बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती ।
आखिर वे लोग आ पहुंचे तो बकरे की अम्मा रोने लगी “देखिये आराम से … ज़्यादा तकलीफ़ तो नहीं होगी न … बड़े प्यार से पाला है …”
“आप चिंता न करें हमारे कसाई हाई स्किल्ड हैं …” वे बोले ।
“फ़िर भी …” वह विनती करने लगी ।
“देखिये ! हम किसी पर अत्याचार नहीं करते । हमारी व्यवस्था भी लोकतांत्रिक है । हम हर एक बकरे को वोट का अधिकार देते हैं । हमारे बकरे अपना कसाई खुद चुनते हैं …”
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by Mirza Hafiz Baig on November 19, 2016 at 9:06am — 8 Comments
कालाधन भ्रष्टाचार की नोटबंदी रूपी दीवार की आड़ लिए हुए सफ़ेद धन की गुलाबी मुद्रा को शर्माते-मुस्कराते देख कर बोला- "तुम्हें आना ही होगा एक दिन मेरे ही पास!"
"अभी या रात के अँधेरे में!"
"जब मौक़ा मिले तभी; मैं तुम में या तुम मुझ में समा जाओगी!"
"लोकतंत्र के इस बुढ़ापे में भी!" उसने शरारती अंदाज़ में कहा।
"हाँ, काले को सफ़ेद और सफ़ेद को काले में बदलने के तज़ुर्बे का यही तक़ाज़ा है!" कालेधन ने आत्मविश्वास के साथ कहा।
उसने कालेधन का हाथ थामा और स्वयं के वजूद को भूल सी…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 18, 2016 at 11:30pm — 8 Comments
गाँव में चोरों का प्रकोप बढ़ रहा था। लोग परेशान थे।आये दिन किसी-न-किसी घर में चोरी हो जा रही थी। ग्राम प्रधान ने नई योजना बनाई। पूरा गाँव स्थिति से निपटने को तैयार था।रात चढ़े कालू सेठ के घर चोर पहुँचे।घर का मौन उन्हें ज्यादा मुखर लगा,कालू सेठ का चिर परिचित खर्राटा जो सुनने को नहीं मिला। वे भागने लगे।पूरा गाँव होहकारा देकर पीछे पड़ गया। पर चोर तो चोर थे।निकल गए दूर तक,चोरोंवाले गाँव की तरफ।प्रधान जी के नेतृत्व में उनके गाँव का जत्था आगे बढ़ता जा रहा था।पर यह क्या? थोड़ा ही आगे जाने पर वे…
ContinueAdded by Manan Kumar singh on November 18, 2016 at 6:30pm — 4 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 17, 2016 at 9:00pm — 4 Comments
"अरे जल्दी घर आओ. माँजी वापस आ गयी हैं| मैंने पूछा भी लेकिन कुछ कहा नहीं उन्होंने", पत्नी का फोन सुनते ही उसका माथा ठनका|
"ठीक है, तुम देखो, मैं जल्दी आता हूँ", कहकर उसने फोन रख दिया| उसको भी समझ में नहीं आ रहा था कि अचानक माँ घर क्यों आ गयी| अभी तीन महीने पहले ही तो उनको वृद्धाश्रम में छोड़ कर आया था|
इसी उधेड़बुन में डूबा हुआ वह जल्दी जल्दी घर पहुंचा| पत्नी भी अंदर कुछ परेशान खड़ी थी, एक तो वैसे ही नोट बंदी के चलते हालत पतली थी, उसपर माँ भी आ गयी|
"माँ, सब ठीक तो है वहाँ", और क्या…
Added by विनय कुमार on November 17, 2016 at 8:06pm — No Comments
तृषित नज़र .....
