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राज़ नवादवी: एक अंजान शायर का कलाम- ६७

1212 1122 1212 22

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हमारी रात उजालों से ख़ाली आई है

बड़ी उदास ये अबके दिवाली आई है //१



चमन उदास है कुछ यूँ ग़ुबारे हिज्राँ में

कली भी शाख़ पे ख़ुशबू से ख़ाली आई है //२ 




फ़ज़ा ख़मोश है घर की, अमा है सीने में

हमारा सोग मनाने रुदाली आई है //३ 



मवेशी खा गए या फिर है मारा पालों ने

कभी कभार ही फ़सलों पे बाली आई है…

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Added by राज़ नवादवी on November 7, 2018 at 12:00pm — 16 Comments

प्रणय-हत्या

प्रणय-हत्या

किसी मूल्यवान "अनन्त" रिश्ते का अन्त

विस्तरित होती एक और नई श्यामल वेदना का

दहकता हुया आशंकाहत आरम्भ

है तुम्हारे लिए शायद घूम-घुमाकर कुछ और "बातें"

या है किसी व्यवसायिक हानि और लाभ का समीकरण

सुनती थी क्षण-भंगुर है मीठे समीर की हर मीठी झकोर

पर "अनन्त" भी धूल के बवन्डर-सा भंगुर है

क्या करूँ ... मेरे साँवले हुए प्यार ने यह कभी सोचा न…

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Added by vijay nikore on November 9, 2018 at 6:30am — 6 Comments

ग़ज़ल नूर की- सँभाले थे तूफ़ाँ उमड़ते हुए

सँभाले थे तूफ़ाँ उमड़ते हुए

मुहब्बत से अपनी बिछड़ते हुए.

.

समुन्दर नमाज़ी लगे है कोई

जबीं साहिलों पे रगड़ते हुए.

.

हिमालय सा मानों कोई बोझ है

लगा शर्म से मुझ को गड़ते हुए.

.

“हर इक साँस ने”; उन से कहना ज़रूर  

उन्हें ही पुकारा उखड़ते हुए.  

.

हराना ज़माने को मुश्किल न था  

मगर ख़ुद से हारा मैं लड़ते  हुए.

.

ज़रा देर को शम्स डूबा जो “नूर”

मिले मुझ को जुगनू अकड़ते हुए.

.

निलेश "नूर"

मौलिक/…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on October 28, 2018 at 10:30am — 22 Comments

ग़ज़ल- चींटियाँ उड़ने लगीं, शाहीन कह देने के बाद

2122 2122 2122 212

हर दुआ पर आपके आमीन कह देने के बाद

चींटियाँ उड़ने लगीं, शाहीन कह देने के बाद

आपने तो ख़ून का भी दाम दुगना कर दिया

यूँ लहू का ज़ायका नमकीन कह देने के बाद

फिर अदालत ने भी ख़ामोशी की चादर ओढ़ ली

मसअले को वाक़ई संगीन कह देने के बाद

ये करिश्मा भी कहाँ कम था सियासतदान का

बिछ गईं दस्तार सब कालीन कह देने के…

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Added by Balram Dhakar on October 24, 2018 at 12:00am — 20 Comments

सत्यव्रत (लघुकथा)

"व्रत ने पवित्र कर दिया।" मानस के हृदय से आवाज़ आई। कठिन व्रत के बाद नवरात्री के अंतिम दिन स्नान आदि कर आईने के समक्ष स्वयं का विश्लेषण कर रहा वह हल्का और शांत महसूस कर रहा था। "अब माँ रुपी कन्याओं को भोग लगा दें।" हृदय फिर बोला। उसने गहरी-धीमी सांस भरते हुए आँखें मूँदीं और देवी को याद करते हुए पूजा के कमरे में चला गया। वहां बैठी कन्याओं को उसने प्रणाम किया और पानी भरा लोटा लेकर पहली कन्या के पैर धोने लगा।

 

लेकिन यह क्या! कन्या के पैरों पर उसे उसका हाथ राक्षसों के हाथ जैसा…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on October 14, 2018 at 2:23pm — 17 Comments

