बाजार में घूमता रहा इतना भारी इतनी कीमती पुस्तकों का बैग लेकर, लेकिन कोई दुकानदार…

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Added by TEJ VEER SINGH on October 30, 2021 at 7:05pm — 8 Comments

ग़ज़ल

संगदिल फिर ज़िन्दगी है उससे टकराना भी क्या !

फोड़कर सर अपना यारो रोना-चिल्लाना भी क्या !!

कीमती आँसू हैं तेरे वो निशाँ जुल्म ओ सितम,

बंद दरवाजों के आगे सर को टकराना भी क्या !

कर खुदा की बन्दगी और एहतराम उसका कर ले,

लोग ही क़मज़र्फ हों गर उनको जतलाना भी क्या !

बढ़ रही तन्हाईयाँ है उम्र के बढ़ने के साथ,

खाली-खाली जीस्त है गर वो सर खुजलाना भी क्या !

नौंचनी हैं उनको लाशें क़ौम भी तो बाँटनी,

शहर सौदागर आये उनको…

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Added by Chetan Prakash on October 29, 2021 at 6:30am — No Comments

सत्य (अतुकान्त)

ऊँचे तो वही उठ पाएंगे

जो सत्य की गहराई

झूठ का उथलापन

जान जाएंगे

जो सत्य को कमजोर समझते

विनम्रता का तिरस्कार करते

वैराग्य का उपहास उड़ाते हैं

वह बुद्धि बल से पंगु

अपनी दुर्बलता छिपाते हैं

जो सत्य को तोड़ते, मरोड़ते हैं

वे साहित्यकार नहीं

चाटुकार होते हैं

दिन कहाँ समान रहते हैं?

सत्य है, आज इसकी

कल उसकी झोली भरते हैं

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Usha Awasthi on October 27, 2021 at 10:36pm — 10 Comments

शठ लोग अब पहनकर चोला ये गेरुआ सा - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

२२१/२१२२/२२१/२१२२



हँसना सिखाया हमने आँखों के आँसुओं को

सम्बल दिया है हरपल  कमजोर बाजुओं को।१।

*

कहती है रूह उन  की  बलिदान जो हुए थे

पहचान कर  हटाओ  जयचन्द पहरुओं को।२।

*

शठ लोग अब पहनकर चोला ये गेरुआ सा

करने लगे हैं निशिदिन बदनाम साधुओं को।३।

*

उनको तमस भला क्यों जायेगा ऐसे तजकर

बैठे जो बन्द कर के  दिन  में भी चक्षुओं को।४।

*

कैसे वसन्त आये पतझड़ को रौंद के फिर

हर डाल…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 26, 2021 at 10:19pm — 14 Comments

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