Added by Ravi Prakash on January 13, 2014 at 8:43pm — 13 Comments
बह्र : २२१ २१२२ २२१ २१२२
रस्ते में जिस्म आया मंजिल तलक न पहुँचे
आँखों में जो न उतरे वो दिल तलक न पहुँचे
मंजिल मिली जिन्हें भी मँझधार में, उन्हीं पर
कसता जहान ताना, साहिल तलक न पहुँचे
जो पिस गये वो चमके हाथों की बन के मेंहदी
यूँ तो मिटेंगे वे भी जो सिल तलक न पहुँचे
मैं चाहता हूँ उसकी नज़रों से कत्ल होना
पर बात ये जरा सी कातिल तलक न पहुँचे
घटता है आज गर तो कल बढ़ भी जायेगा, पर
जानम…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on January 13, 2014 at 7:31pm — 18 Comments
खोज रही उनकी टोही निगाहें मुझमे
क्या-क्या उत्पाद खरीद सकता हूँ मैं...
मेरी ज़रूरतें क्या हैं
क्या है मेरी प्राथमिकताएं
कितना कमाता हूँ, कैसे कमाता हूँ
खर्च कर-करके भी कितना बचा पाता हूँ मैं...
एक से एक सजी हैं दुकाने जिनमे
बिक रही हैं हज़ार ख्वाहिशें हरदम
मेरी गाढ़ी कमाई की बचत पर डाका
डालने में उन्हें महारत है...
कैसे बच पाउँगा बाज़ार के लुटेरों से
एक दिन उड़ेल आऊंगा बचत अपनी
हजारों ख्वाहिशें कहकहा…
Added by anwar suhail on January 13, 2014 at 7:00pm — 4 Comments
प्रीत की चली पवन,
जब मिले धरा गगन,
मेघों के गर्जन,
संगीत बन गए,
बज उठे नूपुर,
प्रेम गीत बन गए।
कान्हा की बंसी ने
प्रेम धुन बजाई
होके दीवानी देखो
राधा चली आई
अजनबी थे जो,
मन के मीत बन गए,
बज उठे नूपुर,
प्रेम गीत बन गए।
चंद्रमा के प्रेम में,
चांदनी पिघल रही,
बिन तुम्हारे नेह की,
रागिनी मचल रही,
प्रीत में यही,
जग की रीत बन गए,
बज उठे नूपुर,
प्रेम गीत बन…
Added by Anita Maurya on January 12, 2014 at 10:30pm — 12 Comments
अभिनय कर तो लूँ
पर कच्ची हूँ
माँ पकड़ ही लेती है छुपाये गए
झूठे हाव भाव...
चुप रह कर सिर्फ सर हिला कर
उनकी बातों का जवाब देना
छत पर घंटों अकेले बिताना
रात भर जागना
और सुबह लाल आँखों से
माँ से कहना-
कुछ नहीं कल गर्मी बहुत थी
नींद नहीं आयी...
माँ ने भी कुछ न कह
बस पास बिठा कर कहा
चाय पियो आराम मिलेगा
वो तो समझ गयी...
काश मैं भी वो समझूं
जो वो मुझसे रोज़ न कहते हुए…
ContinueAdded by Priyanka singh on January 12, 2014 at 10:28pm — 16 Comments
ऐ खुदा मुझ को भी तेरी मेहरबानी चाहिए
इक महकते गुल की जैसी ज़िंदगानी चाहिए
मुझ को लंबी उम्र की हरगिज नहीं है आरज़ू
जब तलक है जिंदगी ,मुझको जवानी चाहिए
मैं समंदर तो नहीं जो उम्र भर ठहरा रहूँ
एक दरया की तरह मुझ को रवानी चाहिए ...
