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आसमा कब से पड़ा वीरान है

2122 2122 212

बेसबब लिखता कहाँ उन्वान है ।

वो नई फ़ितरत से कब अनजान है ।।



कुछ मुहब्बत का तजुर्बा है उसे ।

मत रहो धोखे में वो नादान है ।।



सिर्फ माँगा था अदा की इक नज़र।

कह गई वह जान तक कुर्बान है ।।



दायरों से दूर जाना मत कभी ।

ताक में बैठा कोई अरमान है ।।



है भरोसा ही नहीं खुद पर जिसे ।

ढूढ़ता फिरता वही परवान है ।।



कहकशां में ढूँढिये अब चाँद को।

आसमा कब से पड़ा वीरान है ।।



इश्क़ की गलती करेगा आदमी… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on February 25, 2017 at 12:04am — 1 Comment

खुशियों की चाबी - लघुकथा –

खुशियों की चाबी - लघुकथा –

कालूराम फ़ुट्पाथ पर जूते मरम्मत करता था। उसके पास में ही रहमान तालों की चाबियाँ बनाता था।

"कालू भैया, कई दिन से देख रहा हूं कि आप कुछ दुखी हो। आजकल घर से खाना भी नहीं लाते। खाली चाय और डबल रोटी से काम चलाते हो"।

"हाँ रहमान भाई, तुमने सही कहा। मेरा घर बिखर रहा है।जब से बेटे की शादी हुई है, घर का माहौल बिगड़ गया है"।

"ऐसी क्या वज़ह हुई है"।

"बेटे की बहू अलग होना चाहती है"।

"तो हो जाने दो अलग"।

"वह चाहती है कि हम लोग इस घर…

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Added by TEJ VEER SINGH on February 24, 2017 at 10:30am — 6 Comments

स्वतंत्र, परतंत्र या परजीवी (लघुकथा)/ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

चारों तरफ़ हाल बेहाल हैं। 'कुछ लोग' बहुत 'चौंक' रहे हैं। 'कुछ लोगों' के मन में बहुत सारे 'सवाल' हैं। बहुत से सवाल ज्वलंत हैं, कुछ सामयिक हैं और कुछ एक असामयिक या आकस्मिक, जबकि कुछ एक सवाल ऊट-पटांग भी हैं। लेकिन अधिकतर सवाल किसी भी रूप या विधा में अभिव्यक्त नहीं हो पा रहे हैं। डर है कि किसी 'सवाल' को अभिव्यक्त करने पर कोई 'बबाल' न मच जाये।



लेकिन 'कुछ लोग' हर हाल में हालात के मद्देनज़र ज़ोख़िम लेकर अपने-अपने तरीक़ों से 'सवाल' उठा रहे हैं। उन पर मीडिया, नेता और धर्म-गुरू अपनी-अपनी… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 24, 2017 at 3:40am — 4 Comments

ग़ज़ल- यह ज़माना हाल पर मुस्कुराना चाहता है

2122 2122 2122 2122

हाथ पर बस हाथ रखकर याद आना चाहता है ।

वो मुकद्दर इस तरह से आजमाना चाहता है ।।



गुफ्तगूं होने लगी है फिर किसी का क़त्ल होगा ।

है कोई मासूम आशिक़ सर उठाना चाहता है ।।



शह्र में दहशत का आलम है रकीबों का असर भी ।

तब भी वह अहले ज़िगर से इक फ़साना चाहता है ।।



बेसबब यूं ही नही वह पूछता घर का पता अब ।

रस्म है ख़त भेजना शायद निभाना चाहता है ।।



स्याह रातों का है मंजर चाँदनी मुमकिन न होगी ।

रोशनी के वास्ते वह घर जलाना… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on February 24, 2017 at 2:59am — 5 Comments

यथावत रखें संसार (नवगीत)

