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गीत -- कण कण में बसी है माँ।

गीत --
कण कण में बसी है माँ।
.
उडती खुशबु रसोई की
नासिका में समाये
भोजन बना स्नेह भाव से
क्षुधा शांत कर जाय
प्रातः हो या साँझ की बेला
तुमसे ही सजी है माँ
कण कण में बसी है माँ।
.
संतान के ,सुख की खातिर
अपने स्वप्न मिटाये
पीर अपने मन की ,तुमने
घाव भी नहीं दिखाए
खुशियाँ ,घर के सभी कोने में
तुमने ही भरी है…
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Added by shashi purwar on October 1, 2013 at 3:01pm — 18 Comments

मिलने पर नजरें चुराओगे था मालूम मुझे

यूं मुझे भूल न पाओगे था मालूम मुझे

दिल में लोबान जलाओगे था मालूम मुझे

अपने अश्कों से भिगो बैठोगे मेरा दामन 

एक दिन मुझको रुलाओगे था मालूम मुझे

 

मैंने सीने से लगा रक्खा है तेरा हर ख़त

ख़त मगर मेरा जलाओगे था मालूम मुझे 

 

यूं तो वादा भी किया, तुमने कसम भी खाई.

गैर का घर ही बसाओगे था मालूम मुझे

सारे इलज़ाम ले बैठा तो हूँ मैं अपने सर

मिलने पर नजरें चुराओगे था मालूम मुझे 

डॉ आशुतोष…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on October 1, 2013 at 1:58pm — 12 Comments

ये नज़र किससे मेरी टकरा गई

ये नज़र किससे मेरी टकरा गई

पल में दिल को बारहा धडका गई

 

एक टक उसको लगे हम ताकने

शर्म थी आँखों में हमको भा गई

लब गुलाबों से बदन था संदली

खुशबू जिसकी दिल जिगर महका गई

 

कैद है या खूबसूरत ख्वाब-गाह 

गेसुओं में इस कदर उलझा गई

 

पग जहाँ उसने रखे थे उस जगह

जर्रे जर्रे पे जवानी आ गई

 

“दीप” जो बुझने लगा था इश्क का 

मुस्कुरा के उसको वो भड़का गई

 

संदीप पटेल…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on October 1, 2013 at 1:30pm — 14 Comments

आत्म-मन्थन

आत्म-मन्थन

कभी-कभी इन दिनों

आत्म-मन्थन करती

जीवन के तथ्यों को तोलती

मेरी हँसती मनोरम खूबसूरत ज़िन्दगी

जाने किस-किस सोच से घायल

कष्ट-ग्रस्त

‘अचानक’ बैठी उदास हो जाती है

 

लौट आते हैं उस असामान्य पल में

कितने टूटे पुराने बिखरे हुए सपने

भय और शंका और आतंक के कटु-भाव

रौंद देते हैं मेरा ज्ञानानुभाव स्वभाव

और उस कुहरीले पल का धुँधलापन ओढ़े

अपने मूल्यों को मिट्टी के पहाड़-सा…

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Added by vijay nikore on October 1, 2013 at 1:30pm — 26 Comments

कुण्डलियाँ [ जीवन ]

जीवन के पथ हैं सरल ,अगर सही हो सोच
जीवन की इस दौड़ में ,आती रहती मोच /
आती रहती मोच ,बैठ कर रुक मत जाना
आगे की लो सोच लक्ष्य जल्दी यदि पाना
अगर सारथी कृष्ण दौड़ते जीवन रथ हैं
यदि हौंसले बुलंद, सरल जीवन के पथ हैं//

..........................

मौलिक व अप्रकाशित 

Added by Sarita Bhatia on October 1, 2013 at 11:30am — 16 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
मैं ग़ज़ल लिखूँ या गीत लिखूँ ? (राज)

छंदों की फुहार हैं भीगे अशआर हैं

कहे कलम क्या; सृजन करूँ ?

मैं ग़ज़ल लिखूँ  या गीत लिखूँ ?

 

जो नित नए रंग बदलते हों

पल पल में साथ बदलते हों

नूतन  परिधानों की…

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Added by rajesh kumari on October 1, 2013 at 11:30am — 18 Comments

बा-शिन्दे अभिमत यही, भेजें यह अभिलेख -

आलू-बंडे से अलग, मुर्गी अंडे देख |
बा-शिन्दे अभिमत यही, भेजें यह अभिलेख |


भेजें यह अभिलेख, नहीं भेजे में आये |
गिरा आम पर गाज, बड़ा अमलेट बनाए |,


भेदभाव कुविचार, किचन कैबिनट में चालू |
अंडे हुवे विशेष, हमेशा काटे आलू ||

मौलिक/ अप्रकाशित

Added by रविकर on October 1, 2013 at 10:24am — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
तकलीफ (अरुण कुमार निगम)

