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All Blog Posts (19,126)

यह दिल

दिल बड़ी अजीब शय है


खुश हो तो
बहकता है
चहकता है
महकता है
उछलता है
मचलता है


टूटता है तो


हो जाता बेदर्द
देता इंतहा दर्द
कर देता सर्द
खो जाता चैन
कर देता बेचैन
हर दिन हर रैन
.......................

मौलिक व् अप्रकाशित 

Added by Sarita Bhatia on January 30, 2014 at 6:02pm — 15 Comments

तीन और दोहे -- ( अन्नपूर्णा बाजपेई )

1)  बंधन बांधो नेह का पुनि पुनि जतन लगाय । 

     चुन चुन मीत बनाइये खोटे जन बिलगाय ॥ 

2) प्रेम कुटुम्ब समाइए सागर नदी समाय ।

    ज्यों पंछी आकाश मे स्वतंत्र उड़ता जाय ॥ 

3) धोखा झूठ फरेब औ फैला भ्रष्टाचार । 

    फैली शासनहीनता  है पसरा व्यभिचार ॥ 

संशोधित 

अप्रकाशित एवं मौलिक 

Added by annapurna bajpai on January 30, 2014 at 1:30pm — 11 Comments

तेरी कुएँ सी प्यास

तेरी कुएँ सी प्यास

तेरी अघोरी भूख

भिखारन, तू नित्य मेरे आँगन में आती

एक धमकी

एक चुनौती

तेरे आशीष में होती

घबराकर मैं तेरी तृष्णा पालती.

तू मेरी धर्मभीरूता को खूब पहचानती

और, मेरी सहिष्णुता का गलत मतलब निकालती.

‘’दे अपना हाथ तुझे उबार दूँ.’’

तूने तड़प कर दुहाई दी

अपने कुनबे की.

भिखारन! तेरे कितने नाज़

तेरे कुकुरमुत्ते से उगते परिवार

गोंद से चिपके तेरे रीति रिवाज़

छोड़ अब माँगने की परम्परा.

काम कर, कुछ काम कर…

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Added by coontee mukerji on January 29, 2014 at 5:00pm — 18 Comments

तीन दोहे (अन्नपूर्णा बाजपेई)

क्षण भंगुर जीवन हुआ, जीवन का क्या मोल ।

भज लो तुम भगवान को, क्यों रहे विष घोल ।। 

बंद पड़ी सब  खिड़कियाँ, चाहे तो लो खोल ।

खुले हुये अंबर तले, कर लो अब किल्लोल ॥ 

* भामा माया मोहिनी, मोहति रूप अनेक ।

   माया माला भरमनी, फंसत नाहीं नेक ॥

*इस दोहे को इस तरह भी देखें :- 

ऐसी माया मोहिनी मोहती  रूप अनेक ।

केवल माला फेर के कोई न बनता नेक ॥ 

संशोधित 

अप्रकाशित एवं मौलिक

Added by annapurna bajpai on January 28, 2014 at 11:00pm — 21 Comments

वक्त की आंधी में ....

वक्त की आंधी में ....

कुछ तुमने बढ़ा ली दूरियां
कुछ हम मज़बूर हो गए
अपने अपने दायरों में
इक दूजे से दूर हो गये
चंद लम्हों की मुलाक़ात में
जन्मों के वादे कर लिए
चंद कदम चल भी न पाये
और रास्ते कहीं खो गये
वक्त की आंधी में सारे
स्वप्न गर्द में खो गये
कर न पाये शिकवा कोई
हम दो किनारे हो गये

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on January 28, 2014 at 5:00pm — 24 Comments