पागल मन ..... (400 वीं कृति )

पागल मन ..... (400 वीं कृति )

एक

लम्बे अंतराल के बाद

एक परिचित आभास

अजनबी अहसास

अंतस के पृष्ठों पे

जवाबों में उलझा

प्रश्नों का मेला

एकाकार के बाद भी

क्यूँ रहता है

आखिर

ये

पागल मन

अकेला

तुम भी न छुपा सकी

मैं भी न छुपा सका

हृदय प्रीत के

अनबोले से शब्द

स्मृतियाँ

नैन घनों से

तरल हो

अवसन्न से अधरों पर

क्या रुकी कि

मधुपल का हर पल

जीवित हो उठा

मन हस पड़ा…

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Added by Sushil Sarna on October 15, 2018 at 7:48pm — 14 Comments

"बहुत दिनों से है बाक़ी ये काम करता चलूँ"

ग़ज़ल

बहुत दिनों से है बाक़ी ये काम करता चलूँ

मैं नफ़रतों का ही क़िस्सा तमाम करता चलूँ

अब आख़िरत का भी कुछ इन्तिज़ाम करता चलूँ

दिल-ओ-ज़मीर को अपने मैं राम करता चलूँ

जहाँ जहाँ से भी गुज़रूँ ये दिल कहे मेरा

तेरा ही ज़िक्र फ़क़त सुब्ह-ओ-शाम करता चलूँ

अमीर हो कि वो मुफ़लिस,बड़ा हो या छोटा

मिले जो राह में उसको सलाम करता चलूँ

गुज़रता है जो परेशान मुझको करता है

तेरे ख़याल से…

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Added by Samar kabeer on September 1, 2018 at 3:12pm — 53 Comments

तरही ग़ज़ल : साफ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं

2122  1122  1122  22/112

कोई पूछे तो मेरा हाल बताते भी नहीं,

आशनाई का सबब सबसे छुपाते भी नहीं।

शेर कहते हैं बहुत हुस्न की तारीफ़ में हम

पर कभी अपनी ज़बाँ पर उन्हें लाते भी नहीं।

जब भी देते हैं किसी फूल को हँसने की दुआ,

शाख़ से ओस की बूंदों को गिराते भी नहीं।

ये तुम्हारी है अदा या है कोई मजबूरी,

प्यार भी करते हो और उसको जताते भी नहीं।

सिर्फ़ अल्फ़ाज़ से पहचान…

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Added by Ravi Shukla on August 29, 2018 at 4:00pm — 17 Comments

मिर्ज़ा ग़ालिब की ज़मीन में एक कोशिश ।

'भर के आँखों में नमी लहज-ए-साइल बाँधा ।

उनसे मिलने जो चला साथ ग़म ए दिल बाँधा ।

उनकी तशबीह सितारों से न अशआर में दी ।

उनके रुख़सार पै जो तिल था उसे तिल बाँधा ।

मैं भँवर से तो निकल आया मगर मैरे लिए ।

एक तूफ़ान भी उसने लबे साहिल बाँधा ।

हौसले पस्त हुए पल में मिरे क़ातिल के ।

तीर के सामने जब सीन-ए- बिस्मिल बाँधा ।

लुत्फ़ अंदोज़ है "जावेद"तग़ज़्ज़ल कितना ।

हमने मोज़ू ए…

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Added by mirza javed baig on August 31, 2018 at 12:59am — 12 Comments

ग़ज़ल(212)

उम्रभर।
मोतबर।।

मुश्किलें।
तू न डर।।

ताकती।
इक नज़र।।

धूप में।
है शज़र।।

वो तेरा।
फिक्र कर।।

रात थी।
अब सहर।।

इश्क़ ही।
शै अमर।।

मौलिक/अप्रकाशित

राम शिरोमणि पाठक

Added by ram shiromani pathak on June 19, 2018 at 8:29am — 10 Comments

नदिया  पोखर सब सूखे - गजल ( लक्ष्मण धामी " मुसाफिर"