[अंतराष्ट्रीय वृद्ध दिवस पर लघु कथा]



लगभग एक माह पूर्व बेटे का विदेश से फोन आया था कि वह मिलने आ रहा है. मन्नू लाल जी खुशी से झूम उठे. पाँच वर्ष पूर्व बेटा नौकरी करने विदेश निकला था. वहीं शादी भी कर ली थी. अब एक साल की बिटिया भी है.शादी करने की बात बेटे ने बताई थी. पहले तो माँ–बाप जरा नाराज हुये थे, फिर यह सोच कर कि बेटे को विदेश में अकेले रहने में कितनी तकलीफ होती होगी, फिर बहू भी तो भारतीय ही थी, अपने-आप को मना ही लिया था.



मन्नू लाल जी और उनकी पत्नी दोनों ही साठ…

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Added by अरुण कुमार निगम on October 1, 2013 at 10:00am — 26 Comments

प्रकृति का सबसे सुन्दर रूप.

सागर , सरिता ,

निर्झर , मरू

कलरव करते विहग

सुन्दर फूल , गिरि , तरु

अरुणाई उषा की

रजनी से मिलन  शशि का

जल,  वर्षा , इन्द्रधनुष

कोटि जीव , वीर पुरुष 

सब कितना मंजुल  जग में

प्रकृति का रूप अनूप

लेकिन

नारी, तुम हो जगत में

प्रकृति का सबसे सुन्दर रूप.

......मौलिक एवं अप्रकाशित ....

Added by Neeraj Neer on October 1, 2013 at 8:30am — 17 Comments

ग़ज़ल

---------------------------

           ग़ज़ल

---------------------------

कैसा      भाईचारा     जी

रख दो  माल  हमारा  जी .

 

दिल का क्या कहना मानें

दिल  तो  है  आवारा  जी  .

 

शीशा तोड़ा,  क्या तोड़ा ?

तोड़ो  तम की  कारा  जी .

 

माल  अकेले  गपक गये 

तुम  सारे  का  सारा  जी .

 

जाओ,  कूद पड़ो  रण में

दुश्मन ने  ललकारा  जी .

 

पेट भरेगा…

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Added by अजीत शर्मा 'आकाश' on October 1, 2013 at 8:00am — 14 Comments

दोहे/ प्रेम

प्रेम-प्रेम की रट लगी, मर्म न जाने कोय!

देह-पिपासा जब जगी, गए देह में खोय!

 

मीरा का भी प्रेम था, गिरधर में मन-प्राण!

राधा भी थी खो गयी, सुन मुरली की तान!!

 

राम चले वनवास को, सीता भी थीं साथ!…

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Added by बृजेश नीरज on September 30, 2013 at 11:13pm — 26 Comments

केवल एक मिठाई ...माँ...............

केवल एक मिठाई ...माँ...............



रिश्ते नाते संबंधो की होती नरम चटाई .......माँ

शीत लहर मे विषमताओं की , लगती गरम रज़ाई ...माँ



हर रिश्ते को परखा जाना , तब जाना व्यापार है ये 

मूँह में राम बगल में छूरी , दुनिया का व्योहार है ये 

दुनिया के सब प्रतिफल हैं कड़ुए, केवल एक मिठाई ...माँ

कोई कितना ही रोता हो सच ही जानो चुप…

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Added by ajay sharma on September 30, 2013 at 10:30pm — 12 Comments


मुख्य प्रबंधक
लघुकथा : बहन जी (गणेश जी बागी)

"अरे वाह ! कुछ ही दिनों में ये मोबाइल, ये नया टैब ! क्या बात है मैडम जी, कोई लाटरी लग गई है क्या ?", राधिका ने अपनी रूम-मेट आयशा को छेड़ते हुए कहा | 

"नहीं रे, ये दोनो गैजेट तो प्रशांत ने ग़िफ़्ट किये हैं |"

"देख आयशा, मैने तुझे पहले भी आगाह किया था.. आज फिर कह रही हूँ, ये प्रशांत और उसके दोस्तों से संभल के रह... वे लोग मुझे ठीक...."…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on September 30, 2013 at 9:30pm — 40 Comments

!!! सावधान !!!

!!! सावधान !!!