हसीन सपने कभी घर भी जला देते हैं

ल ला ल ला      ला ल ला ला   ल ल ला ला   ला ला 

शबाब फूलों का शबनम में मिला देते हैं 

शराब यूं ही हसी रोज बना देते हैं

दुआएं करते हैं हम जब भी अमन की खातिर

कबूतरों को भी हाथों से उड़ा देते हैं 

कभी जो आया हमें याद सुहाना बचपन

हँसी घरोंदा ही बालू पे बना देते हैं 

हुए न जब भी चरागा हैं मयस्सर हमको 

चरागे दिल को यूं ही रोज जला देते हैं 

समझ रहे हैं फकीरों को भिखारी या रब 

फ़कीर खुद ही…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on January 28, 2014 at 1:00pm — 24 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
जीवन में कितने चक्रव्यूह

जीवन में कितने चक्रव्यूह

पर घबराना कैसा  

पग-पग मिले सघन अरण्य

खूंखार  एक  सिंह अदम्य

तुझे मिटाने  की खातिर

खेले  दांव  बहु  जघन्य

अहो  प्रतिद्वंदी  ऐसा

पर घबराना कैसा   

 

करके तराश  दन्त नक्श

जाना तू उसके समक्ष

नेस्तनाबूत करने को   

उसी हुनर में होना दक्ष

कर वार उसी पर वैसा  

पर घबराना कैसा 

शत्रु  हावी हो या पस्त

तू विजयी हो या परास्त

होंसलों की डोरी पकड़…

Continue

Added by rajesh kumari on January 28, 2014 at 12:20pm — 22 Comments

गज़ल (धूप पर बादलो का पहरा लगा हुआ है)

धूप पर बादलो का पहरा लगा हुआ है

उदासी का सबब और भी गहरा हुआ है

 

तूफ़ा से कह दो थोडा संभल कर चले

वक्त आज यहाँ कुछ बदला हुआ है

 

दुनिया का कैसा ये बाजार सजा है

जहाँ देखो हर रिश्ता बिका हुआ है

 

रात भर लिखती रही दर्द की दास्ता

रात का साया और भी गहरा हुआ है

 

देश की हालात मत पूछो तो अच्छा है

यहाँ हर इंसान इंसान से डरा हुआ है

 

देख कर खुशनुमा ये मंज़र हैरान हूँ मैं

एक फूल से सारा चमन…

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Added by Maheshwari Kaneri on January 28, 2014 at 11:30am — 12 Comments

नदी माँ है

पर्वत की तुंग

शिराओं से

बहती है टकराती,

शूलों से शिलाओं से,

तीव्र वेग से अवतरित होती,

मनुज मिलन की

उत्कंठा से,

ज्यों चला वाण

धनुर्धर की

तनी हुई प्रत्यंचा से.

आकर मैदानों में

शील करती धारण

ज्यों व्याहता करती हो

मर्यादा का पालन.

जीवन देने की चाह

अथाह.

प्यास बुझाती

बढती राह.

शीतल, स्वच्छ ,

निर्मल जल

बढ़ती जाती

करती कल कल

उतरती नदी

भूतल समतल

लेकर ध्येय जीवनदायी

अमिय भरे

अपने…

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Added by Neeraj Neer on January 28, 2014 at 10:04am — 36 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
पास लाई हमें जाने कब दूरियाँ

212/ 212/ 212/ 212

 

पास लाई हमें जाने कब दूरियाँ

ये लगे है कि मिट जाये अब दूरियाँ

 

चाँदनी भी है कंदील भी हाथ में

फिर भी क्यूँ रौशनी से अजब दूरियाँ

                                                                  

याद आती रहे आपको मेरी तो

मैं कहूँ है बहुत मुस्तहब दूरियाँ

 

मुझको शिकवा न तुझको शिकायत कोई

दरमियाँ क्यूँ ये फिर बेसबब दूरियाँ

 

मेरी अफ़्सुर्दगी को बढ़ाये बहुत                 …

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Added by शिज्जु "शकूर" on January 28, 2014 at 8:30am — 13 Comments

