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नौकरी के बाद का जीवन -दीपक पांडेय

अध्येता जब मैं था मुझकों थी रोज़गार की लालसा

दूर हो आर्थिक तंगी मेरी - सुधरे अपनी दशा

उच्य हो सामाजिक स्तर कुछ ऐसा हो अपना नौकरीपेशा

उमंग भरे माहौल में होता नित यारों के साथ जलसा



रोज़गार की आस मे दौड़ा- लगा के पूरा दम

मैने फिर नौकरी के परिवेश मे रखा ज्यों कदम

त्यों बदला परिवेश मेरा- दूर हुआ कुछ भ्रम

कार्यालय ही अपना डेरा, कार्यालय ही आश्रम



पराधीन हुआ अब आधा जीवन ,चली गयी आज़ादी

अपनों से दूर होकर के हो गया गुलामी का आदी

खुशियों की… Continue

Added by DEEPAK PANDEY on October 19, 2013 at 12:46pm — 12 Comments

कविता - सूर्योदय

छा रहा है गगन में कुछ कुछ उजाला

बढ़ रही है पूर्व दिशि की लालिमा

जगमगाते तारे भी फीके पड़े हैं

घट रही है यामिनी की कालिमा

चन्द्रमा निस्तेज होकर जा छुपा है

मंद पड़ती श्वेत किरणों को समेटे

चाहता है पश्चिमी दिव्यांगना के

पास जाकर गोद में कुछ काल लेटे

हाथ थामे दिग्वधू का आ रहे हैं

तिमिर के बैरी प्रभु श्री अंशुमाली

मंद वायु भी लगी है मुस्कुराने

छिप गयी है कही जाकर रात काली

हिमगिरी…

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Added by Praveen Verma 'ViswaS' on October 19, 2013 at 12:20pm — 13 Comments

ग़ज़ल (७) : ख़ुदकुशी अच्छी नहीं होती !

बहुत ज्यादा भी हो, पाकीज़गी, अच्छी नहीं होती 

न करना यार मेरे, ख़ुदकुशी, अच्छी नहीं होती//१ 

.

चलो माना, के जीने के लिए, खुशियाँ जरूरी है 

जरा भी ग़म न हो, ऐसी ख़ुशी, अच्छी नहीं होती//२ 

.

भले ही, आह उट्ठे है !!, दिलों से, वाह उट्ठे है !! 

मगर सुन, आँख की, बेपर्दगी अच्छी नहीं होती//३

.

तजुर्बे का, अलग तासीर है, यारों मुहब्बत में 

हमेशा इश्क़ में, हो ताज़गी, अच्छी…

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Added by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 19, 2013 at 12:19pm — 38 Comments

ग़ज़ल- सारथी || अलग सबसे तबीयत है करें क्या ||

अलग सबसे तबीयत है करें क्या

कि इक बुत से मुहब्बत है करें क्या /१

दुआ में मांगते हैं मौत मेरी

सितमगर की शरारत है करें क्या /२

न कोई आ रहा सुन डुगडुगी अब

मदारी को शिकायत है करें क्या /३

ये आदत छोड़िये जी शाइरी की 

मगर दिल की जरुरत है करें क्या /४

तमाशा देख लो उस नामवर का

लिबासों की इबादत है करें क्या /५

हमें दिल में सनम ने रख लिया है

न मरने की इजाजत है करें क्या /६

अरे अब आसमां मत बांट देना

ज़मीं ने की…

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Added by Saarthi Baidyanath on October 19, 2013 at 12:00pm — 19 Comments

गजल

काँटे हैं किस के पास में किस पे गुलाब है।

जनता के पास आज भी सबका हिसाब है।

.

पढ़कर के जिस किताब को बच्चे बहक गये ,

बोलो र्इमान वालो वो कैसी किताब है।

.

लालो गुहर नही है मेरे पास में मगर ,

जो कुछ भी मेरे पास है वो लाजबाब है।

.

बैठे है करके बंद वो दरवाजे खिड़कियाँ ,

ये सोचकर कि अपना मुकददर खराब है।

.

ये सच है हाथ पाँव में अब जान ही नही ,

जिन्दा लहू में अब भी मेरे इन्कलाब है।

.

