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!!! काम अनंग समान हुए !!!

दुर्मिल सवैया ... आठ सगण यथा-
112 112 112 112 112 112 112 112

कलिकाल अकाल समाज ग्रसे, मन आकुल दीप पतंग हुए।
नित मानव दंश करे जग को, रति-काम समान दबंग हुए।।
घर बाहर ताक रहे वन में, जिय चोर उफान करे तन में।
अति हीन मलीन विचार धरे, निज मीत सुप्रीति छले छन में।।1

जग घोर अनर्थ अकारण ही, नित रारि-प्रलाप सहालग है।
कब? कौन? कथा सुविचार करे, अपलच्छन कर्म कुमारग है।।
जब धर्म सुनीति डिगे जग में, अवतार तभी जग तारक हो।
अब मोह नहीं बस छोह सही, जब पूत कपूत विदारक हो।।2

जब आशु नही फिर तोष कहां, धवलेश्वर चन्द्र त्रिशूल लिए।
गल नाग सजे नर मुण्ड भले, मदिराचल का विष पान किए।।
फल फूल लता सहमे-सहमे, वन चन्दन-केसर शेष रहे।
कब क्रोध करें शिव शंकर जी, झट राख करें पल देख रहे।।3

धनुवा पर तीर धरे अति तीव्र, चले अस पुष्प समान लगे।
सर भेद गया हिय शंकर के, अति तेज बयार गुमान ठगे।।
शिव त्रास दिए तब काम जले, रति चीख-विलाप सहाय हुए।
जब शीश झुके शिव के पद में, तब काम अनंग समान हुए।।4

के0पी0सत्यम/मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 5, 2013 at 11:26am


आदरणीय सौरभ सर जी, पूर्व के छन्द  में वांछित संशोधन कर दिया है। यथा-कलिकाल अकाल समाज ग्रसे, मन आकुल दीप पतंग हुए।..जी!  आशा करता हूं कि अब छन्द खारिज नहीं होगा। आपके स्पष्ट विचार की गंभीरता को मान देते हुए। आपका हृदय तल से बहुत बहुत आभार। सादर,


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 4, 2013 at 10:49pm

केवल प्रसादजी, मुझे आपके छंद के पदों का अर्थ समझाने का सादर धन्यवाद. मैं वस्तुतः अनुगृहित हुआ..

कलिकाल अकाल समाज ग्रसे, मन आकुल व्याकुल पतंग* हुए।...
आपकी दुर्मिल सवैया का उपरोक्त पद विधान के अनुसार गलत हैं, जिसे संभवतः हर छंदप्रेमी समझ पा रहा है.

अब क्लियर, आदरणीय ?

मुझे यह कहना था.

यदि आपको आपकी रचनाओं पर विधान के अनुरूप शुद्धता के लिए सुझाव पसंद नहीं तो आगे से ऐसी चर्चा आपकी रचनाओं पर नहीं होंगी.

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 4, 2013 at 8:01pm

आदरणीय सुशील भार्इ जी। आपके स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका हृदयतल से बहुत-बहुत आभार। सादर,

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 4, 2013 at 7:59pm

आदरणीय अखिलेश भार्इ जी। आपके स्नेह और छन्द अनुमोदन हेतु आपका हृदयतल से बहुत-बहुत आभार। सादर,

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 4, 2013 at 7:57pm

आदरणीय सौरभ सर जी।   //मन आकुल दीप पतंग हुए//   सर जी,----/ मन की आकुलता के कारण नन्हा दीप पतंग अर्थात वह स्वयं को सूर्य समझ रहा है।/  पतंग,  सूर्य का पर्यायवाची है। आपके स्नेह और आशीष हेतु आपका हृदयतल से बहुत-बहुत आभार। सादर,

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 4, 2013 at 7:48pm

आपका हार्दिक आभार, आदरणीय अन्नपूर्णा जी। सादर,

Comment by Sushil.Joshi on October 4, 2013 at 7:28am

सुंदर मनोभाव हैं आदरणीय केवल जी.... किंतु शिल्प की दृष्टि से मैं आदरणीय सौरभ जी से सहमत हूँ....

Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on October 3, 2013 at 10:58pm

केवल जी बधाई । अलंकारिक शब्दों का सुंदर प्रयोग , सुंदर भाव ।

मन आकुल व्याकुल पतंग* हुए // मन आकुल व्याकुल  दंग  हुए 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 3, 2013 at 10:13pm

इस सवैया के पहल् दोनों पद ख़ारिज़ हैं. सगण (॥ऽ) की आठ आवृतियों का निर्वहन हुआ ही नहीं है.  जिस कारण यह दुर्मिल सवैया नहीं हो पाया है.

पतंग और दबंग में क्रमशः और द  पर भार न पड़ कर क्रमशः तथा पर पड़ते हैं. इस हिसाब से क्रमवार सगण की स्थिति बनती ही नहीं.

//मन आकुल दीप पतंग हुए'' गजल की तरह छन्द में भी मात्राएं आवश्यकताओ के अनुरूप प्रयोग में लायी जा सकती हैं।  किन्त इससे बचे रहना समझदारी है।// 

इस वाक्य से क्या कहना चाह रहे हैं आप, भाईजी ? मैं कुछ समझा ही नहीं.

मन आकुल दीप पतंग हुए  मॆं व्याकुल  शब्द को हटा कर आपने दीप  कर दिया. दूसरे पद में क्या होगा, भाई ?

अन्य पदों की व्यवस्था सम्यक प्रतीत हो रही है.

शुभेच्छाएँ

Comment by annapurna bajpai on October 3, 2013 at 9:27pm

आदरणीय केवल भाई जी क्या ही सुंदर छन्द रचना की है बहुत बधाई आपको । 

कृपया ध्यान दे...

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