चौपई छन्द = प्रसंग,,श्री रामचरित मानस ( पुष्प-वाटिका )
शिल्प = प्रत्यॆक चरण मॆं १५ मात्रायॆं तुकान्त गुरु+लघु कॆ साथ,
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भॊर भयॆ प्रभु लक्ष्मण संग !! उड़त गगन महुँ विविध विहंग !!
कहुँ कहुँ भ्रमर करहिँ गुँन्जार !! नाचहिँ कहुँ कहुँ झूमि पुछार !!
मन्द पवन सुचि शीत बयार !! मानहुँ गावत मंगलचार !!
लॆन प्रसून गयॆ फ़ुलवारि !! बंधु लखन सँग राम खरारि !!
पहुँचॆ पुष्प-वाटिका जाइ !! स्वागत करत सुमन मुस्काइ !!…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on January 3, 2014 at 7:30pm — 28 Comments
दीवाने भी अज़ब हैं वो जो महफ़िल लूट लेते हैं ।
के सिर कदमों में रखते हैं और दिल लूट लेते हैं ।
कि जिन लहरों के तूफानों ने लूटी कश्तियाँ लाखों ,
उन्हीं लहरों के आवेगों को साहिल लूट लेते हैं ।
शाख से टूटकर अपनी बिखर जाते हैं जो तिनके ,
बनाने को घरौंदे उनको हारिल लूट लेते हैं ।
अदब तो दोस्ती का है पर अदायें दुश्मनों सी हैं ,
के हमारा चैन उनके नैन कातिल लूट लेते हैं ।
मोहब्बत करने वालों का ख़ुशी से वास्ता क्या है…
ContinueAdded by Neeraj Nishchal on January 3, 2014 at 4:30pm — 19 Comments
जब रातें होंगी अधूरी सी ,
न बातें होंगी पूरी सी ,
न हाथों में हाथ होगा ,
न तेरा मेरा साथ होगा ,
क्या ऐसा भी कोई मंज़र होगा ?
याद में तेरी आँखों से आँसु छलक जाते ,
अब हम हर सपनों में बस तुझे ही पाते ,
इस वीराने में भी जन्नत सा मज़ा आता ,
अगर हम एक दूसरे के हो जाते।
क्या ऐसा भी कोई मंज़र होगा ?
सुलघति हुई गलियों में होगा चलना ,
काँटों भरी राहों में होगा मिलना ,
बस प्यार तेरा पाना ही होगी मेरी मंज़िल ,
मेरे…
Added by M Vijish kumar on January 3, 2014 at 2:00pm — 11 Comments
मेरे खोये हुये लम्हात के ग़म को,
हकीकत के सीने में दफ़्न,
कुछ इच्छाओं की
उन धुँधली यादों को,
मेरे सपनों की लाशों को,
अब तक ढो रहा हूँ मैं…
कई दफे
ज़िन्दगी करीब से गुज़री,
मगर,
मैं ही जी न पाया..
आज मुझे लगता है
मैंने बहुत कुछ खो दिया,
पहले जो खोया है..
उसे याद कर,
और फिर,
उन्हीं यादों में खोकर,
एक लम्बा सफर तय किया,
मगर,
आज मुझे लगा
कि मैं…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on January 3, 2014 at 11:07am — 38 Comments
राजनीति की शतरंज में
पैदल बिल्कुल सीधा चलता है
किंतु उसे केवल तिरछा मारने का अधिकार होता है
पैदल को रोकने के लिए उसके सामने एक पैदल लगा देना काफ़ी होता है
इसलिये पैदल संख्या में सबसे ज्यादा होते हुये भी
सबसे कमजोर मोहरा माना जाता है
कोई पैदल अगर बचते बचाते विपक्षी के घर में घुस जाय
और सारे राज जान ले
तो उसे फौरन मार दिया जाता है
या फिर वो जो बनना चाहे बना दिया जाता है
ऊँट बेचारा जो वास्तव में हमेशा सीधा…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 2, 2014 at 9:22pm — 17 Comments
जब से उनका यहाँ आना जाना हुआ
दिल हमारा भी उनका दिवाना हुआ /
साथ तेरे का जो छूट जाना हुआ
तब से सबका यहाँ आना जाना हुआ /
माँग तेरी भरूं आ सितारों से मैं
ऐसा कह जो गया फिर न आना हुआ /
माँग सूनी हुई जो सितारों भरी
माथे की बिंदी छिनना बहाना हुआ /
राहतें अब कहाँ चैन दिल को कहाँ
मत कुरेदो जख्म ये पुराना हुआ /
याद आती रही रात भर थी मुझे
भूल वो अब गया इक जमाना हुआ /
उसके आने की टूटी है…
Added by Sarita Bhatia on January 2, 2014 at 7:30pm — 20 Comments
नदी मर गयी,
बहुत तड़पने के बाद.
