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कभी सोचा न था ..

कभी सोचा न था ...

कितनी कलरफुल थी

मेरी दुनिया

अब तुम्हारे बाद

ब्लैक एंड वाइट होकर रह जाएगी

कभी सोचा न था ...

अलमारी में पड़े

लाल गुलाबी कपड़े

मुंह चिड़ाएंगे और पूछेंगे

मुझसे कई सवाल

कभी सोचा न था ..

आइने के सामने आज

खड़े होने में डर लगेगा

क्योंकि

खो दूंगी वो अक्स

जो मुझे निहारा करता था

कभी सोचा न था ...

बड़ी बेपरवाह थी जिन्दगी

बस तुम्हे बताकर

दुनिया की परवाह किये बिना

स्वछन्द घूमा करती थी

अब घर…

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Added by Sarita Bhatia on January 9, 2014 at 2:37pm — 13 Comments

ग़ज़ल : अरुन 'अनन्त'

बह्र : हज़ज मुरब्बा सालिम


सदा दिन रात भिनसारे,
गिरें नैनों से अंगारे,

हमें पागल वो कहते हैं,
थे जिनकी आँख के तारे,

समझना है कठिन बेहद,
हकीकत प्यार की प्यारे,

घुटन गम दर्द तन्हाई,
लगें अपने यही सारे,

हमारी रूह तक गिरवी,
वो केवल दिल ही थे हारे,

यही अब आखिरी ख्वाहिश,
जहां पत्थर हमें मारे.

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by अरुन 'अनन्त' on January 9, 2014 at 11:00am — 33 Comments

ग़ज़ल - बज़्म थी तारों की उसमें चाँद का पहरा भी था

२१२२      २१२२      २१२२     २१२

बज़्म थी तारों की उसमें चाँद का पहरा भी था

धूम थी रानाइयों की दिल मेरा तन्हा भी था

 

इक नदी थी नाव भी थी और था मौसम हसीं

साथ तुम थे बाग़ गुल थे इश्क मस्ताना भी था…

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Added by अमित वागर्थ on January 8, 2014 at 7:00pm — 35 Comments

घनाक्षरी

ममता का चित बड़ा चंचल चपल तब 

तन मे सचल मन बड़ा ही प्रचल है 

रमता ये जोगी छोटा नाटा ये कपट कब   

तन में उदित मन बड़ा ही स्वचल है

समता का भाव जागा मन में भी मेरे अब   

तन में न हलचल मन निशचल है  

तमता नहीं है भाव में रहे निचल रब  

तल में अतल में वितल में अचल है  

मौलिक एवं अप्रकाशित 

आशीष (सागर सुमन)

Added by Ashish Srivastava on January 8, 2014 at 5:58pm — 9 Comments

लघुकथा : कामरेड हनुमान

श्रीराम कुछ क्रोधित होकर बोले, “हनुमान तुमसे सीता की ख़बर लाने को कहा था। तुमने लंका में आग क्यों लगा दी?”

हनुमान शांत भाव से बोले, “प्रभो! जब तक हम जैसे आदिवासी पहाड़ों की गुफाओं, जंगलों और खुले आसमान के नीचे रह रहे हैं तब तक दुनिया में किसी को भी सोने के महल में रहने का अधिकार नहीं है। मुझे धरती पर हमेशा रहना है अतः मैं कभी मार्क्स, कभी मिन्ह, कभी लेनिन तो कभी माओ बनकर जनमानस तक ये संदेश पहुँचाता रहूँगा। सोने की लंका जलाकर मैंने इसकी शुरुआत की है प्रभो।“

हनुमान…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 8, 2014 at 2:25pm — 22 Comments

दॊहा छन्द (श्रंगार-रस)

दॊहा छन्द (श्रंगार-रस)

===================



उठत गिरत झपकत पलक, दुपहरि साँझ प्रभात !!

चितवत चकित चकॊर-दृग,मुख-मयंक दुति गात !!१!!



नाभि नासिका कर्ण कुच, त्रि-बली उदर लकीर !!

ग्रीवा चिबुक कपॊल कटि,निरखत भयउँ अधीर !!२!!



हँसि हॆरति फॆरति नयन, मन्द मन्द मुस्काति !!

दन्त-पंक्ति ज्यूँ दामिनी, बिन गरजॆ चमकाति !!३!!



चॊटी  मानहुँ  कॊबरा, लटि नागिन  की जात !!

कॆश समुच्चय  कर रहा, नाग लॊक  की बात !!४!!



भरीं भुजा दॊनहुँ  सबल,…

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Added by कवि - राज बुन्दॆली on January 8, 2014 at 12:00pm — 27 Comments

हालात .....

नियम/अनुशासन

सब आम लोगों के लिए है

जो खास हैं

इन सब से परे हैं

उन पर लागू  नहीं होते

ये सब

ख़ास लोग तो तय करते हैं

कब /कौन/ कितना बोलेगा

कौन सा मोहरा

कब / कितने घर चलेगा

यहाँ शह भी वे ही देते हैं  

और मात भी

आम लोग मनोरंजन करते हैं   

आम लोगों का रेमोट

ख़ास लोगों के हाथों में होता है  

वे नचाते हैं

आम लोग नाचते हैं.....

