!!! काम अनंग समान हुए !!!
दुर्मिल सवैया ... आठ सगण यथा-
112 112 112 112 112 112 112 112
कलिकाल अकाल समाज ग्रसे, मन आकुल दीप पतंग हुए।
नित मानव दंश करे जग को, रति-काम समान दबंग हुए।।
घर बाहर ताक रहे वन में, जिय चोर उफान करे तन में।
अति हीन मलीन विचार धरे, निज मीत सुप्रीति छले छन में।।1
जग घोर अनर्थ अकारण ही, नित रारि-प्रलाप सहालग है।
कब? कौन? कथा सुविचार करे, अपलच्छन कर्म कुमारग है।।
जब धर्म सुनीति डिगे जग में, अवतार तभी जग…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 3, 2013 at 7:30am — 25 Comments
१.
टेढ़ी मचिया
टिमटिमाता दिया
टूटी खटिया.
२.
वर्षा की बूँदें
रिसती हुई छत
गीली है फर्श.
३.
छीजती आस
बिखरते सपने
टूटा साहस.
४.
छोटी सी जेब
बढती महंगाई
भूखा है पेट.
५.
बूढ़ा छप्पर
दरकती दीवार
खंडित द्वार.
६.
ठंडा है चूल्हा
अस्त होता सूरज
छाया कोहरा.
- बृजेश…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on October 2, 2013 at 11:30pm — 26 Comments
!!! एक 'बापू फिर बुला मां शारदे !!!
बह्र-2122 2122 212
प्यार जीवन में बढ़ा मां शारदे।
दर्द मुफलिस का घटा मां शारदे।।
कंट के रस्ते भी फूलों से लगे,
राम का वनवास गा मां शारदे।
भील-शोषित का यहां उध्दार हो,
एक 'बापू' फिर बुला मां शारदे।
धर्म का रथ आस्मां में जा रहा,
गर्त में धरती उठा मां शारदे।
आततायी रोज बढ़ते जा रहे,
फिर शिवा-राणा बना मां शारदे।
लेखनी का रंग गहरा हो…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 2, 2013 at 10:30pm — 21 Comments
१
ना जाओ अभी कि मुलाक़ात अधूरी है !
तेरे – मेरे मिलन की हर बात अधूरी है !
जाने क्यों चल दिए तुम दामन छुडाकर!
शबनमी आँखों से लाज के मोती गिराकर !
पुरसुकूं हुस्न की एक झलक दिखाकर !
अभी नही बुझी आँखों की प्यास अधूरी है !
ना जाओ अभी कि मुलाक़ात अधूरी है !
तेरे – मेरे मिलन की हर बात अधूरी है !
२
काली बदलियों का आँखों में काजल लगाकर !
कांच के पैमाने में मय का जाम थमाकर !
रुखसारो पे…
ContinueAdded by डॉ. अनुराग सैनी on October 2, 2013 at 8:07pm — 13 Comments
रूपसी
सुंदर, सकल काया, से सभी के ह्रदय में,
अनुकूल जोश भर, जाती है वो रूपसी,
नयन उचारें जब, मधु से भी मीठे बोल,
तब मदहोश कर, जाती है वो रूपसी,
मन है पवित्र ऐसे, गंगा का हो जल जैसे,…
ContinueAdded by Sushil.Joshi on October 2, 2013 at 8:00pm — 24 Comments
Added by Ravi Prakash on October 2, 2013 at 6:00pm — 26 Comments
बह्र : मुस्तफ्फैलुन मुस्तफ्फैलुन
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सच वो थोड़ा सा कहता है
बाकी सब अच्छा कहता है
दंगे ऐसे करवाता वो
काशी को मक्का कहता है
दौरे में जलते घर देखे
दफ़्तर में हुक्का कहता है
कर्मों को माया कहता वो
विधियों को पूजा कहता है
जबसे खून चखा है उसने
इंसाँ को मुर्गा कहता है
खेल रहा वो कीचड़ कीचड़
उसको ही चर्चा कहता है
चलता है जो खुद सर के बल
वो…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 2, 2013 at 3:23pm — 18 Comments
दीप बन अँधेरी राहो पे जलने लगा हूँ !