घाव मवादी था.
आती है अब महक.
अब शहर में गिद्ध नहीं आते.
कुत्ते लगाते हैं दौड़
उसकी मृत देह पर
फिर भाग खड़े होते हैं.
नदी जवान थी, खूबसूरत.
वह थी चिर यौवना.
भर देती थी जीवन से.
खेलती थी , करती थी अठखेलियाँ,
छूकर कभी इस किनारे को
कभी उस किनारे को.
उछालती जल, करती कल्लोल,
भिंगोती तट के पीपल को.
पुरबाई में पीपल का पेड़
झूम कर करता था…
ContinueAdded by Neeraj Neer on January 2, 2014 at 6:01pm — 24 Comments
ग़ज़ल
फाइलातुन फइलातुन फैलुन \ फइलुन
२१२२ ११२२ २२ \ ११२
वर्ना अन्जान शहर लगता है
माँ जो होती है तो घर लगता है |
दौर कैसा है नई नस्लों का,
वक़्त से पहले ही पर लगता है |
है इधर रंग बदलती दुनिया,
मैं चला जाऊं उधर लगता है |
जाने किस दर्द से गुज़रा होगा ,
शेर जज़्बात से तर लगता है |
इस ऊंचाई से न देखो मुझको ,
दूर से सौ भी सिफर लगता है |
इन चटख फूलों में मकरंद नहीं ,
ये दवाओं का असर लगता है |…
Added by Abhinav Arun on January 2, 2014 at 4:30pm — 40 Comments
नये वर्ष से है ,हम सबको
उम्मीदें कुछ खास
आँगन के बूढ़े बरगद की
झुकी हरिक डाली
मौसम घर का बदल गया ,
फिर
विवश हुआ माली
ठिठुर रहे है सर्द हवा में
भीगे से अहसास
दरक गये दरवाजे घर के
आंधी थी आयी
तिनका तिनका भी उजड़ गया
बेसुध है माई
जतन कर रही बूढी साँसे
आये कोई पास
चूँ चूँ करती नन्हीं चिड़िया
नयी जगह घबराय
दुनियाँ उसकी बदल गयी है
कौन उसे समझाय
ऊँची ऊँची अटारियों पे…
Added by shashi purwar on January 2, 2014 at 1:30pm — 17 Comments
शिव-मंगल (खण्ड-काव्य) सॆ मंगलाचरण कॆ कुछ छन्द
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शिल्प विधान = सात भगण + दॊ गुरु वर्णॊं सहित प्रत्यॆक चरण मॆं कुल २३ वर्ण,,,,,,,,,
मत्तगयंद सवैया छन्द (१)
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पूजत है प्रथमॆ जग जाकहुँ, कीर्ति त्रिलॊकहुँ छाइ रही है !!
सुण्ड-त्रिपुण्ड लुभाइ रही अति,कंठहिं माल सुहाइ रही है !!
रिद्धि बसै दहिनॆ अरु बामहिँ,सिद्धि खड़ी मुसकाइ रही है !!
हॆ इक दन्त कृपा करियॊ अब, मॊरि मती बउराइ रही है…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on January 2, 2014 at 12:30pm — 11 Comments
Added by AVINASH S BAGDE on January 2, 2014 at 10:30am — 26 Comments
१ )
लाता एक नया रंग सा,
कुछ अलग एक नया ढंग सा,
कभी नशा सा, कभी मदहोशी सी,
मेरी ज़ुबान पे कभी ख़ामोशी सी।
प्यार ....... बस तेरा प्यार .......