एक-दूजे के पूरक होकर

यथावत रखें संसार

पक्ष-विपक्ष राजनीति में

जनता के प्रतिनिधि

प्रतिवाद छोड़ सोचे जरा

एक राष्ट्र हो किस विधि

अपने पूँछ को शीश कहते

दिखाते क्यों चमत्कार

हरे रंग का तोता रहता

जिसका लाल रंग का चोंच

एक कहता बात सत्य है

दूजा लेता खरोच

सत्य को ओढ़ाते कफन

संसद के पहरेदार

सागर से भी चौड़े हो गये

सत्ता के गोताखोर

चारदीवारी के पहरेदार ही

निकले कुंदन…

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Added by रमेश कुमार चौहान on February 23, 2017 at 6:00pm — 3 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल -सुखवनर से वो पहले आदमी है - ( गिरिराज )

1222    1222     122 

सुखनवर से वो पहले आदमी है

गलत क्या है अगर नीयत बुरी है

 

किताबों से कमाई कम हुई तो   

सुना है, रूह उसने बेच दी है  

 

अचानक आइने के बर हुये हैं

इसी कारण बदन में झुरझुरी है

 

लगावट खून से, होती है अंधी

वो काला भी, हरा ही देखती है

 

चली तो है पहाड़ों से नदी पर

सियासी बांध रस्ता रोकती है

 

दिवारें लाख मज़हब की उठा लें

अगर बैठी, तो कोयल , कूकती है…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 23, 2017 at 7:30am — 6 Comments

हाइकू

पहाड़ पर

चढ़ना भी पहाड़

सोचा ही नहीं

 

 

स्नेह आशीष

से भरा रहा सदा   

माँ का आंचल

 

xxxxx

 

 

महकी हवा

वासंती हैं नजारे

फागुन आया ।

 

 

मादक टेसू  

रंग गई चूनर

फागुन आया ।…

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Added by Neelam Upadhyaya on February 22, 2017 at 4:48pm — 2 Comments

गुलाब ऐसे ही थोड़ी गुलाब होता है (ग़ज़ल)

1212 1122 1212 22



क़दम-क़दम पे नुमाया सराब होता है

नज़र में दिखता है फिर चूर ख़्वाब होता है



नयी उमर में निगाहों में आब होता है

भड़क उठे जो यही इंक़िलाब होता है



दिलों की गुफ़्तगू भी क्या क़माल होती है

नज़र-नज़र में सवाल-ओ-जवाब होता है



अगर हो रब्त दिलों में तो दूरियां कैसी

ज़मीं से दूर बहुत आफ़ताब होता है



जो काटनी हों कभी हिज्र की सियाह शबें

हर इक ख़याल तेरा माहताब होता है



वो लोग चेहरों को पढ़ना सिखा रहे हम को

बजाय… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on February 22, 2017 at 3:38pm — 3 Comments

कुछ मुक्तक/सतविन्द्र कुमार राणा

(16 14 मात्रा भार)

.

(1)

हाथ जोड़ कर फिरते दिखते जब-जब सीजन आता है

दर-दर पर मिन्नत होती है हर इक जन तब भाता है

काम साध कुर्सी को पाकर याद नहीं फिर कुछ आता

झुककर जो वादे कर जाते उनको कौन निभाता है?



(2)

मौसम जैसा हाल सजन का समझ नहीं कुछ आता है

इस पल होता है तौला उस पल माशा बन जाता है

प्रीत हमारी लगती झूठी जाने क्या दिल में रखते?

वादे उनके ऐसे लगते ज्यों नेता कर जाता है।



(3)

आँखों को झूठा मत समझो आँखें सच ही कहती हैं…

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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on February 22, 2017 at 2:30pm — 4 Comments

रिश्तों में गर रार करोगे (तरही गजल)

22 22 22 22



रिश्तों में जब रार करोगे

कुनबा अपना ख्वार करोगे ||



पैर तुम्हारा बच पायेगा?