रूप घनाक्षरी (32 वर्ण अन्त में लघु)

दंगा करार्इये खूब, जीना सिखार्इये खूब, हर हाल में जीना है, कांटे बिछार्इये खूब।
अवसर भुनार्इये, जाति-धर्म लड़ार्इये, सौहार्द-भार्इचारा को, जिंदा जलार्इये खूब।।
गाते रहे तिमिर में, झींगुर श्वांस लय में, सर्प-बिच्छू देव सम, बाहें बढ़ार्इये खूब।
नारी दुर्गा काली सम, जया  शक्ति यशो गुन, महिषा-भस्मासुर सा, नाच दिखार्इये खूब।।

के0पी0सत्यम / मौलिक व अप्रकाशित

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on September 30, 2013 at 9:10pm — 15 Comments

ग़ज़ल : जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये

जुड़ो जमीं से कहते थे जो, वो खुद नभ के दास हो गये

आम आदमी की झूठी चिन्ता थी जिनको, खास हो गये

 

सबसे ऊँचे पेड़ों से भी ऊँचे होकर बाँस महोदय

आरक्षण पाने की खातिर सबसे लम्बी घास हो गये

 

तन में मन में पड़ीं दरारें, टपक रहा आँखों से…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 30, 2013 at 8:39pm — 24 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
हाथ काटे जा चुके हैं फिर तू आंखें लाल कर ( ग़ज़ल ) गिरिराज भंडारी

2122     2122          2122            212

कोशिशों का अब कहीं नामों निशां रहता नहीं 

हाल अपना संग है वो ,जो कभी ढहता नहीं

हादसे कैसे भी हों कितने भी हों मंज़ूर सब

ख़ून अब बेजान आंखों से कभी बहता…

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Added by गिरिराज भंडारी on September 30, 2013 at 8:30pm — 38 Comments

अभिव्यक्ति का एक प्रकार आलोचना

{सभी आदरणीय सजृनकर्ताओं को प्रणाम, एक माह तक भारतीय रेल सिगनल इंजीनियरी और दूरसंचार संस्थान , सिकन्दराबाद - आंध्र प्रदेश में नवीन तकनीकी ज्ञान अर्जन करने के कारण ओ बी ओ परिवार से दुर रहना पड़ा, इसके लिए क्षमा चाहता हूँ । पुनः प्रथम रचना के रूप में यह आलेख प्रस्तुत है}

         हमारे जीवनयापन की आवश्यकताओं के बाद सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है हमारी अभिव्यक्ति अर्थात हमारी बोलने की जरूरत, जिसके बिना इंसान का जीवन कष्टमय हो जाता है । यदि किसी को कठोर सजा देनी होती है तो उसे…

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Added by D P Mathur on September 30, 2013 at 8:30pm — 8 Comments

दोहा -५ प्रेम पीयूष

सुन्दर प्रिय मुख देखकर, खुले लाज के फंद।

नयनों से पीने लगा, भ्रमर भाँति मकरन्द !!१

प्रेम जलधि में डूबता ,खोजे मिले न राह !

विकल हुआ बेसुध हृदय, अंतस कहता आह!!२

प्रेम भरे दो बोल मधु,स्वर कितने अनमोल !

कानों में सबके सदा ,मिश्री देते घोल !!३

रवि के जाते ही यहाँ ,हुई मनोहर रात !

चाँद निखरकर आ गया,मुझसे करने बात !!४

अधर पंखुड़ी से लगें ,गाल कमल के फूल !!

ऐसी प्रिय छवि देखकर, गया स्वयं को…

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Added by ram shiromani pathak on September 30, 2013 at 6:30pm — 32 Comments

चारा पाती गाय, हुई रौनक गौशाले

गौशाले में गाय खुश, बछिया दिखे प्रसन्न |
बछिया के ताऊ खफा, छोड़ बैठते अन्न |


छोड़ बैठते अन्न, सदा चारा ही खाया |
पर निर्णय आसन्न, जेल उनको पहुँचाया |


करते गधे विलाप, फायदा लेने वाले |
चारा पाती गाय, हुई रौनक गौशाले ||

मौलिक / अप्रकाशित

Added by रविकर on September 30, 2013 at 5:20pm — 11 Comments

किसी सफ़र से कम नहीं है मेरी जिंदगी ----------------

किसी सफ़र से कम नहीं है मेरी जिंदगी !

कुछ पल ठहरी , और फिर चल दी!

ना राहो का पता , ना मंजिल की खबर !

भटक रहा हूँ कभी इस डगर, कभी उस डगर !

कभी सर्दी की ठिठुरन , कभी गर्म लू के थपेड़े !

कभी खुशियों की आहट , कभी गम के घेरे !

कभी बारिश का मौसम , कभी दिन के उजाले !

कभी विष के घूंट , कभी मय के प्याले !

ना कोई हमराह , ना कोई संगी साथी !

मगर बढ़ते कदम ये है की रुकते नहीं है !

मीलों चल चुके है मगर थकते नहीं है !

ना है कोई…

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Added by डॉ. अनुराग सैनी on September 30, 2013 at 4:38pm — 7 Comments

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