तृषित नज़र अवसन्न अधर
मौन भाव सब हुए प्रखर
नयन घटों की हलचल में
मधु पल सारे गए बिखर
तृषित नज़र अवसन्न अधर
मौन भाव सब हुए प्रखर
देह दिगम्बर रैन निहारे
बिंब चुंबन के देह सँवारे
प्रेम बंध सब चूर हो गए
स्वप्न वात में गए बिखर
तृषित नज़र अवसन्न अधर
मौन भाव सब हुए प्रखर
निर्झर बन बही विरह वेदना
अमृत पल कुछ रहे शेष न
श्वास श्वास से…
Added by Sushil Sarna on November 17, 2016 at 5:33pm — 4 Comments
देखो तुम भी गुनगुनाओगे जब बात समझ में आएगी
देखो तुम भी मुस्कुराओगे जब बात समझ में आएगी
कोई भी अकेला कैसे करे, इस अंधियारे से सबको दूर
तुम साथ चले ही आओगे, जब बात समझ में आएगी
गर लक्ष्य बड़ा हो जीवन में, देनी पड़ती है क़ुरबानी
खुशियों के दीप जलाओगे, जब बात समझ में आएगी
हर काम सही से हो जाए, क्यूँ रखते लोगों से उम्मीद
अपने भी फ़र्ज़ निभाओगे, जब बात समझ में आएगी
इस वक़्त अगर ना बन पाए इस तब्दीली का इक हिस्सा
आगे चलकर…
Added by विनय कुमार on November 17, 2016 at 3:32pm — 8 Comments
एक करतब दूसरे करतब से भारी देखकर
मुल्क भी हैरान है ऐसा मदारी देखकर,
जिनके चेहरे साफ दिखते हैं मगर दामन नहीं
शक उन्हें भी है तेरी ईमानदारी देखकर,
उम्रभर जो भी कमाया मिल गया सब खाक में
चढ गया फांसी के फंदे पर उधारी देखकर,
मुल्क में हालात कैसे हैं पता चल जाएगा
देखकर कश्मीर या कन्याकुमारी देखकर,
सर्द मौसम है यहां तो धूप भी बिकने लगी
हो रही हैरत तेरी दूकानदारी देखकर,
इस…
ContinueAdded by atul kushwah on November 16, 2016 at 5:00pm — 16 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on November 16, 2016 at 9:15am — 4 Comments
आहुति – लघुकथा -
गोविंदी को आज चार दिन हो गये बैंकों के चक्कर काटते हुए। हज़ार हज़ार के चार नोट लेकर घूम रही थी। ना कोई सुनने वाला, ना कोई मदद करने वाला। तीन साल के इकलौते बच्चे को पड़ोसिन के सहारे छोड़ कर आती थी। एक एक पैसे को मुँह ताक रही थी। उसका मर्द ठेके पर मजदूरी करता था। एक दिन भी नागा करना परिवार पर आर्थिक बज्रपात होता। घर खर्च चलाना दूभर हो रहा था। मगर आज गोविंदी कुछ मन में ठान कर आई थी। बैंक की लाइन में लगे हुए लोगों से बड़ बड़ा रही थी,
"भाई, कोई ऐसी तरक़ीब बताओ जिससे आज…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on November 15, 2016 at 6:43pm — 11 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on November 15, 2016 at 5:50pm — 4 Comments
कभी हँसते कभी रोते समय की कानों में आहट
अरमानों की उतरती-चढ़ती लम्बी परछाइयाँ
आकारहीन अँधेरे में अंधों की तरह
अभी भी हम एक-दूसरे को खोजते हैं
इस खोज में तेरे आँसुओं ने मुझको
बहुत दिया
इतना दिया कि मुझसे आज तक
झेला नहीं गया
काँपती परछाइयों में तुम आई, हर बार
मन का पलस्तर उखड़ गया
स्वर तुम्हारे, कभी स्वर मेरे रुंधे हुए
खोखले हुए
तुमको, कभी मुझको सुनाई न दिए
पर सुन लेती हैं…
ContinueAdded by vijay nikore on November 15, 2016 at 3:08pm — 10 Comments
इस घर से .... (200 वीं प्रस्तुति )
