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है मुहब्बत चीज ऐसी (ग़ज़ल ) -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

2122    2122    2122    2122

राह  में  अवरोध  जितने, ओ!  जमाने  तूँ  लगा  ले
है  मुहब्बत  चीज  ऐसी, रास्ता  फिर  भी  बना  ले


हर जुनूँ  कमतर  है इसको, आग इसकी  कौन रोके
आशिकी  पीछे  हटी  कब, इम्तहाँ  गर  जो खुदा ले 


कैश  की  हर  पीर  लैला,  खीच  लेती  ओर  अपनी
है मुहब्बत को बहुत कम, जुल्म जग जितने बढ़ा ले

इस मुहब्बत की बदौलत, शिव फिरे ले शव सती का
अंध   देखे  रंग  दुनिया, नेह  में  जब  मन  रमा  ले

खत्म  होता प्यार में कब, हसरतों का सिलसिला है
रूठते  ही  मन  करे  है, काश! आकर  वो  मना  ले

है मुहब्बत सास तन की, है मुहब्बत आस मन की
तब मुसाफिर डर रहा क्यों, नेह तूँ भी मन जगा ले

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 17, 2014 at 6:37am

आदरणीय भाई अनिल कुमार जी , ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद .

Comment by अनिल कुमार 'अलीन' on February 16, 2014 at 9:53pm

खत्म  होता प्यार में कब, हसरतों का सिलसिला है रूठते ही मन करे है, काश! आकर वो मना ले

है मुहब्बत सास तन की, है मुहब्बत आस मन की तब मुसाफिर डर रहा क्यों, नेह तूँ भी मन जगा ले.....................बहुत खूब आदरणीय!

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 15, 2014 at 12:45pm

आदरणीय भाई आशुतोष जी , आपकी बधाई तहेदिल से स्वीकार ली गयी है . उत्साहवर्धन के लिए आभार .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 15, 2014 at 12:43pm

आदरणीय भाई गिरिराज जी , ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद . आपका और वंदना जी का सुझाव सर आँखों पर . कई बार टंकण की चूक जल्दी से पकड़ में नहीं आती या ध्यान नहीं जा पाता. पर आगे से प्रयास रहेगा की इस तरह की गलती न हो . पुनः हार्दिक धन्यवाद .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 15, 2014 at 12:35pm

आदरणीय  वंदना  जी ग़ज़ल कि प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद . साथ ही त्रुटियों की और ध्यान दिलाने के लिए भी धन्यवाद . 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 15, 2014 at 12:23pm

आदरणीय लक्ष्मण जी ..कमाल की ग़ज़ल कही है अपने ..इतिहास के पात्रों जोडती हुई मुहब्बत की सर्वोच्चत को इंगित करती इस शानदार ग़ज़ल के लिए तहे दिल बधाई अवीकर करें ..सादर 


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Comment by गिरिराज भंडारी on February 15, 2014 at 7:34am

इस मुहब्बत की बदौलत, शिव फिरे ले शव सती का
अंध   देखे  रंग  दुनिया, नेह  में  जब  मन  रमा  ले --------- आदरणीय लक्ष्मण भाई , इस शे र के लिये और पूरी गज़ल के लिये बधाइयाँ ॥ आदरणीया वन्दना जी के कहे ध्यान दीजियेगा ॥

Comment by vandana on February 15, 2014 at 6:03am
हर जुनूँ कमतर है इसको, आग इसकी कौन रोके
आशिकी पीछे हटी कब, इम्तहाँ गर जो खुदा ले
बहुत बढ़िया ग़ज़ल आदरणीय
मुझे लगता है कि कैश की जगह कैस होना चाहिए और कृपया तूँ को भी तू कर लीजिये
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 15, 2014 at 4:07am

आदरणीय श्याम भाई ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए आभार .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 15, 2014 at 4:06am

आदरणीय मीना बहन , उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद .

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