राहें गर पुर खार करोगे ||



जाति धर्म पर वोट दिया तो

मत अपना बेकार करोगे ||



हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई

सब इक, कब स्वीकार करोगे? ||



लोकतंत्र के तुम प्रहरी हो

भ्रष्ट तंत्र पर वार करोगे? ||



राजनीति बूढों से बोली

*हमसे कितना प्यार करोगे?* ||



धन के साथ बँटेगा दिल भी

जो ऊंची दीवार करोगे ||



चीर हरण… Continue

Added by नाथ सोनांचली on February 22, 2017 at 1:00pm — 13 Comments

कुछ मुक्तक

हमारे पीछे तुम आयीं, तुम्हारे पीछे हम भागे।

न बोलूं मैं तेरे आगे, न बोलो तुम मेरे आगे।

जुबां खामोश है लेकिन, निगाहें बोल देती हैं।

हम भी रात भर रोये, तुम भी रात भर जागे।



हम भी मुस्कुराते हैं, तुम भी मुस्कुराते हो।

सबसे हम बताते हैं, सबसे तुम बताते हो।

लगा ये रोग कैसा है, हमारे दिल को ऐ जाना।

तुमसे हम छुपाते हैं, हमसे तुम छुपाते हो।



तुम्हारी भावनाओं को, समझता हूं मगर चुप हूं।

सदा खामोश लब की मैं, सुनता हूं मगर चुप हूं।

इशारों ही… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 22, 2017 at 11:29am — 2 Comments

सखी

बदमाश सखी की चंचल बातें
करती मस्ती
कभी तो कर देती है दूर
खींच एक लकीर

क्या खोया पाया
मन की वेदना को
अब रास आती है
खामोशियाँ ....

हँसते रहना है
दूर हो जाये हर मुश्किल
सखी की ...

न दो अब कोई आवाज़
थके कदमो से चलना है
अभी बाक़ी है कोई राह
पुकारती हुई सी ...

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on February 22, 2017 at 7:13am — 2 Comments

दो इतनी बस भीख मुझे ......

मत्तगयंद सवैया :-

============

 

दो इतनी बस भीख मुझे मन, और न माँग रहा कुछ स्वामी|

नाम जपे दिन रात सदा मुख, गान करे रसना गुण स्वामी||

रूप मनोहर देख सदा दृग, शीतल हो मन पावन स्वामी |

याचक “सत्य” करे विनती नित , शीश नवा पद पंकज स्वामी|१|

 

याद बड़ी शुभदायक औ तव, रूप बड़ा मन मोहक स्वामी|

भक्त कृपालु उदार मना तुम, भक्त कृपा लहते तव स्वामी||

बन्धु सखा गुरु मात पिता तुम, हो भव सागर तारक स्वामी|

जीवन की तुम आस प्रभो! तुम,हो…

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Added by Satyanarayan Singh on February 21, 2017 at 11:30pm — 2 Comments

एक सूरज ...

एक सूरज ...

सो गया

थक कर

सिंधु के क्षितिज़ पे

ख़ुदा के दर पे

ज़मीं के

बशर के लिए

चैन-ओ-अमन की

फरियाद लिए

जलता हुआ

एक सूरज

संचार हुआ

नव जीवन का

भर दिया

ख़ुदा के नूर को

ज़मीं के ज़र्रे ज़र्रे में

करता रहा भस्म

स्वयं को

स्वयं की अग्नि में

बशर के

चैन-ओ-अमन

के लिए

एक सूरज

रो पड़ा

देखकर

बशर की फितरत

नूरे बख़्शीश को

समझ न सका

ग़ुरूर में…

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Added by Sushil Sarna on February 21, 2017 at 2:04pm — 9 Comments

आस्था (लघु कथा)

संतों तक को झूठी रिपोर्ट के आधार पर गिरफ्तार कर सरकार अच्छा नहीं कर रही | देश विदेश में लाखों अनुयायी किसी के ऐसे ही बनते | मेरे घर से अपनी बहन के साथ इनके आश्रम में 15 दिन रहकर आई है | चेलों का बड़ा ख्याल रखा जाता है | नियमित व्याखान और पूजा पाठ चलता रहता है | बहुत पहुँचे हुए संत है, मैंने भी पुष्कर में इनके प्रवचन सुने है |

पाठक जी बोले - ये सब तो ठीक है ओझा जी, पर इनके खिलाफ अश्लील कारनामे और महिलाओं के साथ लिप्त पाए जाने के पुख्ता सबूत के आधार पर ही गिरफ्तार किया है | कई शहरों में…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 21, 2017 at 12:22pm — 10 Comments

ग़ज़ल नूर की : ये नहीं है कि हमें उन से मुहब्बत न रही,

२१२२, ११२२, ११२२, २२



ये नहीं है कि हमें उन से मुहब्बत न रही,

बस!! मुहब्बत में मुहब्बत भरी लज्ज़त न रही. 