धवल चंद्रमा सा चमकने लगा हूँ !
चीर कर सीना निशा का ,
जग के तम को हरने लगा हूँ !
ना दे सहारे को अब कोई बैसाखी !
खुद के पैरो पे जो चलने लगा हूँ !
लडखडाहट का दौर गुजर चुका है !
अब तो मैं सँभलने लगा हूँ !
धो चुका हूँ आँचल के दाग सारे !
फूलों सा अब महकने लगा हूँ !
बंदिशों के पिंजरे तोड़ सारे !
मुक्त परिंदे सा चहकने लगा हूँ !
जला कर इर्ष्या और कपट को !
ज्वालामुखी सा…
ContinueAdded by डॉ. अनुराग सैनी on October 2, 2013 at 2:30pm — 17 Comments
इन मौन चट्टानों के सामने खड़ा
यह सोचता हूँ ,
कितनी कठोर हैं ये /
जितनी कठोर लगती हैं
क्या उतनी ही?
या कहीं ज्यादा ?
क्या भेद सकेगा कोई इनको?
और फिर मैं देखता हूँ
आकाश की ओर /
बदली छाई है ,
धूप का कतरा नहीं है ।
और फिर क्या देखता हूँ
तोड़ कर प्रस्तर कवच को ,
मोतियों सा झर रहा है ,
दुधिया झरना ।
भूल जाता हूँ मैं
कि
कितने कठोर हैं ये पाषाण खंड ,
कि
मैं इन्हें भेद नहीं…
Added by ARVIND BHATNAGAR on October 2, 2013 at 12:30pm — 22 Comments
जीवन में पहली बार कुण्डलियाँ लिखने का प्रयास किया है. आप सबका मार्गदर्शन प्रार्थनीय है.
अम्बे तेरी वंदना, करता हूँ दिन-रात
मिल जाए मुझको जगह, चरणों में हे मात
चरणों में हे मात, सदा तेरे गुण गाऊँ
चरण-कमल-रज मात, नित्य ही शीश लगाऊँ
अर्पित हैं मन-प्राण, दया करिए जगदम्बे
शब्दों को दो अर्थ, मात मेरी हे अम्बे
.
- बृजेश नीरज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by बृजेश नीरज on October 2, 2013 at 11:30am — 32 Comments
शरीर पर बेदाग पोशाक, स्वच्छ जेकेट, सौम्य पगड़ी एवं चेहरे पर विवशता, झुंझलाहट, उदासी और आक्रोश के मिले जुले भाव लिए वे गाड़ी से उतरे... ससम्मान पुकारती अनेक आवाजों को अनसुना कर वे तेजी से समाधि स्थल की ओर बढ़ गए... फिर शायद कुछ सोच अचानक रुके, मुड़े और चेहरे पर स्थापित विभिन्न भावों की सत्ता के ऊपर मुस्कुराहट का आवरण डालने का लगभग सफल प्रयास करते हुये धीमे से बोले- “मैं जानता हूँ, जो आप पूछना चाहते हैं... देखिये, आप सबको, देश को यह समझना चाहिए... और समझना होगा कि ‘गांधी’ जी के…
ContinueAdded by Sanjay Mishra 'Habib' on October 2, 2013 at 9:08am — 25 Comments
बड़े साहब थे बड़े मूड में, भृत्य भेजकर मुझे बुलाये।
छुट्टी का दिन व्यर्थ न जाये, आओ इसे रंगीन बनायें॥
आज के दिन जो मिले नहीं, उस चीज का नाम बताये।
और बोले कहीं से जुगाड़ करो, फिर…
ContinueAdded by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on October 2, 2013 at 12:30am — 13 Comments
अकीदत का करो रौशन चिरागाँ काम से पहले
खुदा को याद कर लेना कभी आलाम से पहले आलाम =तकलीफों
तुम्हारे दम से कायम ज़िन्दगी का है निशां यारब
झुके सजदे में सर मेरा किसी ईनाम से पहले
छुपा आगोश में माँ हमपे ममता की करे बारिश
हमें करुणा की ठण्डक दे कभी आराम से पहले
दुआओं की तेरी तासीर इतनी फ़ैज़ इतना माँ तासीर =प्रभाव, फ़ैज़= अनुकम्पा
महक जायें मेरी ये रहगुज़र हर गाम से…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on October 1, 2013 at 11:53pm — 14 Comments
संवेदनाओं के
अंतर गुन्जन पर
भाव लहरियों का
निःशब्दित नृत्य..
