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सदस्य कार्यकारिणी
वो तन को ढांकते हैं रोशनी से , ( गज़ल ) गिरिराज भन्डारी

1222  1222  122

 

वो तन को ढाँकते हैं रोशनी से

बचा तू ही ख़ुदा इस बेबसी से

बनावट से ज़रा सा दूर रहना  

मै कहना चाहता हूँ , सादगी से

नज़र में मुस्कुराहट, होठ चुप हैं

न जाने कह रहे हैं…

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Added by गिरिराज भंडारी on February 1, 2014 at 6:00pm — 38 Comments

छप्पय छंद

छप्पय छंद (रोला+उल्लाला)

हिन्दी अपने देश, बने अब जन जन भाषा ।
टूटे सीमा रेख, हमारी हो अभिलाषा ।।
कंठ मधुर हो गीत, जयतु जय जय जय हिन्दी ।
निज भाषा के साथ, खिले अब माथे बिन्दी ।।
भाषा बोली भिन्न है, भले हमारे प्रांत में ।
हिन्दी हम को जोड़ती, भाषा भाषा भ्रांत में ।।
--------------------------
मौलिक अप्रकाशित

Added by रमेश कुमार चौहान on February 1, 2014 at 4:07pm — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
चंद यादें ग़ज़ल बन किताबों में हैं

212  212  212  212

चंद यादें ग़ज़ल बन किताबों में हैं

हसरतें तेरी ही इन निगाहों में हैं

 

कुर्बतें वो तबस्सुम तेरी शोखियाँ

बस यही साअतें मेरी यादों में हैं

 

अपने आँचल से तूने हवा दी जिन्हें

वो शरारे हरिक सिम्त राहों में हैं

 

जो सिवा अपने सोचें किसी और की

अज़्मतें इतनी क्या हुक्मरानों में हैं

 

कुछ खबर ले कोई आके इनकी ज़रा

कितनी बेचैनियाँ ग़म के मारों में हैं

 

साअत= क्षण,…

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Added by शिज्जु "शकूर" on February 1, 2014 at 3:45pm — 30 Comments

जीवन की क्षणमंगुरता

मैं

तन्हा, खामोश बैठी,

एक दिन

निहार रही थी

अपना ही प्रतिबिम्ब

खूबसूरत झील में,

कई पक्षी

क्रीड़ा कर रहे थे

नावों में बैठे

कई जोडे़

अठखेलियाँ करती

सर्द हवा को

गर्मी दे रहे थे

झील के किनारे खडे़

ऊँचे-ऊँचे दरख्त

भी हिल रहे थे,

गले मिल रहे थे

तभी एंक चील ने

अचानक तेजी से

गोता लगाया

किनारे आई मछली को

मुँह मे दबा

जीवन क्षणमंगुर है

यह एहसास…

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Added by mohinichordia on February 1, 2014 at 12:02pm — 10 Comments

पांच दोहे – लक्ष्मण लडीवाला

हम है क्या कुछ भी नहीं, ईश अंश ही सार,

मन के भीतर रोंप दे, सद आचार विचार |

 

त्याग और सहयोग का, जिसके दिल में वास

माली जैसा भाव हो, उस पर ही विश्वास |

 

समय नहीं करुणा नहीं, बाते करते व्यर्थ,

भाव बिना सहयोग के, साथी का क्या अर्थ |

 

समीकरण बैठा सके, बहिर्मुखी वाचाल,

संख्या उनके मित्र की, होती बहुत विशाल |

 

घंटों उठते बैठते, कछु न मदद की आस,

समय गुजारे व्यर्थ में, दोस्त नहीं वे ख़ास…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 1, 2014 at 11:00am — 29 Comments

चोका

चारू चरण

चारण बनकर

श्रृंगार रस

छेड़ती पद चाप

नुुपूर बोल

वह लाजवंती है

संदेश देती

पैर की लाली

पथ चिन्ह गढ़ती

उन्मुक्त ध्वनि

कमरबंध बोले

लचके होले

होले सुघ्घड़ चाल

रति लजावे

चुड़ी कंगन हाथ,

हथेली लाली

मेहंदी मुखरित

स्वर्ण माणिक

ग्रीवा करे चुम्बन

धड़की छाती

झुमती बाला कान

उभरी लट

मांगमोती ललाट

भौहे मध्य टिकली

झपकती पलके

नथुली नाक

हंसी उभरे गाल

ओष्‍ठ…

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Added by रमेश कुमार चौहान on February 1, 2014 at 9:44am — 8 Comments