२२२२ २२२२ २२२२ २२२



पोथा पढ़ना पंडित  भूले  शुभ मंगल  में आग लगी

जो माथे को शीतल करता उस संदल में आग लगी।१।



जहर  भरा  है  खूब हवा  में  हर मौसम दमघोटू  है

पंछी अब क्या घर लौटेंगे जिस जंगल में आग लगी।२।



कैसी  नफरत  फैल  गयी  है  बस्ती  बस्ती  देखो तो

जिसकी छाँव तले सब खेले उस पीपल में आग लगी।३।



धन दौलत  की  यार पिपासा  इच्छाओं का कत्ल करे

चढ़ते यौवन जिसकी चाहत उस आँचल में आग लगी।४।



किस्मत फूटी है हलधर की नदिया  पोखर सब…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on June 6, 2018 at 4:55pm — 19 Comments

अस्वीकृत मृत्यु (लघुकथा)

अंतिम दर्शन हेतु उसके चेहरे पर रखा कपड़ा हटाते ही वहाँ खड़े लोग चौंक उठे। शव को पसीना आ रहा था और होंठ बुदबुदा रहे थे। यह देखकर अधिकतर लोग भयभीत हो भाग निकले, लेकिन परिवारजनों के साथ कुछ बहादुर लोग वहीँ रुके रहे। हालाँकि उनमें से भी किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि शव के पास जा सकें। वहाँ दो वर्दीधारी पुलिस वाले भी खड़े थे, उनमें से एक बोला, "डॉक्टर ने चेक तो ठीक किया था? फांसी के इतने वक्त के बाद भी ज़िन्दा है क्या?"

दूसरा धीमे कदमों से शव के पास गया, उसकी नाक पर अंगुली रखी और…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on June 6, 2018 at 6:00pm — 17 Comments

अकुलायी थाहें

अकुलायी थाहें

कटी-पिटी काली-स्याह आधी रात

पिघल रहा है मोमबती से मोम

काँपती लौ-सा अकुलाता

कमरे में कैद प्रकाश

आँखों में चिन्ता की छाया

ऐसे में समाए हैं मुझमें

हमारे कितने सूर्योदय

कितने ही सूर्यास्त

और उनमें मेरे प्रति

आत्मीयता की उष्मा में

आँसुओं से डबडबाई तेरी आँखें

तैर-तैर आती है रुँधे हुए विवरों में

तेरी-मेरी-अपनी वह आख़री शाम

पास होते हुए भी मुख पर…

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Added by vijay nikore on June 10, 2018 at 12:13pm — 18 Comments

तुम्हारे जख्म सहलाये गये हैं

बहुत बेचैन वो पाये गए हैं ।

जिन्हें कुछ ख्वाब दिखलाये गये हैं ।।

यकीं सरकार पर जिसने किया था ।

वही मक़तल में अब लाये गए हैं।।

चुनावों का अजब मौसम है यारों ।

ख़ज़ाने फिर से खुलवाए गए हैं ।।

करप्शन पर नहीं ऊँगली उठाना ।

बहुत से लोग लोग उठवाए गये हैं ।।

तरक्की गांव में सड़कों पे देखी ।

फ़क़त गड्ढ़े ही भरवाए गये हैं ।।

पकौड़े बेच लेंगे खूब आलिम ।

नये व्यापार सिखलाये…

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Added by Naveen Mani Tripathi on June 10, 2018 at 11:04pm — 13 Comments

ग़ज़ल _तक़दीर आज़माने की ज़हमत न कीजिए

(मफऊल _ फाइलात _ मफाईल _फाइलुन)

तक़दीर आज़माने की ज़हमत न कीजिए |

उस बे वफ़ा को पाने की हसरत न कीजिए |

बढ़ने लगी हैं नफरतें लोगों के दरमियाँ

मज़हब की आड़ ले के सियासत न कीजिए |

जलवे किसी हसीन के आया हूँ देख कर

महफ़िल में आज ज़िक्रे कियामत न कीजिए |

आवाज़ तो उठाइए हक़ के लिए मगर

इसके लिए वतन में बग़ावत न कीजिए |

बैठा है चोट खाके हसीनों से दिल पे वो

जो कह रहा था मुझ से मुहब्बत न कीजिए…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on June 12, 2018 at 10:30pm — 19 Comments