परवरिश बच्चों की करना , फर्ज़ है माँ बाप का
सच की हरदम राह भी उन को दिखानी चाहिए
आज के अखबार का यह कह रहा है राशि…
ContinueAdded by Ajay Agyat on January 12, 2014 at 5:00pm — 15 Comments
221 2121 1221 212
Added by Dr Ashutosh Mishra on January 12, 2014 at 4:00pm — 15 Comments
दिल से प्यार
रूह से प्यार
प्रतिक ताजमहल
सीता,सती,अनुसुईया
बाते किताबों की
आज का प्रेम तन
वासना, भूख
अंहकार,पुरूषार्थ का
अपमान सहे कैसे
खोजे सूनी राह
शांत गलीयाँ
लूटे अस्मत,
इज्जत तार तार
अबला देख रही थी सपने
दिखा रही सपने
कर गुजरने की चाहत
सीखने सीखाने की चाहत
पर अब अंधकार में कैद
लाख साथ जमाना
साथ में ताना
क्यों क्या कैसे
दिल को भेदते…
ContinueAdded by Akhand Gahmari on January 12, 2014 at 10:25am — 6 Comments
ज़िंदगी के यज्ञ में खुद को हवन करना पड़ा
आंसुओं से ज़िंदगीभर आचमन करना पड़ा....
मंज़िलों से दूरियाँ जब ,कम नहीं होती दिखीं
क्या कमी थी कोशिशों में,आंकलन करना पड़ा .....
ऐसे ही पायी नहीं थी देश ने स्वतन्त्रता
इस को पाने के लिए क्या क्या जतन करना पड़ा ...
जाने मुंसिफ़ की भला थी कौन सी मजबूरियां
फैसला हक़ में मेरे जो दफ़अतन करना…
Added by Ajay Agyat on January 11, 2014 at 7:00pm — 16 Comments
हे हंसवाहिनी, हे शारदे माँ,
विद्या का तू उपहार दे माँ,
जीवन पथ पर बढ़ती जाऊँ,
अपनों का विश्वास बनूँ माँ,
अंधियारे को दूर भगा दूँ,
ऐसी तेरी दास बनूँ माँ,
तेरी महिमा जग में गाउँ ,
अधरों को तू उदगार दे माँ,
हे हंसवाहिनी, हे शारदे माँ,
विद्या का तू उपहार दे माँ,
मधु का स्वाद लिए है ज्यो अब,
विष का भी मैं पान करूँ माँ,
फूलों पर जैसे चलती हूँ,
शूलों को भी पार करूँ माँ,
तूफानों में राह बना…
Added by Anita Maurya on January 11, 2014 at 3:00pm — 7 Comments
१२२२ १२२२ १२२२ १२२
मुझे बेजान सा पुतला बनाना चाहता है
किसी शोकेस में रखकर सजाना चाहता है
मेरे जज्बात सब उसको खिलौने जान पड़ते
जिन्हें वो खुद की चाभी से चलाना चाहता है
कुतर डाले मेरे जब हौंसलों के पंख…
ContinueAdded by sanju shabdita on January 11, 2014 at 3:00pm — 24 Comments
अकेलापन
खिड़की से झांकता
एक उदास चेहरा
और, दूर खड़ा
पत्ता विहीन ,
ढ़ूँढ़ सा, एक पेड़
दोनों ही
अपने अकेलेपन
का दर्द बाँटते
और
घंटों बतियाते
***********
महेश्वरी कनेरी......पूर्णत: मौलिक/अप्रकाशित
Added by Maheshwari Kaneri on January 11, 2014 at 12:30pm — 8 Comments
औरत और नदी
………
औरत जब करती है
अपने अस्तित्व की तलाश और
बनाना चाहती है
अपनी स्वतंत्र राह -
पर्वत से बाहर
उतरकर
समतल मैदानों में .
उसकी यात्रा शुरू होती है
पत्थरों के बीच से
दुराग्रही पत्थरों को काटकर
वह बनाती है घाटियाँ
आगे बढ़ने के लिए
पर्वत उसे रखना चाहता है कैद
अपनी बलिष्ठ भुजाओं में
पहना कर अपने अभिमान की बेड़ियाँ,
खड़े करता है,
कदम दर कदम अवरोध .