तरही ग़ज़ल -वंदना

सभी विद्वजनों से इस्लाह के लिए -

वज्न 2122   /   2122   /   2122   /   212  (2121)

कोई तुझसा होगा भी क्या इस जहाँ में कारसाज

डर कबूतर को सिखाने रच दिए हैं तूने बाज

 

तीरगी के करते सौदे छुपछुपा जो रात - दिन

कर रहे हैं वो दिखावा ढूँढते फिरते सिराज

 

ज्यादती पाले की सह लें तो बिफर जाती है धूप

कर्ज पहले से ही सिर था और गिर पड़ती है गाज

   

जो ज़मीं से जुड़ के रहना मानते हैं फ़र्ज़-ए-जाँ

वो ही काँधे को झुकाए बन…

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Added by vandana on February 1, 2014 at 7:30am — 25 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
जीवन भर की मेहनत// डॉ० प्राची

विश्व विख्यात शोध संस्थान के पूर्व निदेशक प्रो० सुब्रह्मण्यम को रिटायरमेंट के बाद एकाकी जीवन जीते 15 साल हो चले थे. अनेक एवार्ड, शोध पत्र, सम्मान-पत्र, पुस्तकें यही कुछ उनकी जीवन भर की पूंजी थी. जब भी कोई शोध संस्थान किसी व्याख्यान के लिए आग्रह करता तो बहुत उत्साह से वैज्ञानिकों को दिशा निर्देशन देने के लिए अवश्य ही जाते थे.

ऐसे ही एक व्याख्यान में देश के कोने-कोने से आये चुनिन्दा युवा शोधार्थियों को संबोधित करते हुए व्याख्यान के बीच में अचानक एक दुर्लभ सी पुस्तक के बारे में…

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Added by Dr.Prachi Singh on February 1, 2014 at 12:00am — 18 Comments

श्रवण कुमार ( लघु कथा )

श्रवण कुमार

“आप बड़ी खुशकिस्मत हो भाभी जो आपको इतना हीरे जैसा बेटा दिया भगवान ने । आपकी हर बात मानता है आपका कितना सम्मान करता है, कोई बुरी लत नहीं , कोई गलत रास्ता नहीं, वरना आजकल की औलादें तो बस पूछो ही मत ।“ एक ठंडी सी आह भर कर कामिनी देवी ने अपनी भाभी से कहा । “ हाँ कामिनी तू सच कह रही है, आज कल कहाँ बच्चे बूढ़े माँ बाप की चिंता करते है सच मै बड़ी भाग्यशाली हूँ जो हीरे जैसा बेटा है मेरा , एकदम श्रवण कुमार। “ शीला जी ने अपनी ननद की बात का समर्थन किया ।

आज शीला जी का शव आँगन के…

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Added by annapurna bajpai on February 1, 2014 at 12:00am — 13 Comments

क्षणिकाएं -- शशि पुरवार

क्षणिकाएं --



प्रतिभा --

नहीं रोक सके,

काले बादल

उगते सूरज की किरणें।



सपने --

तपते हुए रेगिस्तान

की बालू में चमकता हुआ

पानी का स्त्रोत, औ

जीने की प्यास.