इस ओर से उस छोर
उस छोर से इस ओर
विलयित तटबन्ध..
लहर लहर मन
आनंदित 'नील सागर'
मौलिक और अप्रकाशित
Added by Dr.Prachi Singh on October 1, 2013 at 9:00pm — 54 Comments
गाँव बसे कैसे भला ,करते बंदरबांट !
कम्बल तो देते मगर ,लूट लिये सब खाट !!१
हंस देखता रह गया ,बगुले के सर ताज !
गीदड़ अब राजा बना ,गीदड़ सिंह समाज !!२
आदि अंत सब हैं वही ,उनका ही संसार !
वो मिटटी के तन गढ़े ,कितने कुशल कुम्हार !!३
धन की चंचल चाल का ,फैला है भ्रमजाल !
जो पाते वो भी विकल ,बिन पाए बेहाल !!४
पर पीड़ा दिखती नहीं, ऐसे कैसे लोग!
दीमक जैसा खा रहा ,लालच नामक रोग !!५…
Added by ram shiromani pathak on October 1, 2013 at 8:30pm — 21 Comments
जंगल भागी शेरनी, ख़बर छपी अखबार।
फौरन फोन घुमाइए, नज़र पड़े जो यार।।
नज़र पड़े जो यार, पड़े हम भी चक्कर में,
कर डाला झट फोन, उसी पल चिड़ियाघर में।…
ContinueAdded by Sushil.Joshi on October 1, 2013 at 8:30pm — 24 Comments
लोहा ले तलवार से, तभी कलम की शान
जनता करती याद है, बढे कलम का मान |
बढे कलम का मान, जुल्म पर खुलकर बोले
मसी छोड़ दे छाप, न्यायिक तुला पर तोले
रही धर्म के साथ, उसी ने मन को मोहा
काँपे कभी न हाथ, झूठ से जब ले लोहा||
(मौलिक व अप्रकाशित )
-लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on October 1, 2013 at 8:30pm — 9 Comments
आज बरसो के बाद उधर जा निकला जहाँ कभी मेरे प्यार की आखरी कब्र बनी थी , उस जगह न जाने कहाँ से दो पीले रंग के फूल खिले थे . आँखों से गंगा जमुना बहने लगी ! सब कुछ ऐसे याद आने लगा की जैसे कल ही की बात हो! मन पुरानी यादों में खो गया ! आज बहुत ज्यादा थक कर सोया था ये प्राइवेट स्कूल की नौकरी भी ना स्कूल वाले पैसे तो कुछ देते नहीं बस तेल निकलने पे लगे रहते है! ओ बेटा जल्दी उठा जा आज छुट्टी है तो क्या शाम तक सोयेगा जा उठकर देख दरवाजे पे कौन है माँ घर के दुसरे कोने पे कुछ काम कर रही थी , माँ की आवाज़…
ContinueAdded by डॉ. अनुराग सैनी on October 1, 2013 at 7:30pm — 2 Comments
ओढ़ चुनरिया स्याह सी, उतरी जब ये रात!
गुपचुप सी वह कर रही, धरती से क्या बात!!
तारों का झुरमुट सजा, चाँद खड़ा मुस्काय!
इठलाये जब चाँदनी, मन-उपवन खिल जाय!!
धवल रंग की रोशनी, जगत रही है सींच!…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on October 1, 2013 at 5:46pm — 22 Comments
मुतदारिक मुसद्दस सालिम
212 /212/ 212
जिन्दगी जिन्दगी जिन्दगी ।
बन्दगी तिश्नगी आशिकी ॥
जिन्दगी जिन्दगी जिन्दगी ।…
ContinueAdded by बसंत नेमा on October 1, 2013 at 4:30pm — 16 Comments
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1999
1970
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