.

रब्त टूटा था ज़माने से मेरा पहले-पहल,

रफ़्ता-रफ़्ता ये हुआ ख़ुद से भी निस्बत न रही.

.

ज़ह’न में कोई ख़याल और न दिल में हलचल,

ज़िन्दगी!! मुझ में तेरी कोई अलामत न रही.

.

उन से नज़रें जो मिलीं मुझ पे क़यामत टूटी,

वो क़यामत!! कि क़यामत भी क़यामत न रही.

.

याद गर कीजै मुझे, यूँ न…

Continue

Added by Nilesh Shevgaonkar on February 21, 2017 at 12:00pm — 17 Comments

नज़्र ....

नज़्र ....

सहर हुई
तो ख़बर हुई
शब्
सिर्फ
बातों को
नज़्र हुई
रहते ख़ामोश
नज़रों को
जुबां देते
रात यूँ ही
नज़रों के
दरमियाँ गुज़ार देते
लम्स करते बयाँ
सफर निगाहों का
फिर

न सहर की
खबर होती
न शब्
लफ़्ज़ों को
नज़्र होती

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on February 20, 2017 at 1:34pm — 12 Comments

ऐसा लगा जमी पे आसमा उतर गया

*221 2121 2121 212*



‌मेरी गली के पास से वो यूँ गुजर गया ।

ऐसा लगा जमीं पे आसमा उतर गया ।।



माना मुहब्बतों का फ़लसफ़ा अजीब है ।

शायद नज़र खराब थी वो भी उधर गया ।।



मैं रात भर सवाल पूछता रहा मगर ।

उसका जबाब हौसलों के पर क़तर गया ।।



‌तुमने दिए जो जख़्म आज तक न भर सके ।

‌जब जब किया है याद दर्द फिर उभर गया ।





इस तर्ह उस हसीन की तू पैरवी न कर ।

मतलब निकलने पर जो रब्त से मुकर गया ।।



‌तू मेरी आजमाइशों की कोशिशें… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on February 20, 2017 at 12:53am — 16 Comments

ग़ज़ल (बह्र-22/22/22/2)

उसने मुझको देखा है,
शायद कुछ तो सोचा है।
मंज़र कुछ ऐसा है जो,
उसकी आँखों देखा है।
मुश्क़िल राहों पे अब वो,
धीरे-धीरे चलता है।
कहता है वो सच को सच
सबको कड़वा लगता है।
उस पे शक़ करना कैसा,
वह तो जाँचा परखा है।
सुख-दुख के मौसम को, वह
ख़ामोशी से सहता है।
बारिश हो जाने से अब,
मौसम बदला-बदला है।

.
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Mohammed Arif on February 19, 2017 at 3:30pm — 15 Comments

मैं भी गलती करता हूँ (तरही गजल)

बह्र 22 22 22 2

हाड़ मास का पुतला हूँ
मैं भी गलती करता हूँ ||

बच्चों को फुसलाने में
दिल रोये पर हँसता हूँ ||

जाति धर्म के बीच फँसी
लोक तंत्र की जनता हूँ||

सीख न पाया मैं लहजा
यूँ तो ग़ज़लें कहता हूँ ||

जीवन नश्वर है फिर भी
आशाओं पर जीता हूँ ||

अंक गणित सा जीवन है
गुणा भाग में उलझा हूँ ||

साथ लिए  इक ख़ालीपन
"अपनी धुन में रहता हूँ ||"


(मौलिक व अप्रकाशित)'₹

Added by नाथ सोनांचली on February 19, 2017 at 2:53pm — 26 Comments

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