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पत्थर मारने की आदत(ग़ज़ल)

221 2122 221 2122

 

शब्दों में पत्थरों को भर मारने की आदत

यूँ बेवजह तुम्हे ठोकर मारने की आदत

 

हमने मुहब्बतों में झेले सितम हज़ारों

दीवार पे हमें है सर मारने की आदत

 

ईमानो हक की बातें हैं करते आज वे ही

जिनको है भीड़ में छुप कर मारने की आदत

 

हालात दर्द को पैहम यूँ बढ़ाये उसपे

ऐ हुक्मराँ तेरी नश्तर मारने की आदत

 

उड़ना जिन्हे है वो उड़ ही जाते हैं परिन्दे

उनको नही ज़मीं पे पर मारने की…

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Added by शिज्जु "शकूर" on January 26, 2014 at 3:30pm — 26 Comments

गणतंत्र दिवस (कुंडलिया छंद)

गणतंत्र दिवस शुभकामना, प्रेषित है श्रीमान।
झंडा ऊँचा नित रहे, बढ़े देश का मान॥
बढ़े देश का मान, निरंतर उन्नत भारत।
हर जन हो खुशहाल, नहीं हो कोई आरत॥
आम व्यक्ति गणराज, किन्तु तंत्र में है विवश।
फिर कैसा गणतंत्र, और ये गणतंत्र दिवस॥

मौलिक व अप्रकाशित

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on January 26, 2014 at 2:48pm — 8 Comments

इक ज़ुरूरी बात थी

अनकही सी अनसुनी सी इक ज़ुरूरी बात थी ।

कह के भी कह ना सके कोई अधूरी बात थी ।

बोलने कि हद पे था प्यार का शैलाब पर ,

ना बोलने  की ज़िद पे भी इक गुरुरी बात थी ।

कोशिशें तो की बहुत इज़हारे उल्फत की मगर ,

लफ़्ज़ों में ना आ सकी दिल की पूरी बात थी ।

एकटक देखा उन्हें तो देखता ही रह गया ,

चाँद से चेहरे पे उनके कोहिनूरी बात थी ।

प्यार की खामोशियों में रंग भरने के लिए ,

उन लबों  की लालियों में एक सिन्दूरी बात थी…

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Added by Neeraj Nishchal on January 26, 2014 at 2:30pm — 7 Comments

परिचित अपरिचय ... (विजय निकोर)

परिचित अपरिचय

 

गीले भाव, भीगे गाल, स्वप्न रूआँसे

विवेकी-अविवेकी कोषों में बसे

सूक्षमातिसूक्षम खयाल मेरे

रातों तिलमिलाते, क्यूँ ?

गुँथे खयालों से तुम्हारे

अभी बिंधे तुमसे, अभी उलझे मुझमें

 

सूर्य की किरणों का उल्लास बटोरती

अकेले-अकेले में अपने से सहजतम

तुम भी तो बातें करती नहीं थकती थीं

खयालों की धारा-गति अनचीन्ही

सोच-सोच कर मुझको पगली-सी हँसती ..

आँचल की लहरीली सलवटें शरमा…

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Added by vijay nikore on January 26, 2014 at 11:30am — 12 Comments

मिली हमें स्वतन्त्रता//गीत//कल्पना रामानी

  

मिली हमें स्वतन्त्रता, अनंत शीश दान से।

निशान तीन रंग का, तना रहे गुमान से।

 

प्रतीक रंग केसरी, जुनून, जोश, क्रांति का,

दिखा रहा सुमार्ग है, सफ़ेद विश्व शांति का।

रुको न चक्र बोलता सिखा रहा हमें…

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Added by कल्पना रामानी on January 26, 2014 at 9:42am — 8 Comments

बेटी.....(लघु कथा )

"ऐ मीनरी !! जा जरा पानी तो ले के आ , उफ़ गर्मी भी कितनी हो रही हैं अभी ब्लाक में एक मीटिंग में जाना हैं बेटी बचाओ अभियान की शुरुआत हैं आज वहां "