कितना
इठलाती थी
शोर मचाती थी
मोहल्ले की
नींद उड़ाती थी
आज
उदास है
स्पर्श को
बेताब है
आहटें
शून्य हैं
अपनी शून्यता के साथ
एक विधवा से
अहसासों को समेटे
झूल रही है
दरवाज़े पर
अकेली
सांकल
शायद
इस घर से
इस घर को
घर बनाने वाला
चला गया है
इक
बज़ुर्ग
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on November 15, 2016 at 1:39pm — 14 Comments
1222 1222 1222 1222
तेरे जलवे से वाकिफ हूँ तेरा दीदार करता हूँ ।
मुहब्बत मैं तुझे सज़दा यहां सौ बार करता हूँ ।।
नज़र बहकी फिजाओं में अदाएं भी हुई कमसिन ।
बड़ी मशहूर हस्ती हो नया इकरार करता हूँ ।।
न जाने कौन सी मिट्टी खुदा ने फिर तराशा है ।
है कारीगर बड़ा बेहतर बहुत ऐतबार करता हूँ ।।
नई आबो हवा में वो कली खिल जायेगी यारों ।
गुलाबी रोशनाई से लिखा रुख़सार करता हूँ ।।
यहां बेदर्द ख्वाहिश है वहां कातिल निगाहें हैं ।
बड़ी…
Added by Naveen Mani Tripathi on November 15, 2016 at 2:00am — 5 Comments
2122 2122 2122 212
दर्द लिखता था मैं अपना और तराना बन गया|
इस तरह लिखने का देखो इक बहाना बन गया|
मैं परिंदा था अकेला मस्त रहता था यहाँ
एक दिन नज़रों का उनकी मैं निशाना बन गया |
है बड़ा कमजर्फ वो भी देखिये इस दौर में ,
डालकर हमको कफस में ख़ुद सयाना बन गया|
दासतां मत पूछिये हमसे हमारे प्यार की
काम उनका रूठना अपना मनाना बन गया|
जिंदगी की राह में मैं भी अकेला था मगर,
हमसफ़र…
ContinueAdded by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on November 14, 2016 at 10:00pm — 10 Comments
बेपर्दा ....
तमाम शब्
अधूरी सी
इक नींद
ज़हन की
अंगड़ाई में
छुपाये रहती हूँ
इक *मौहूम सी
मुस्कान
लबों पे
थिरकती रहती है
सुर्ख रूख़सारों पे
ज़िंदा है
वो तारीकी की ओट में लिया
इक गर्म अहसास का
नर्म बोसा
डर लगता है
सहर की शरर
मेरी हया को
बेपर्दा न कर दे
जिसे छुपाया
अपनी साँसों से भी
कहीं ज़माने को
वो
ख़बर न कर…
Added by Sushil Sarna on November 14, 2016 at 3:30pm — 6 Comments
“शर्म नहीं आती ?”
“शर्म क्यों आयेगी… ?” वह बोला- “अपने पैसे से पीता हूं । भीख नहीं मांगता । मुझे क्यों शर्म आयेगी ?“
मैने भिखारी से कहा- “हट्टे कट्टे होकर भीख मांगते हो शर्म नहीं आती ?”
“शर्म क्यों आयेगी भीख मांगता हूं , कोयी चोरी तो नही करता । शर्म तो चोर को आनी चाहिये ।“
मै चोर के पास गया ।
“शर्म नहीं आती ?” मैने कहा ।
“क्यों भाई ? मुझे शर्म क्यों आयेगी ? कोई मुफ़्त मे करता हूं… निछावर देना पड़ता है । कहां से दूंगा ? धंधा है भाई , कमाऊंगा नही तो…
ContinueAdded by Mirza Hafiz Baig on November 14, 2016 at 11:28am — 3 Comments
अँधेरे को चीर कर ज्वाला
चमक रही है दीप-माला
नज़र उठाके दखो झोपडी, महल के पीछे वाली
कहो, झोपडी में कैसे मने दिवाली |…
ContinueAdded by Kalipad Prasad Mandal on November 13, 2016 at 3:30pm — 1 Comment
Added by Manan Kumar singh on November 13, 2016 at 12:56pm — 2 Comments
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