जलियांवाला बाग़ (लघुकथा)

‘‘फ़ायर!’’ जनरल के कहते ही सैकड़ों बन्दूकें गरजने लगीं। उस जंगल में आदिवासी चारों तरफ़ से घिर चुके थे। उनकी लाशें ऐसे गिर रही थीं जैसे ताश के पत्ते। क्या बच्चे, क्या बूढ़े, क्या जवान, कोई भी ऐसा नहीं नहीं था जो बच सका हो। कुछ ने पेड़ों के पीछे छिपने की कोशिश की तो कुछ ने पोखर के अन्दर मगर बचा कोई भी नहीं। देखते ही देखते हरा-भरा जंगल लाल हो गया।

‘‘आगे बढ़ो!’’ जनरल ने आदेश दिया। सेना लाशों के बीच से होते हुए जंगल के भीतर बढ़ने लगी। वहाँ कोई भी ज़िन्दा नज़र नहीं आ रहा था सिवाय उस छोटी सी…

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Added by Mahendra Kumar on June 13, 2018 at 12:00pm — 13 Comments

तुम्हारे स्पर्श से....

मैं संग चल दी उनके,

मेरा मन यहीं रह गया...

उन्होंने दिखाये होंगे हजारों ख्वाब,

पर इन आँखों में रौशनी कहाँ थी !!

कितने ही गीत सुनाये होंगे उन्होंने,

पर इन कानों के पट तो बंद हो चुके थे !!

उनके सबालों का,

जबाब भी ना दे पायी थी मैं....

क्योंकी इन होठों पे, तुम्हारा ही नाम रखा था!!

कितना आक्रोश था उनके ह्रदय में,

जब उन्होंने,

मेरे केशों को पकड़कर खींचा था...

और मैं पत्थर सी हो गयी थी,

किसी भी आघात की पीड़ा ना हुई…

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Added by रक्षिता सिंह on June 15, 2018 at 5:12pm — 10 Comments

सूर्य उगाने जैसा हो- गीत

जीवन की सूनी राहों में,

मधु बरसाने जैसा हो.

अबकी बार तुम्हारा आना

सचमुच आने जैसा हो.

 

धूप कुनकुनी खिले माघ में,

भीगा-भीगा हो सावन.

बादल गरजें जिसकी छत पर,…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on June 18, 2018 at 10:00am — 20 Comments

अधूरा रिश्ता (लघुकथा)

वार्ड के बिस्तर पर वह निढ़ाल पड़ा है, डॉक्टर कह रहे हैं कि ये नीला पड़ गया है, उन्होंने पुलिस को भी बुला लिया है |

“नीला तो पैदा होते समय ही था, अब क्या होगा ?”, किसी पास खड़े ने कहा | 

बात निकलती हुई इस पर आ कर रुक गई, सुबह तो नए कपड़े पहन और चौर बाज़ार से खरीदी काली एनक लगा कि गया था 

काले चश्में का एक फायदा तो ये था कि आंख का टीर भी नजर नही आता था |

अभी कुछ दिन हुए घर वाली रब को प्यारी हो गई थी | 

कुछ…

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Added by मोहन बेगोवाल on May 4, 2018 at 10:30pm — 5 Comments

निष्कलंक कृति ...

निष्कलंक कृति .....



अवरुद्ध था

हर रास्ता

जीवन तटों पर

शून्यता से लिपटी

मृत मानवीय संवेदनाओं की

क्षत-विक्षत लाशों को लांघ कर

इंसानी दरिंदों के

वहशी नाखूनों से नोची गयी

अबोध बच्चियों की चीखों से

साक्षात्कार करने का

रक्त रंजित कर दिए थे

वासना की नदी ने

अबोध किलकारियों को दुलारने वाले

पावन रिश्तों के किनारे

किंकर्तव्यमूढ़ थी

शुष्क नयन तटों से

रिश्तों की

टूटी किर्चियों की

चुभन…

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Added by Sushil Sarna on April 20, 2018 at 4:25pm — 8 Comments

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