"इत्ती देर लगे क्या पानी लाने में !! एक तो भगवान् ने मेरी किस्मत में तीन तीन छोरिया लिख दी " ऊपर से सारा दिन किताबो में घुसी रहती है यह नही की घर का कम काज सीखे कलक्टर बनके सर पे नाचने के सपने देख रही ! " राना जी झल्लाते हुए जोर से चिल्लाये और पत्नी डर के मारे पानी का गिलास लिए उनके सामने पल्लू मुह में दबाये आन खड़ी हुयी .. क्या हैं यह !!! हैं !!…

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Added by Priyanka singh on January 25, 2014 at 10:19pm — 34 Comments

लघुकथा -बहुरूपिया

हनुमान के रूप मे लोगों से भिक्षा माँग गुजर बसर कर रहे बहुरूपिये पर बङे आतंक वादी गिरोह के लिए काम करने वालों की नजर पङी।उनका आदमी बहुरूपिये से गणतंत्र दिवस के अवसर पर परेड स्थल पर कमंडल बम जगह जगह रखकर दहशत फैलाने के लिए सबसे उपयुक्त और सुरक्षित आदमी समझकर एकांत मे डील करने के लिए बात की।

आदमी-बाबा ! आपको केवल दस से पंद्रह जगहों पर कमंडल रखने है , बदले मे इतने पैसे मिलेंगे कि आपको रूप बदलकर भीख माँगने की जरूरत नहीं पङेगी ।

बाबा- (कुछ रूक कर) बेटा ! पेट के लिए गरीबी मे बहुरूपिया बन… Continue

Added by shubhra sharma on January 25, 2014 at 5:23pm — 8 Comments

छब्बीस जनवरी

हो गये जो निछावर वतन के लिए ,

याद करने की उनको घड़ी आ गयी ।

आज का दिन मनायें उन्हीं के लिए ,

कहने गणतंत्र कि नव सदी आ गयी ।

ये वीरों की धरती हमारा वतन ।

आकाश भी जिसको करता नमन ।

गाँधी नेहरू की जीवन कहानी है ये ।

नेता जी की तो सारी जवानी है ये ।

ऐसे आज़ाद भारत के वासी हैं हम ,

बात मन में यही फक्र की आ गयी ।

लाल हो जिनके कपड़े कफ़न हो गये ।

जो हिमालय कि हिम में दफ़न हो गये ।

मर के भी दुश्मनों को न बढ़ने…

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Added by Neeraj Nishchal on January 25, 2014 at 3:30pm — 16 Comments

गर्वीला पुष्प (अन्नपूर्णा बाजपेई)

शाख पर लगा 

अलौकिक सौंदर्य पर इतराता 

वसुधा को मुंह चिढ़ाता 

मुसकुराता इठलाता 

मस्त बयार मे कुलांचे भरता 

गर्वीला पुष्प !.......... 

सहसा !!!

कपि अनुकंपा से 

धराशायी हुआ 

कण कण बिखरा 

अस्तित्व ढूँढता 

उसी धरा पर 

भटकता यहाँ से वहाँ 

उसी वसुधा की गोद मे समा जाने को आतुर ... 

बेचारा पुष्प !!! 

अप्रकाशित एवं मौलिक 

Added by annapurna bajpai on January 25, 2014 at 10:30am — 21 Comments

ग़ज़ल : ओढ़नी नोच डाली गई

बह्र : २१२ २१२ २१२

जब उड़ी नोच डाली गई
ओढ़नी नोच डाली गई

एक भौंरे को हाँ कह दिया
पंखुड़ी नोच डाली गई

रीझ उठी नाचते मोर पे
मोरनी नोच डाली गई

खूब उड़ी आसमाँ में पतंग
जब कटी नोच डाली गई

देव मानव के चिर द्वंद्व में
उर्वशी नोच डाली गई
------------
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 24, 2014 at 9:55pm — 34 Comments

ग़ज़ल - (रवि प्रकाश)

बहर-ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽऽ ऽ।ऽ

.