आशा -

पतझड़ के मौसम में

बसंत के आगमन का

सन्देश देती है,

कोमल प्रस्फुटित पत्तियां।



संस्कार -

रोपे हुए वृक्ष में

मिलायी गयी खाद,

औ खिले हुए पुष्प।



पीढ़ी -

बीत गयी सदियाँ

नही मिट सकी…

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Added by shashi purwar on January 31, 2014 at 10:00pm — 11 Comments

गजल - बदनाम (अखंड गहमरी)

2122  2122   2122   2122

 

इस जमाने में हमे तुमकेा बुलाना भी नहीं हैं

तड़पते ही रहे मगर जख्‍म दिखाना भी नहीं है

चाँद छुप छुप जा रहा क्‍यों बादलो के संग देखो

राज की ये बात बेवफा को बताना भी नहीं है

दर्द ही हमको मिला जो दिल लगाया था किसी से

जख्‍म जो दिल पर लगे  उन्‍हे दिखाना भी नहीं है

आई फिर ना वो बहारे जो चली इस बार गई पर

दर्द फूलो का बहारो को बताना भी नहीं है

नाम भी बदनाम उसका प्‍यार में ना…

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Added by Akhand Gahmari on January 31, 2014 at 8:00pm — 11 Comments

जब जब तुम्हे सोचती हूँ

जब जब तुम्हें सोचती हूँ

मेरे ख्वाब खिल उठते हैं

सोचती हूँ रंग बिरंगी दुनिया

अपना सजीव होना|

जब जब तुमसे मिलती हूँ

बागों में फूलों का

बेमौसम खिलना होता है

पक्षी चहचहाने लगते हैं

नदिया में सागर में

जीवन बहने लगता है

तब सब से मिलती हूँ

उल्लास से|

जब जब तुमसे मिलती हूँ

जिन्दगी छलकती है

मेरी आँखों से

मेरे हाथ महकते हैं

मेंहदी के रंग से

तब मिलती हूँ जिन्दगी से

तब मैं मिलती हूँ

अपने आप…

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Added by Sarita Bhatia on January 31, 2014 at 5:04pm — 17 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
पाँच दोहे : आज के मन-भाव // --सौरभ

मन के सुख-दुख, पीर भी, कैसे पायें भाव

टिप-टिप अक्षर आज के, टेक्स्ट हुए बर्ताव       



चिट्ठी से तब भाव मन, होता था अभिव्यक्त

दिल के आँसू वाक्य थे, शब्द-शब्द थे रक्त



वह भी अद्भुत दौर था, यह भी अद्भुत दौर

अब’ कार्डों से भाव सब, ’तब’ अमराई…

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Added by Saurabh Pandey on January 31, 2014 at 4:30pm — 32 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
ज्यों प्रसून जल-जन्य ( दोहावली) //डॉ० प्राची

नत-मस्तक वंदन करूँ, हे प्रभु! प्राणाधार

तमस क्षरण कर ज्ञान का, प्रभु कीजै विस्तार

कर्म रती या रिक्त मन, हो सुमिरन अविराम 

क्षणिक न विस्मृत उर करे, प्रभु तव शुचिकर नाम 

नयन मूँद - अन्तः रमे, दर्शन - तव विस्तार 

झंकृत वीणा तार पर, श्रव्य मधुर मल्हार 

क्षणभंगुर जग बंध से, मुक्त रहे चैतन्य 

नित्य पंक अस्पृष्ट है, ज्यों प्रसून जल-जन्य

प्राप्य प्रयोजन पूर्ण कर, हो विदीर्ण स्वयमेव 

विरह मिलन भव मुक्त उर,…

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Added by Dr.Prachi Singh on January 31, 2014 at 2:30pm — 18 Comments

अब तो प्रभु दर्शन दे दो ......

तरसे दरशन को ये नैना

थकी राह निहार दिन रैना,

तुम बिन इक पल मिले न चैना

अब तो प्रभु दर्शन दे दो

बीती जाये उमरिया ||



हृदय दीप सांसों की बाती

ज्योति जलाय निहारूँ झाँकी

असुअन पुष्प चढ़े दिन राती

अब तो प्रभु दर्शन दे दो

बीती जाये उमरिया ||



प्रीत तेरी रम गई ऐसी

सुधि न रही अब तन,मन,धन की

लाज शरम तजि हुई बावरिया ||

अब तो प्रभु दर्शन दे दो

बीती जाये उमरिया ||



टेर-टेर विकल भई काया …

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Added by Meena Pathak on January 31, 2014 at 2:30pm — 20 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
तरही ग़ज़ल... क्यों लगे शह्र जैसे खजाना हुआ -- "राज “