मगर हालात

हमेशा एक जैसे नहीं होते

और न ही…

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Added by नादिर ख़ान on January 8, 2014 at 12:00pm — 11 Comments

घनाक्षरी छंद - मन हरण

गीत भी लिखे कलम भारती के गान के तो,
कागज भी नाच के ही आन करने लगा

वंदन हजार माँ को छंद ने किये है और 
पंक्ति पंक्ति लिख के ही गान करने लगा 

स्याही शूर वीरता के मंत्र लिखती गयी तो  
अक्षर भी अक्षर का मान करने लगा 

देशप्रेम वाला भाव मन में बसा लिया तो   
शब्द शब्द राष्ट्र को सलाम करने लगा 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

आशीष ( सागर सुमन)  

Added by Ashish Srivastava on January 8, 2014 at 11:00am — 12 Comments

क़द बढ़े लेकिन, वो बौरे हो गए.........

जब कभी भी भोर के मालिक अँधेरे हो गए

क़ाफ़िलें लुटते रहे , रहबर लुटेरे हो गए

कुछ हुयी इंसान में भी इस तरह तब्दीलियाँ

क़द बढ़े लेकिन , वो बौरे हो गए

हो गयी खुशबू ज़हर इस दौर में

बाग़ में , साँपों के डेरे हो गए

ग़र बँटी धरती कहाँ तेरा चमन रह जायेगा

भूल है तेरी अलग तेरे बसेरे हो गए

झूठ तो देखो इधर किस क़दर धनवान है

और उधर नीलाम सच के घर बसेरे हो गए



आदमी डरता था पहले , रात में ही "अजय" …

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Added by ajay sharma on January 7, 2014 at 11:00pm — 7 Comments

साथ (अखंड गहमरी)

अपनो से दूर

अपने पराये

पराये अपने

चुटकी भर

सिंदूर से

पास मेरे

तन मन

अर्पण

मैं सुखी

उसकी खुशी

हर चाहते

सपने उमंग

चेहरे पर तेज

हर पल साथ

साँसो के साथ

मेरे अपने

उसके अपने

निर्स्‍वाथ सेवा

हम दो शब्‍द

प्‍यार के नहीं

जज्‍बातो से खेलते

हर सपने तोड़ते

शिव है हम

मगर वह सीता

सह गयी जुल्‍म

मगर ना मिला

राम को…

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Added by Akhand Gahmari on January 7, 2014 at 11:00pm — 18 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
छन्द कुण्डलिया

१.      “ मैं ”

 

मैं-मैं तू करके हुआ, भौतिक सुख में लीन

अहम् भाव और देह की, रहा बजाता बीन

रहा बजाता बीन , नहीं  ‘मैं’ को पहचाना  

परम तत्व को  भूल ,जोड़ता रहा खजाना    

क्या  दिखलाकर दाँत,  करेगा केवल हैं हैं ?

जब पूछें यमराज, कहाँ बतला  तेरा  मैं ||

 

२.      “ तुम “

 

तुम-मैं मैं-तुम एक है , परम ब्रम्ह का अंश  

जाति- धर्म  इसका नहीं , और न कोई वंश

और न कोई वंश ,यही तो अजर - अमर…

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Added by अरुण कुमार निगम on January 7, 2014 at 10:57pm — 12 Comments

आने वाले साल का हर दिन हो शुभ !

मुट्ठी से रेत की तरह

फिसल गया ये साल भी

पिछले साल की तरह,

वही तल्खियाँ, रुसवाइयाँ,

आरोप, प्रत्यारोप,बिलबिलाते दिन

लिजलिजाती रातें, दर्द, कराहें

दे गया सौगात में |



सोचा था पिछले साल भी

होगा खुशहाल, बेमिशाल

लाजवाब आने वाला साल,

भर लूँगी खुशियों से दामन

महकेगा फूलों से घर आँगन

खुले केशों से बूँदें टपकेंगी

दूँगी तुलसी के चौरा में पानी

बन के रहूँगी राजा की रानी |



हो गया फिर से आत्मा का चीरहरण…

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Added by Meena Pathak on January 7, 2014 at 1:15pm — 31 Comments

विरोध

सुन्दर दृश्य उत्पन्न करती हैं

एक साथ जलती ढेरों मोमबत्तियाँ

 

भीड़ से घिरी उनकी रोशनी

कसमसाकर दम तोड़ देती है

 

वातावरण में घुले नारे

खंडहर में पैदा हुई अनुगूँज की तरह

कम्पन पैदा करते हैं

 

सर्द हवाएँ

काँटों की तरह चुभती हैं

 

अँधेरा गहराता जा रहा है 

___

बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by बृजेश नीरज on January 7, 2014 at 1:00pm — 34 Comments

!!! नवगीत !!!

!!! नवगीत !!!

