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कभी हँसते कभी रोते समय की कानों में आहट

अरमानों की उतरती-चढ़ती लम्बी परछाइयाँ

आकारहीन अँधेरे में अंधों की तरह

अभी भी हम एक-दूसरे को खोजते हैं

इस खोज में तेरे आँसुओं ने मुझको

बहुत दिया

इतना दिया कि मुझसे आज तक 

झेला नहीं गया

काँपती परछाइयों में तुम आई, हर बार

मन का पलस्तर उखड़ गया

स्वर तुम्हारे, कभी स्वर मेरे रुंधे हुए

खोखले हुए

तुमको, कभी मुझको सुनाई न दिए

पर सुन लेती हैं देख लेती हैं आँसुओं से

डबडबाई हमारी आँखें

वह, जो वह परछाइयाँ कह नहीं पाती

अँधेरी कोठरी में भी यादों के झरोखों से

जागती-सिसकती रातों में

खुरदुरी सीढ़ियाँ उतरते-चढ़ते ख्यालों में

तुम मुझसे कह जाती हो ऐसे में

कुछ मैं भी तुमसे कह देता हूँ

ज़िन्दगी के गड्ढों में पड़े वह फ़लसफ़े

पर हर सुबह होने से पहले

डरती हैं

वह डबडबाई आँखें

देख न ले कोई जान न ले सदा का प्रश्न

कल की रात उन आँखो का अकेला एकान्त

कि-त-ना  अंधकारमय  था

             --------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by vijay nikore on August 2, 2017 at 11:02am

प्रिय मित्र बृजेश जी,

अभी अपनी पुरानी पोस्ट से गुज़रा तो देखा कि मुझको आपसे मिली सराहना का आभार प्रकट करना रह गया। क्षमाप्रार्थी हूँ, आदरणी्य बृजेश जी। हृदयतल से आपका धन्यवाद।

Comment by vijay nikore on August 2, 2017 at 11:00am

// हमेशा की तरह भावों की असीम गहराइयों में उतरते उबरते अल्फ़ाज //

बहन राजेश जी, आपने मुझको इतना मान दिया, और मुझसे ही बहुत बड़ी भूल हो गई....

अभी अपनी पुरानी पोस्ट से गुज़रा तो देखा कि मुझको आपसे मिली सराहना का आभार प्रकट करना रह गया। क्षमाप्रार्थी हूँ, आदरणी्या राज जी। हृदयतल से आपका धन्यवाद।

Comment by vijay nikore on November 24, 2016 at 2:20pm

आपसे मिली सराहना अमूल्य है, आदरणीय गोपाल नारायन जी

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 17, 2016 at 7:39pm

पर सुन लेती हैं देख लेती हैं आँसुओं से

डबडबाई हमारी आँखें

वह, जो वह परछाइयाँ कह नहीं पाती

 

पर हर सुबह होने से पहले

डरती हैं

वह डबडबाई आँखें

देख न ले कोई जान न ले सदा का प्रश्न----------------अद्भुत आदरणीय निकोर जी . इस करुण  रचना के लिए आपको शत शत प्रणाम .

Comment by vijay nikore on November 17, 2016 at 3:29pm

//हृदय की गहन मौनता को आपने अपने शब्दों कितनी सुंदर अभिव्यक्ति दी है//

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सुशील जी।

Comment by vijay nikore on November 17, 2016 at 7:54am

सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय समर कबीर जी।

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on November 15, 2016 at 9:29pm
अंतस के भावों को शब्दरूपी मोतियों में ढाल कर एक खूबसूरत माला...बहुत बहुत बधाई

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 15, 2016 at 9:13pm

हमेशा की तरह भावों की असीम गहराइयों में उतरते उबरते अल्फ़ाज बहुत खूब दिल से बधाई इस सुंदर प्रस्तुति पर आद० विजय निकोर जी 

Comment by Sushil Sarna on November 15, 2016 at 7:20pm

पर हर सुबह होने से पहले
डरती हैं
वह डबडबाई आँखें
देख न ले कोई जान न ले सदा का प्रश्न
कल की रात उन आँखो का अकेला एकान्त
कि-त-ना अंधकारमय था

वाह आदरणीय निकोर साहिब वाह .... हृदय की गहन मौनता को आपने अपने शब्दों कितनी सुंदर अभिव्यक्ति दी है। इस दिलकश पेशकश पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें सर।

Comment by Samar kabeer on November 15, 2016 at 5:07pm
जनाब विजय निकोर जी आदाब,बहुत भावपूर्ण कविता हुई है,बहुत अच्छा लगा पढ़ कर,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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