212    212    212    212

गाँव से दूर जब से ठिकाना हुआ

बंदिशे काम उसका बहाना हुआ

 

आस में मुन्तज़िर आँखें दर पे टिकी

उसकी सूरत  को देखे ज़माना हुआ

 

गोद में खेल जिसकी पला था कभी

गाँव वो आज कैसे बेगाना  हुआ

 

जानते हैं सभी कबसे बदली नजर

जब से गैरों के घर आना जाना हुआ

 

जो झुलाता तुझे प्यार से डाल पर

वो शज़र देख कितना पुराना हुआ

 

गाँव में क्या नहीं था तेरे वास्ते

क्यों…

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Added by rajesh kumari on January 31, 2014 at 11:30am — 30 Comments

गज़ल... बागों बुलाती है सुबह (कल्पना रामानी)

रात पर जय प्राप्त कर जब जगमगाती है सुबह।

किस तरह हारा अँधेरा, कह सुनाती है सुबह।

 

त्याग बिस्तर, नित्य तत्पर, एक नव ऊर्जा लिए,

लुत्फ लेने भोर का, बागों बुलाती है सुबह।   

 

कालिमा को काटकर, आह्वान करती सूर्य का,

बाद बढ़कर, कर्म-पथ पर, दिन बिताती है सुबह।

 

बन कभी तितली, कभी चिड़िया, चमन में डोलती,

लॉन हरियल पर विचरती, गुनगुनाती है सुबह।

 

फूल कलियाँ मुग्ध-मन, रहते सजग सत्कार को,

क्यारियों फुलवारियों को,…

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Added by कल्पना रामानी on January 31, 2014 at 10:30am — 28 Comments

तान्या : तुम बिन

दरवाज़ा तो मैंने ही खुला छोड़ा था 

कि तुम भीतर आओगे

और बंद कर दोगे /

मगर

खुले दरवाज़े से आते रहे

सर्द हवाओं के झोंके

और ठिठुरता रहा मैं /

चेतनाशून्य होने ही वाला था कि

किसी ने

भीतर आ के

दरवाज़ा बंद कर लिया /

अधमुंदी आँखों से मैंने देखा

वो तुम नहीं थे /

मगर वो गर्मी कितनी सुखद थी /

और फिर

ना जाने कैसे

कब से

पेड़ कि फुनगी पर

बैठा चाँद

चुपके से उतर कर

मेरी आँखों में…

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Added by ARVIND BHATNAGAR on January 30, 2014 at 8:30pm — 14 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आँखों देखी 11 - रोमांचक 58 घंटे

आँखों देखी 11 -  रोमांचक 58 घंटे

 

        मैंने आँखों देखी 9 में ऑक्टोबर क्रांति से जुड़े कार्यक्रम में भाग लेने के लिए रूसी निमंत्रण की ओर इशारा किया था. फिर, हम लोगों के समुद्र के ऊपर पैदल चलने की बात याद आ गयी. सो, पिछली कड़ी (आँखों देखी 10) में रूसी निमंत्रण की बात अनकही ही रह गयी थी. आज मैं आपको वही किस्सा सुनाने जा रहा हूँ.

        हमारे स्टेशन में उनके एक सदस्य की शल्य चिकित्सा के बाद रूसी कुछ विशेष…

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Added by sharadindu mukerji on January 30, 2014 at 8:00pm — 11 Comments

अर्थ ढूँढ़ते ठौर नया

खण्ड-खण्ड सब शब्द हुए

अर्थ ढूँढ़ते ठौर नया

 

बोध-मर्म रहा अछूता  

द्वार-बंद ज्ञान-गेह का

ओस चाटती भावदशा 

छूछा है कलश नेह का

 

मन में पतझड़ आन बसा

अब बसंत का दौर गया 

 

विकृत रूप धारे अक्षर

शूल सरीखे चुभते हैं

रेह जमे मंतव्यों पर

बस बबूल ही उगते हैं

 

संवेदन के निर्जन में  

नहीं दिखे अब बौर नया

-        बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by बृजेश नीरज on January 30, 2014 at 7:55pm — 25 Comments

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