ग़ज़ल- सारथी || हुआ है आज क्या घर में ||

हुआ है आज क्या घर में हर इक सामान बिखरा है

उधर खुश्बू पड़ी है और इधर गुलदान बिखरा है /१ 

मुहब्बत क्या है ये जाना मगर जाना ये मरकर ही

लिपटकर वो कफ़न से किस तरह बेजान बिखरा है /२ 

यहीं मैं दफ्न हूँ आ और उठाकर देख ले मिट्टी

मेरी पहचान बिखरी है मेरा अरमान बिखरा है /३ 

मुझे रुस्वाइयों का गम नहीं गम है तो ये गम है

लबों पर बेजुबानों के तेरा एहसान बिखरा है /४ …

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Added by Saarthi Baidyanath on January 27, 2014 at 9:30pm — 28 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
तुम आओगी न, सुजाता.. // --सौरभ

पीपल की छाँव में खीर खाये एक अरसा हो गया है

मन फिर से चंचल है

तुम आओगी न, सुजाता !



उसके होने न होने से कोई विशेष अंतर नहीं पड़ना था,

ऐसा तो नहीं कहता

लेकिन क्या वो

कोई आम, अशोक, महुआ या जामुन नहीं हो सकता…

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Added by Saurabh Pandey on January 27, 2014 at 8:00pm — 31 Comments

कुंडलिया छंद - लक्ष्मण लडीवाला

राज आप का आप पर, पूछ रहे है लोग 

नेताजी क्या आप ने,किया उचित उपयोग ?     

किया उचित उपयोग,लगा क्या जन को ऐसा

जनता करती आस, दिया क्या शासन वैसा.

होती है पहिचान, भला करे जब आम का 

जन का हो कल्याण, तभी है राज आप का |

 (2) 

सुरसा से ये फैलते, प्रचलित बहुत रिवाज

जीना कुंठित कर रहे, छोड़ न पाय समाज |  

छोड़ न पाय समाज, कर्ज में निर्धन डूबे

खिलावे म्रत्यु भोज, प्रतिष्ठा के मनसूबे

स्वार्थ के वशीभूत, भोज का बाँटे पुरसा   …

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on January 27, 2014 at 7:30pm — 13 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
सहरा की गर्म रेत और पानी का ये भरम ( ग़ज़ल ) गिरिराज भंडारी

2212    1212    1212     22 

तारीक़ी फिर लगी मुझे बढ़ी चढ़ी क्यों है   

सूरत में सुब्ह की बसी ये बरहमी क्यों है

क्यूँ रात शर्मशार सी है चुप खड़ी दिखती  

ये सुब्ह बेज़ुबान सी , डरी हुई क्यों है

ख़ंज़र की दिल-ज़िगर से, दुश्मनी…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on January 27, 2014 at 5:30pm — 22 Comments

समृद्ध महिला - (लघुकथा )

आज कुन्ती के पाँव जमीन पर नही पड़ रहे थे | खुशी इतनी थी कि उसका मन भर-भर आ रहा था | अपने पति के प्रति अथाह आदर भाव और प्रेम तो पहले से ही था उसके हृदय में, आज वो कई गुना और बढ़ गया था | उसका दिल खुशी से धाड़-धाड़ धड़क रहा था खुशी की अधिकता के कारण वो काँप रही थी | किसी तरह वो तैयार हो कर आईने के सामने खड़ी हो कर खुद को निहारने लगी | हल्के गुलाबी रंग की रेशमी साड़ी में वो कितनी जंच रही थी जो इसी विशेष अवसर के लिए पति ने खरीद कर तैयार करवाई थी | स्टूल पर बैठ कर कुन्ती सिर पर पल्लू रख कर अपनी मांग में…

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Added by Meena Pathak on January 27, 2014 at 2:30pm — 34 Comments

गंध

दुनिया में जितना पानी है

उसमें

आदमी के पसीने का योगदान है

 

गंध भी होती है पसीने में

 

हाथ की लकीरों की तरह

हर व्यक्ति अलग होता है गंध में

फिर भी उस गंध में

एक अंश समान होता है

जिसे सूँघकर

आदमी को पहचान लेता है

जानवर

 