अंगार को बुझाइये पानी…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on October 19, 2013 at 11:30am — 8 Comments

नेताओं देश शर्मसार है तुम पर

जवान होते ही हैं

शहीद होने के लिए

और नेता

वह तो शासक है

सोना उनका हक है

जवान जब गोली खा रहा होता है

नेता पार्टी कर रहे होते हैं

जवानों की चिता को

मुखाग्नि भी

राजनीति का अवसर देती है

उन्हें,

शहीदों की

माओं के चाक सीने पर भी

नमक छिड़कने से भी

बाज नही आते

विलाप, क्रंदन भी

अवसर हैं वोट की तिजारत के।

नेताओं

देश शर्मसार है तुम पर।

 



मीना पाठक

 …

Added by Meena Pathak on October 19, 2013 at 8:00am — 29 Comments

कुण्डलियाँ

तेरी कान्हा बांसुरी, छेड़े ऐसी तान

जिसकी धुन में मन रमा, बिसरा सुध-बुध-ध्यान

बिसरा सुध-बुध-ध्यान, मोह के बंधन छूटे

जग माया का जाल, दर्प के दरपन टूटे

हुआ क्लेश का नाश, पीर सब हर ली मेरी

पर ये क्या बैराग? लुभाती है छवि तेरी !!

- बृजेश नीरज 

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by बृजेश नीरज on October 18, 2013 at 11:00pm — 29 Comments

घरों मे वो दादी औ नानी हैं कहाँ अब...........

घरों मे वो दादी औ नानी हैं कहाँ अब

बच्चों के सपनों में राजा-रानी हैं कहाँ अब

उम्र से ज़्यादा , क़द बड़े हो गये हैं उनके

कि बच्चों में बच्चों की निशानी हैं कहाँ अब

बुज़ुर्गों की याद भी आए , तो आए कैसे

घरों में कोई भी चीज़ें पुरानी हैं कहाँ अब

नहीं मिलता है , कृष्ण सा क़िरदार कोई

भला दिखती भी मीरा दीवानी हैं कहाँ अब

घर , छतें , घरोंदें हैं , पंछी भी हैं "अजय"

बर्तन में उनके दानें और पानी हैं कहाँ…

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Added by ajay sharma on October 18, 2013 at 10:30pm — 15 Comments

अब मैं पराभूत नहीं

सांझ ढली

कुछ टूटा ,

भर गयी रिक्तता.

सब मूंद दिया कसकर.

अन्दर बाहर अब है,

एक रस.

घुप्प  अँधियारा.

दिवस का…

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Added by Neeraj Neer on October 18, 2013 at 10:30pm — 10 Comments

.....बेखबर .....

अपने दिल से मेरा सिलसिला जोड़ दे ,
द्वार आखों का अपनी खुला छोड़ दे..
.
ऐसी पागल हवायों की औकात क्या
तू जो चाहे तो तूफाँ का रुख मोड़ दे…
.
राह में रोक लेना तो रुसवाई है
साथ चल या मेरा रास्ता छोड़ दे
.
साफ चाहत का जिसमे न चेहरा दिखे।
दिल ये कहता है वो आइना तोड़ दे ...
.
दुःख में आँखें न आ जाएँ तेरी कहीं
रात भर याद में जागना छोड़ दे…।

मौलिक व् अप्रकाशित

Added by Pankaj Mishra on October 18, 2013 at 9:30pm — 8 Comments

मीठी सी एक मनुहार................

पारदर्शी शीशो पर

लगा दी काली चादर

अब बाहर वाले

नही देख सकते

 भीतर का हाल

ठीक उसी तरह

जैसे तुमने

अपने चेहरे की

अतुलनीय मुस्कराहट से

बंद कर दिए

भीतर के सभी किवाड़

जो आया जितना आया

सब डालती जा रही हो

अब डर सा

लग रहा हैं मुझे

खिडकियों की

काली  चादर

कुरच रही हैं

हवा बाहर  की

ओर मुझे

दिखाई दे रही हैं

एक रौशनी सी

जो सब बहा ले जाएगी

अबकी जो ये कमरा

खाली  हो जाये तो

बंद मत…

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Added by savita agarwal on October 18, 2013 at 9:30pm — 13 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
समय (हरिगीतिका छंद - एक प्रयास )........डॉ० प्राची

हरिगीतिका छंद

हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका (, १२, १९, २६ वीं मात्रा लघु, अंत लघु गुरु) x  

 

ब्रह्माण्ड सदृश विराटतम निःसीम यह विस्तार है

हर कर्म जिसमें घट रहा संतृप्त समयाधार है

सापेक्षता के पार है चिर समय की अवधारणा

सद्चेतना से युक्त मन करता वृहद…

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Added by Dr.Prachi Singh on October 18, 2013 at 9:30pm — 17 Comments

दो दोहे

१.

जोड़ी जुगल निहार मन, प्रेम रस सराबोर|

राधा सुन्दर मानिनी, कान्हा नवल किशोर||

२.

हरे बाँस की बांसुरी, नव नीलोत्पल गात|

रक्त कली से अधर द्वय,दरसत मन न अघात…

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Added by shalini rastogi on October 18, 2013 at 7:30pm — 8 Comments

ग़ज़ल (६) : ज़िंदगी बेचैन करती है !

करूं मै क्या? मेरी आवारगी बेचैन करती है 

बनूँ गर रहनुमा तो, रहबरी बेचैन करती है//१ 

.