उफनती ,…
ContinueAdded by Neeraj Neer on January 10, 2014 at 10:39pm — 27 Comments
बस न पाया , क्या हुआ , कुछ वक़्त वो , ठहरा तो था
वो था मेरा , जितना भी था , जैसा भी था , मेरा तो था
साथ उसके हाथ का , मुझको न मिल पाया कभी
मेरे दिल में उम्र भर , उसका मगर , चेहरा तो था
आँसुओं की , आँख में मेरे , खड़ी इक भीड़ थी
बंद पलकों का लगा , लेकिन कड़ा , पहरा तो था
हाँ ! सियासत में , वो बन्दा , था बहुत कमतर "अजय"
ख़ासियत थी इस मगर , कैसा भी था , बहरा तो था
उम्र भर , इस फ़िक्र में , डूबा रहा मैं ,…
ContinueAdded by ajay sharma on January 10, 2014 at 10:30pm — 12 Comments
2122 1122 22/112
तिश्नगी में न सराबों में है
ताब जो मेरे इरादों में है
चहचहाते हुये पंछी ये कहें
ज़िन्दगी अब भी खराबों में है
ध्यान से पहले सुनो फिर समझो
क्या हकीकत मेरे दावों में है
बादलों की ये शरारत है जो
चाँद का नूर हिजाबों में है
अब तलक तेरी ज़ुबाँ पे थी वो
बात अब मेरे सवालों में है
काम आयेगी अकीदत आखिर
ऐसी तासीर दुआओं में है
ताब=…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on January 10, 2014 at 8:28pm — 22 Comments
आँखों देखी 9 एक बार फिर डॉक्टर का चमत्कार
हम लोगों के लिए 21 जून 1986 का दिन एक यादगार दिन बनकर रह गया है. आज शीतकालीन दल के वे चौदह सदस्य न जाने कहाँ-कहाँ बिखरे हुए हैं लेकिन उस दिन की स्मृति हम सबके दिल में अपना स्थायी आसन बिछा चुकी है. सुबह से ही मंच आदि को अंतिम रूप दिया जा रहा था. जो नाटक और गायन में अपना योगदान दे रहे थे उनका रिहर्सल देखते ही बनता था. चूँकि दल का रसोईया पूरे कार्यक्रम में अहम भूमिका निभा रहा था, रसोई का दायित्व उन पर छोड़ दिया गया जो…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on January 10, 2014 at 11:00am — 11 Comments
सर्द हवा ने बिस्तर बाँधा,
दिवस हो चले कोमल-कोमल।
सूरज ने कुहरे को निगला।
ताप बढ़ा, कुछ पारा उछला।
हिमगिरि पिघले, सागर सँभले,
निरख नदी, बढ़ चली चंचला।
खुली धूप से खिलीं वादियाँ,
लगे झूमने निर्झर कल-कल।
नगमें सुना रही फुलवारी
गूँज उठी भोली किलकारी
खिलती कलियाँ देख-देखकर
भँवरों पर छा गई खुमारी।
देख तितलियाँ, उड़ती चिड़ियाँ,
मुस्कानों से महक रहे पल।
अमराई…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on January 10, 2014 at 10:00am — 27 Comments
किसको पता कि कौन हूँ मैं ....
कोई शब्द नहीं निःशब्द हूँ मैं ....
खुद के चित्कार में छुप जाता हूँ
मेरा अस्तित्व,
मेरी संवेदनाएं
सन्नाटों ने खूब पढ़ा है
मेरे अनकहे शब्दों को
और ठंडी चुभती सर्द हवाओं ने
महसूस करा है ....
मेरे शब्दों के एहसास को .....
बहुत कुछ कहता हूँ
दिन भर ....
तुमसे, सबसे
पर सच कहूँ तो
आज तक
मैं, सिर्फ निःशब्द हूँ .....
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Amod Kumar Srivastava on January 9, 2014 at 10:49pm — 20 Comments
करें हम हमेशा ही उनकी इबादत
ये जीवन हमारा है जिनकी बदौलत...
नहीं कोई सानी है माता पिता का
यकीनन ये करते हैं दिल से मुहब्बत...
चरण छू लो इनके, मिलेंगी दुआएं
इन्हें देखने भर से होती जियारत ...
सही मायने में यही देवता हैं
यही पूरी करते हमारी ज़रूरत ...…
Added by Ajay Agyat on January 9, 2014 at 9:00pm — 16 Comments
11212 11212 11212 11212
उसे भूल जा तू न याद कर, जो गुज़र गया वो गुज़र गया
जिसे तख़्ते दिल में बिठाया था,वो उतर गया तो उतर गया
यहाँ आंधियों का वो ज़ोर है ,कि उजड़ गया है मेरा चमन
मेरी चाहतें मिली ख़ाक में , मेरा ख़्वाब था जो बिखर गया
…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 9, 2014 at 6:30pm — 47 Comments
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