धीरे-धीरे कम हो रही है

यह गंध

कम हो रहा है पसीना

और धरती पर पानी भी  

-  बृजेश नीरज 

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by बृजेश नीरज on January 27, 2014 at 7:28am — 24 Comments

हर नुक्कड़, चौराहे पर गणतन्त्र कराहता है

हर नुक्कड़, चौराहे पर गणतन्त्र कराहता है

“किन्तु परंतु के भँवर में घुमंतू समाज”

 

‘’वसुधैव कुटुंबकम’’ मूलमंत्र की प्राप्ति की पहली सीढ़ी शिक्षा ही है जिसको हासिल कर कोई भी देश अपने अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति कर सकता है। हमने अपने महापुरुषों के बलिदान से आज़ादी का सपना पूरा कर लिया, उस आज़ादी का सूरज निकले अरसा बीत चुका, ढंग से जीने का मौका अधिकार भी मिला, दुनिया के साथ अपना देश भी…

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Added by DR. HIRDESH CHAUDHARY on January 26, 2014 at 11:00pm — 9 Comments

मेरा तरूण सन्नाटा तोड़ो - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

तुम कोमल कमसिन लता नवीन और विजन में खड़ा विटप मैं ।

चाहो तो तुम आलिंगित हो, मेरा तरूण सन्नाटा तोड़ो ।।

वात झूमती चलती जब भी, मौन मेरा भी वाणी पाता ।

लेकिन इसका लाभ कहो क्या, कौन विजन में गुनने आता ।

भाग में मेरे लिखा दिवाकर, तरस तनिक जो कभी न खाता ।

तूफानों से हुआ जो नाता, गिरने का भय डँसता जाता ।



निभर्य स्नेहिल जीवन जी लूँगा, मुझसे यदि नाता जोड़ो ।

चाहो तो तुम आलिंगित हो, मेरा तरूण सन्नाटा तोड़ो ।।

मेरे सूने जीवन की…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 26, 2014 at 8:46pm — 19 Comments

दबी आवाज़ (लघु कथा)

हमेशा खुशमिजाज रहने वाली माँ को आज गंभीर मुद्रा में देखकर मैनें कारण जानना चाहा तो वो बोली- बेटा तुम भाइयों में सबसे बड़े हो इसलिय तुमसे एक बात करना चाहती हूँ| हाँ-हाँ बोलो माँ मैनें उत्सुकता पूर्वक जानना चाहा|माँ ने दबी आवाज़ में कहना प्रारंभ किया-बेटा तुम्हारा अपना मकान लखनऊ में और बीच वाले का वाराणसी मे बना गया है किंतु तुम्हारा तीसरा भाई जो सबसे छोटा है उसका न तो अपना मकान है और न वो बनवा पायगा कियोंकि वो कम किढ़ा लिखा होंने के कारण अछी नौकरी न पा सका|तो क्या हुआ माँ ये आप और बाबूजी का…

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Added by NEERAJ KHARE on January 26, 2014 at 8:30pm — 12 Comments

मसीहा...

एक आंधी सी उठे है अन्दर 

एक बिजली सी कड़क जाती है 

एक झोंका भिगा गया तन-मन 

इस बियाबां में यूँ ही तनहा मैं

कब से रह ताक रहा हूँ उसकी...

 

वो जो बौछार से टकराते हुए 

एक छतरी का आसरा लेकर 

इक मसीहा सा बन के आता है 

मुझको भींगने से बचाता है...



हाँ...ये सच है बारहा उसने 

मेरे दुःख की घडी में मुझको 

राहतें दीं हैं....चाहतें दीं हैं....

और हर बार आदतन उसको 

सुख के लम्हों में भूल जाता हूँ 



वो मुझे दुवाओं में…

Continue

Added by anwar suhail on January 26, 2014 at 6:30pm — 5 Comments

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