समंदर से सटा है घर, मगर लब ख़ुश्क है मेरा 

तेरी जो याद आये, तिश्नगी बेचैन करती है//२ 

.

के अच्छी मौत है, इक बार ही जमकर सताती है 

मुझे दिन-रात, अब ये ज़िंदगी बेचैन करती है//३ 

.

मुहब्बत है मुझे भी, चाँदनी की नूर से लेकिन 

निगाहे-हुस्न तेरी, रौशनी बेचैन करती…

Continue

Added by रामनाथ 'शोधार्थी' on October 18, 2013 at 5:00pm — 20 Comments

ग़ज़ल - अँधेरा चीर दे नश्तर कहाँ है - पूनम शुक्ला

1222. 1222. 122



कहाँ है आज मेरा घर कहाँ है

नहीं मिलती कहीं चादर कहाँ है



नमी है आँख में नींदें उड़ी हैं

नहीं मालूम अब बिस्तर कहाँ है



शगूफे इस तरह मुरझा रहे हैं

खला को नाप दे मिस्तर कहाँ है



छुपाएँ किस तरह अपने बदन को

कहीं मिलता नहीं अस्तर कहाँ है



नहीं ये घर नहीं मेरा तभी वो

अँधेरा चीर दे नश्तर कहाँ है



नदी सी दौड़ती मैं तो चली थी

मुझे रोके जो वो पत्थर कहाँ है



समा जाऊँ कहीं बोलो कहाँ… Continue

Added by Poonam Shukla on October 18, 2013 at 9:37am — 8 Comments

​गजल: रक्खा है तेरे नाम के पन्ने को मोड़ कर//शकील जमशेदपुरी//

बह्र: 221 2121 1221 212

___________________________________



बिखरे हुए गुलाब की पत्ती को जोड़ कर

रक्खा है तेरे नाम के पन्ने को मोड़ कर

शबनम लगा दी फूल ने भवरे की गाल पे

भवरे ने रख दी गुल की कलाई मरोड़ कर

मुड़-मुड़ के जाते वक्त मुझे देख क्यों रही

जब प्यार ही नहीं तो चली जाओ छोड़ कर

उसने कही ये बात तो गम और बढ़ गया

खुश मैं भी अब नहीं हूं तेरे दिल को तोड़ कर

नफरत को इसलिए तू अखरने लगा ‘शकील’…

Continue

Added by शकील समर on October 18, 2013 at 9:00am — 20 Comments

राजनीति (लघु-कथा)

"क्यों..भाई, क्या हुआ ? अतिवृष्टि से चौपट हुयी फसल का, मुआवजा दे रही है न राज्य-सरकार ?" रामभरोस ने बड़ी आशाभरी आवाज से पूछा.

"काकाजी..!! दे तो रही थी, पर विपक्ष के नेताओं ने, अगले महीने चुनाव आता देख, चुनाव-आयोग को शिकायत कर स्टे लगवा दिया.. अब देखो क्या होता है ", नितिन ने बड़ी निराशा से कहा.

"अरे बेटा ! सोच रहे थे, कुछ पैसे मिल जाते तो अगली फसल के लिए खाद पानी का जुगाड़ हो जाता, और दीवाली भी मना लेते...", रामभरोस ने कराहते हुए स्वर में कहा..



      …

Continue

Added by जितेन्द्र पस्टारिया on October 18, 2013 at 12:30am — 25 Comments

किताबें

बड़े जतन से संजोई किताबें 

हार्ड बाउंड किताबें 

पेपरबैक किताबें 

डिमाई और क्राउन साइज़ किताबे 

मोटी किताबें, पतली किताबें 

क्रम से रखी नामी पत्रिकाओं के अंक 

घर में उपेक्षित हो रही हैं अब...

इन किताबों को कोई पलटना नही चाहता 

खोजता हूँ कसबे में पुस्तकालय की संभावनाएं 

समाज के कर्णधारों को बताता हूँ 

स्वस्थ समाज के निर्माण में 

पुस्तकालय की भूमिका के बारे में...

कि किताबें इंसान को अलग करती हैं हैवान से 

कि मेरे पास रखी इन…

Continue

Added by anwar suhail on October 17, 2013 at 9:30pm — 11 Comments

मैडम

यह रचना मात्र हास्य के लिए लिखी गई है। इसका किसी भी व्यक्ति विशेष या जाति विशेष से कोई सरोकार नहीं है। कृपया इसे अन्यथा न लेकर मात्र एक हास्य के रूप में स्वीकार कर अपने आशीर्वाद से अनुग्रहित करें। सादर.....

मैडम

चौबे जी का मामला, लगता डाँवाडोल।

सिर से तो फुटबॉल है, और पेट है ढोल।।…

Continue

Added by Sushil.Joshi on October 17, 2013 at 8:30pm — 24 Comments

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