अंधेरों सी घुटन में, जमीं के टूटते तारे।

सहम कर बुदबुदाते, बिफर कर रो रहे सारे।।

उजालों ने दिए हैं, घोटालों की निशानी।

दिए हैं झूठ के रिश्ते, फरेबी तेल की घानी।

जली है अस्मिता बाती, हुए हैं ताख भी कारे।

नजर की ओट में रहकर, नजर की कोर भी पारे।।1

सलोना  चॉद सा मुखड़ा,  चॉदनी पाश के पट में।

छले जनतन्त्र अक्सर अब, नदी तरूणी लुटे पथ में।

तड़फती रेत सी समता, पवन में खोट है सारे।

जमे हैं पाव…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on January 7, 2014 at 11:37am — 6 Comments

दुर्मिल सवैया !! मां शारदे !!

दुर्मिल सवैया !! मां शारदे !!

सहसा प्रतिभा समभाष करें, तुम आदि-अनादि अनन्त गुणी।
तप से, वर से नित धन्य करें, कवि-लेखक संग महन्त गुणी।।
गुण-दोष समान विचार रखें, नित नूतन कल्प भनन्त गुणी।
भव सागर में जब याद करें, पतवार लिए तुम सन्त गुणी।।

के0पी0सत्यम मौलिक व अप्रकाशित

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on January 7, 2014 at 11:00am — 7 Comments

पतंगबाजी उर्फ तमन्नाओं की ऊँची उड़ान

पतंगबाजी उर्फ तमन्नाओं की ऊँची उड़ान

तमन्नाओं की ऊँची उड़ान

का आभास हुआ

जब कुछ बच्चों को

घर की मुंडेर

पर चढ़कर

पतंग उड़ाते देखा

अलग अलग रंगों की

छटा बिखेरती,

ऊँची और ऊँची

चढ़ रही थी

आसमान में

परिंदे उड़ते हैं जैसे ।

मेरी पतंग ही रानी है

शायद यही सोचकर

लड़ाया पेंच एक बच्चे ने

दूसरी पतंग…

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Added by mohinichordia on January 7, 2014 at 10:30am — 8 Comments

यादों का वो इक सफ़र है नाम दे गया [सरिता भाटिया]

जाने वाला साल सब सुख चैन ले गया

नयनों में है नीर दिल में दर्द दे गया /



क्या मनाएं साल उस बिन अब लगे न दिल

एक झटके में सभी अरमान ले गया /



मुस्कराएँ हम क्या तेरे बिन ओ साथी अब

खुशिओ का तू सारा ही सामान ले गया /



उसकी हर आहट का होता है मुझे गुमाँ

खुद को समझायें क्या वो संसार से गया /



याद आती उसकी है अब रात रात भर

यादों का वो इक सफ़र है नाम दे गया /



काटना है अब अकेले उस बिना सफ़र

जिन्दगी भर का गमे…

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Added by Sarita Bhatia on January 7, 2014 at 10:00am — 17 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
कुण्डलिया : मैं-तुम-हम // --सौरभ

'मैं-तुम’ के शुभ योग से, 'हम’ का आविर्भाव

यही व्यष्टि विस्तार है, यही व्यष्टि अनुभाव

यही व्यष्टि अनुभाव, ’अपर-पर’ का संचेतक    

’अस्मि ब्रह्म’ उद्घोष, ’अहं’ का धुर उत्प्रेरक

’ध्यान-धारणा’  योग, सतत…

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Added by Saurabh Pandey on January 7, 2014 at 1:00am — 24 Comments

प्रण...

अचानक एक दिन

हुई उसके बचपन की हत्या

विवाह की वेदी ने दिया

एक नया घर-आँगन

एक नया रोल

एक नया अभिनय

एक नया डर...

अचानक एक दिन

ख़त्म हुई नादानियां

दफन हुईं लापरवाहियां

स्याह हुए स्वप्न

भोथरा गईं कल्पनाएँ....

अचानक एक दिन

उठाना पडा भारी-भरकम

संस्कारों का पिटारा

जिम्मेदारियों का बोझ

मानसिक-शारीरिक तब्दीलियाँ

और शिथिल हुए स्नायु-तंत्र...

दीखता नही दूर-दूर तक

इस मायाजाल से…

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Added by anwar suhail on January 6, 2014 at 11:40pm — 7 Comments

ग़ज़ल - सच को अपनाने का जब ऐलान किया !

ग़ज़ल –

फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फैलुन फा

२२ २२ २२ २२ २२ २



सच को अपनाने का जब ऐलान किया ,

सबने मुझ पर बाणों का संधान किया |



जागो रण में नींदें भारी पड़ती हैं ,

अभिमन्यू ने प्राणों का बलिदान किया |



आंसू की दो बूँदें टपकी पन्नो पर ,

मैंने अपने किस्से का उन्वान किया |



सोने की अपनी अपनी लंकाएं गढ़ ,

हमने ख़ुद में रावण को मेहमान किया |



देश निकाला देकर सारे पेड़ों को ,

हमने अपने शहरों को वीरान किया |



भूख… Continue

Added by Abhinav Arun on January 6, 2014 at 7:47pm — 33 Comments

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"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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