झील के पानी में गिर के चाँद मैला हो गया।

स्वाद मीठी नींद का कड़वा-कसैला हो गया॥

.

दो घड़ी भी चैन से मैं साँस ले पाता नहीं,

यूँ तुम्हारी याद का मौसम विषैला हो गया।

.

सभ्यता के औपचारिक आवरण से ऊब कर,

आदमी का आचरण फिर से बनैला हो गया।

.

आँख में मोती नहीं बस वासना की धूल है,

प्यार देखो किस क़दर मैला-कुचैला हो गया।

.

हर किसी को सादगी के नाम से नफ़रत हुई,

कल जिसे कहते थे मजनूँ,आज लैला हो गया।…

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Added by Ravi Prakash on January 24, 2014 at 5:00pm — 16 Comments

अँधेरे रास हैं आए वफ़ा तुझसे निभाने में [गजल]

बड़ी मुश्किल से कुछ 'अपने' मिले हमको ज़माने में

कहीं उनको न खो दूँ ख्वाहिशें अपनी जुटाने में /



बने जो नाम के अपने हैं उनसे दूरियाँ अच्छी

मिलेगा क्या भला नजदीकियां उनसे बढ़ाने में/



उजाले छोड़े हैं तेरे लिए रहना सदा रोशन

अँधेरे रास हैं आए वफ़ा तुझसे निभाने में /



हसीं यादों ने छोड़े हैं सफ़र में ऐसे कुछ लम्हे

रँगें हैं हाथ अपने अब निशाँ उनके मिटाने में /



दिलों को तोड़ते हैं जो विदा कर यार को ऐसे

जो थामे धडकनें तेरी न डर…

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Added by Sarita Bhatia on January 24, 2014 at 3:30pm — 9 Comments

ग़ज़ल (अजय कुमार शर्मा)

सच कहता है शख्स वो ,भले बोलता कम है

बहुत सोचता है , भले वो लब खोलता कम है



कितनी भी हावी सियासत हो गयी हो आज भी

वो वादे निभाता तो नहीं , मगर तोड़ता कम है

कहीं जज़बात के रस्ते में कोई दुश्वारियां न हों

वो ख़त भी रखता है , तो लिफाफा मोड़ता कम है

मशीनी हो गयी है , रफ़्तार-ए -ज़िन्दगी , अब

आदमी हाँफता ज़िआदा , मगर दौड़ता कम है



फुटपाथों पे वो नंगे ज़िस्म सो रहा है , "अजय"

चीथड़े पहनता तो है वो , मगर ओढ़ता कम…

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Added by ajay sharma on January 23, 2014 at 11:30pm — 5 Comments

मेरी अनकही बातों पर ऐतबार न कर.

जमाना बेताब है मुश्किलें पैदा करने को,

मेरी अनकही बातों पर ऐतबार न कर.

बढ़ते रहे दरमियाँ दिलों के बीच,

चाहत ये जमाने की कामयाब न कर.

एक लकीर है हमारे और उसके बीच,

डर है गुम  होने का, उसे पार न कर.

कल का सूरज किसने देखा है,

आ भर ले बाहों में इन्कार न कर.

यक़ीनन ढला ज़िस्म फौलाद के सांचें में,

पर दिल है शीशे का, तू वार न कर.

शक अपनों पर, परायों के खातिर,

यकीं नहीं है तो फिर प्यार न…

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Added by अनिल कुमार 'अलीन' on January 23, 2014 at 11:30pm — 12 Comments

मसूरी के हिमपात पर

बर्फ की ये चादरी सफ़ेद ओढ़कर

पर्वतों की चोटियाँ बनी हैं रानियाँ

पत्ती पत्ती ठंड से ठिठुरने लगी,

फूल फूल देखिये हैं काँपते यहाँ ।



काँपती दिशाएँ भी हैं आज ठंड से,

बह रही हवा यहाँ बड़े घमंड से ।

बादलों से घिरा घिरा व्योम यूं लगे,

भरा भरा कपास से हो जैसे आसमाँ।। पर्वतों की .....