२)
आस दिलाई फिरसे कसमों ने वादों…
Added by M Vijish kumar on January 2, 2014 at 8:30am — 9 Comments
सभी सम्माननीय पाठकवृंदों को नववर्ष कि शुभकामनाओं सहित
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1222 / 1221 / 1212 / 1222
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सुबह उसकी महक लेकर , हवा मेला सजाती है,
उदासी जुल्फ से उसकी , चुरा के शाम लाती है
वो जब काँपती अंगुली , मेरी लट में फिराती है
यादे बूढ़ी माई की , वो फिर से मन जगाती है
पहुचता हूँ जो उस तक मैं , गुजरती साँझ बेला को
वो दिन भर की कथा…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 2, 2014 at 8:00am — 6 Comments
मंच पर सभी विद्वजनों से इस्लाह के लिए
२१२२ १२१२ २२१
पैरवी मेरी कर न पाई चोट
पास रहकर रही पराई चोट
फलसफे अनगिनत सिखा ही देगी
असल में करती रहनुमाई चोट
महके चन्दन पिसे भी सिल पर तो
रोता कब है कि मैनें खाई चोट
सब्र का ही तो मिला सिला हमको
सहते रहकर मिली सवाई चोट
तन्हा ढ़ोता है दर्द हर इंसां
क्यूँ तू रिश्ते बढ़ा न पाई चोट…
ContinueAdded by vandana on January 2, 2014 at 8:00am — 22 Comments
गुस्ताख निगाहें भी पहली नज़र में फिसल गई ,
जी भर के देख भी न पाया ,
इसमें मेरा क्या कसूर था।
नादान दिल के कदम भी लड़खड़ाते-लड़खड़ाते संभल गए ,
दूरी मै तय न कर पाया ,
इसमें राहों का क्या कसूर था।
चंद लम्हा भी तेरे बिन रेह न सका, तेरे प्यार में इतना मजबूर हुआ ,
वक़्त ने हरकत ऐसी ली,
इसमें मेरा क्या कसूर था।
रूबरू हुआ जब तुझसे मै, मुझपे सवार तेरा फितूर हुआ ,
ज़ोर किसी का कहाँ चलता है ,
इसमें दिल का…
Added by M Vijish kumar on January 1, 2014 at 8:30pm — 12 Comments
उत्थान पतन के बीच साल फिर बीत गया,
बस आशा और निराशा के संग बीत गया।
कुछ दु:ख मिले कुछ आहत मन उल्लसित हुआ,
वह सुख मिले बस इंतजार में बीत गया।
नव वर्ष किरण फिर आशा की लेकर आया,
जनगण मन के मन-मन में फिर उल्लास जगा।
यह जगा रहे उल्लास पूर्ण हो अभिलाषा,
जनता की भाषा बने तंत्र की परिभाषा।
अपराध न हो, हर नारी को सम्मान मिले,
हर मुरझाए…
Added by Atul Chandra Awsathi *अतुल* on January 1, 2014 at 8:09pm — 7 Comments
ग़ज़ल
बहर-।।ऽ।ऽ ।।ऽ।ऽ (प्रथम प्रयास)
..
कभी चाँदनी सी खिला करे,
कभी धूप बन के सजा करे।
..
सभी चाहतों से हों देखते,
तू नज़र-नज़र में बसा करे।
..
कोई ख़्वाब में हो सँवारता,
कोई राहतों की हवा करे।
..
जहाँ लड़खड़ाएँ क़दम वहीं,
कोई हाथ बढ़ के वफ़ा करे।
..
रहें मंज़िलें तेरे सामने,
हो कठिन डगर तो हुआ करे।
..
जिसे देखता हूँ मैं ख़्वाब में,
वही शख़्स तुझमें मिला करे।
..
मेरा फ़न रहे,तेरी सादगी,
मेरी हर…
Added by Ravi Prakash on January 1, 2014 at 6:00pm — 12 Comments
नई सुबह के स्वागत् में, हम वंदनवार लगायें।
रंग बिरंगे फूलों से, घर आंगन द्वार सजायें॥
नये वर्ष के अभिनंदन में, गीत नया हम गायें।
मंगल की सब करें कामना, मिलकर जश्न मनायें॥
फूल खिले हैं, बगिया महकी , हैं भँवरे मंडराये।
भ्रमर सरीखे हम भी झूमे , गुंजन करते जायें ॥
कुहू -कुहू जब कोयल कूके, चहुँदिश मस्ती छाये।
हम भी ऐसी बोली बोलें , मन सबका…
ContinueAdded by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on January 1, 2014 at 12:30pm — 28 Comments
॥ नये साल की पहली ग़ज़ल मेरे भगवान को समर्पित ॥
ॐ श्री साई नाथाय नमः
11212 11212
मेरी शायरी का असर है तू
मेरी ज़िन्दगी का हुनर है तू
मै हूँ एक बुझती सी आग बस
मुझे फिर जला दे ,…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 1, 2014 at 8:30am — 35 Comments
आँखों देखी 8 - दक्षिण गंगोत्री में सांस्कृतिक उत्सव
शीतकालीन अंटार्कटिका के विविध रंग हमें दिख रहे थे और हम उनमें डूबते जा रहे थे. लेकिन, जैसा कि मैंने पहले कहीं कहा है, देश और परिवार से इतनी दूर रहकर अवर्णनीय कठिन परिस्थितियों का सामना करना इतना आसान नहीं था. अंटार्कटिका के इतिहास में कई ऐसे उदाहरण हैं जिनसे पता चलता है कि ऐसी विषम परिस्थितियों में रहकर अभियान दल के सदस्यों में शारीरिक समस्याओं के साथ ही मानसिक समस्याएँ भी उत्पन्न…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on January 1, 2014 at 3:43am — 5 Comments
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