धरती भी गीत शीत के गा रही,

दिशा दिशा भी मंद मंद मुस्कुरा रही।

झरनों में बर्फ का संगीत बज उठा,

और हवा गा रही है अब रूबाईयाँ॥ पर्वतों की .....…



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Added by Pradeep Bahuguna Darpan on January 23, 2014 at 9:30pm — 5 Comments

उसका वो पागलपन

याद है मुझे

उसका वो पागलपन

लिखता मेरे लिए प्रेम कवितायेँ

जिनमें होते मेरे लिए कई प्रेम सवाल

उसमें ही छुपी होती उसकी बेपनाह ख़ुशी

क्योंकि जानता न था वो मेरे जवाब

वो उसकी आजाद दुनिया थी

जिसमें नहीं था किसी का दखल

उसके दिल के दरवाजे पर खड़ी रहती मैं

उस पार से उससे बतियाती

उसका पा न सकना मुझे

मेरा खिलखिला कर हँसना

और टाल देना उसका प्रेम अनुरोध

देता उसको दर्द असहनीय

जैसा आसमान में कोई तारा टूटता

और अन्दर टूट जाते उसके ख़्वाब…

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Added by Sarita Bhatia on January 23, 2014 at 6:11pm — 4 Comments

है पानी का बुलबुला ....

जीवन दर्शन पर ३ मुक्तक :



1.है पानी का बुलबुला ....

है पानी का बुलबुला ....ये जीवन तेरा जीव

बड़े भाग से मानव का ...मिला तुझे शरीर

आती जाती साँसों का ...नहीं कोई विश्वास

आत्म सुख के वास्ते हर ले किसी की पीर

2.मूर्ख मानव काया पे …

मूर्ख मानव काया पे ....तू काहे करे गुमान

नश्वर इस संसार में .....व्यर्थ है अभिमान

जान के भी अंजाम को क्योँ बनता अंजान

तू माया की…

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Added by Sushil Sarna on January 23, 2014 at 5:30pm — 13 Comments

धीरे-धीरे समझे हम

इस दुनिया के तौर तरीके

धीरे धीरे समझे हम

गुलदस्तों की ओट में खंजर

धीरे-धीरे समझे हम|  …

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Added by Gul Sarika Thakur on January 23, 2014 at 3:30pm — 12 Comments

मंदरा मुंडा

मंदरा मुंडा के घर में है फाका,

गाँव में नहीं हुई है बारिश,

पड़ा है अकाल.

जंगल जाने पर

सरकार ने लगा दी है रोक ,

जंगल, जहाँ मंदरा पैदा हुआ,

जहाँ बसती है,

उसके पूर्वजों की आत्मा.

भूख विवेक हर लेता है.

उसके बेटों में है छटपटाहट.

एक बेटा बन जाता है नक्सली.

रहता है जंगलों में.

वसूलता है लेवी.

दुसरे को कराता है भरती

पुलिस में.

बड़े साहब को ठोक कर आया है सलामी

चांदी के बूट से .

चुनाव…

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Added by Neeraj Neer on January 23, 2014 at 2:00pm — 6 Comments

दोहे : अरुन 'अनन्त'

बद से बदतर हाल है, नाजुक हैं हालात ।

बोझिल लगती जिंदगी, पल पल तुम पश्चात ।१।



बरसी हैं कठिनाइयाँ, उलझें हैं हालात ।

हर पल भीतर देह में, जख्म करें उत्पात ।२।



दिन काटे कटते नहीं, मुश्किल बीतें रात ।

होता है आठों पहर, यादों का हिमपात ।३।



रूठी रूठी भोर है, बदली बदली रात ।

दरवाजे पर सांझ के, पीड़ा है तैनात ।४।



आती जब भी याद है, बीते दिन की बात ।

धीरे धीरे दर्द का, बढ़ता है अनुपात ।५।



व्याकुल मन की हर दशा, लिखते हैं हर…

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Added by अरुन 'अनन्त' on January 23, 2014 at 11:30am — 16 Comments

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