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बिटिया के जन्म पर ( घनाक्षरी छंद)

5 जनवरी 2014 को रात्रि 8.45 बजे मेरी बिटिया ने जन्म लिया। मैं उसे माँ दुर्गा का प्रसाद मानता हूँ। पिता बनने का सुख ही कुछ दिव्यानुभूतिकारी होता है। गदगद् भाव से मैं अपनी पुत्री को माँ दुर्गा का स्वरूप मान कर एक घनाक्षरी छंद प्रस्तुत कर रहा हूँ-

*****************************

सुता रूप धार मात, गेह जो पधारी आप,

चरण युगल माथ, कोटिश: नवाता हूँ।

आह्लादकारी जन्म, किलकारी रही गूँज,

मुग्धकारी महतारी, आप गुन गाता हूँ॥

जैसे लिया जन्म मात, किया उपकार बहु,

वैसे जियो शत… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on January 19, 2014 at 12:00pm — 22 Comments

ग़ज़ल महफ़िल की नज़र

ज़िन्दगी का पलसफा है।
मौत हर ग़म की दवा है।

एक ही खामी है उसमे।
सच हमेशा बोलता है।

दूर मूझसे हो गयी जो।
ज़िन्दगी वो बेवफा है।

राहे सब आसां हुई है।
साथ जब से हौसला है।

काम भर ही बोलिए बस।
बे सबब क्या बोलना है।

हर मुसीबत से लड़ो यूँ।
साथ में समझो खुदा है।

लाज रखना मेरे मौला।
आज खुद से सामना है।

अप्रकाशित और मौखिक

Added by Ketan "SAAHIL" on January 19, 2014 at 10:54am — 10 Comments

आत्मकथन

आत्मकथन



जब जब बनाना चाहा

शब्दों को मिसरी

कुछ पूर्वाग्रह

घोल गये कड़ुवाहट

नहीं बना पाया मैं

खुद को मधुमक्खी

तब कैसे होते मधु

मेरे कहे गये शब्द

मैंने चाहा दिखना

बगुले सा धवल

तब कहां से आती

कोयल सी मधुरता

काक होकर भी

कहां निभा पाया

काक का धर्म

बस जमाये रखी

गिद्ध दृष्टि  

हर जीवित-मृत पर

समझ सकते हैं आप

कितना तुच्छ जीव

बनकर रह गया हूं मैं…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 19, 2014 at 6:00am — 18 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल (212- 212- 212- 212)

क्या कहूँ साथ अपने वो क्या ले गई

आँधी थी सायबाँ ही उड़ा ले गई

 

मैंने बस एक ही गाम उठाया मुझे

रहनुमा बन के तेरी दुआ ले गई

 

काम आये सितारे अँधेरो में रात

जब चिरागों की लौ को हवा ले गई

 

मुझको लहरों से क्यूँ हो शिकायत भला

गल्तियों को मेरी वो बहा ले गई

 

जीने की कोशिशें उसकी बेजा नहीं

क्या हुआ गर खुशी वो चुरा ले गई

 

रात के ख़्वाब बाकी थे आँखों में कुछ

सुब्ह की बेरहम धूप उठा ले…

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Added by शिज्जु "शकूर" on January 18, 2014 at 7:35pm — 21 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
आज के बाज़ार पर.. (नवगीत) // --सौरभ

बिस्तर-करवट-नींद तक

रिस आया बाज़ार



हर कश से छल्ले लिए

बातें हुई बवण्डरी

मुदी-मुदी सी आँख में

उम्मीदें कैलेण्डरी

गलबहियों के ढंग पर

करता कौन विचार..…

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Added by Saurabh Pandey on January 18, 2014 at 3:30am — 26 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आँखों देखी 10 (जमे समुद्र के ऊपर पैदल)

आँखों देखी 10   जमे समुद्र के ऊपर पैदल

     

      मैं पहले ही कह चुका हूँ कि दो महीने तक अँधेरे में रहने के बाद जुलाई 1986 के अंतिम सप्ताह में हमने पहला सूर्योदय देखा. जैसे-जैसे आसमान में सूर्य की अवस्थिति बढ़ती गयी मौसम खुशनुमा होता गया. अच्छे मौसम का स्वागत करके हम अधिक से अधिक समय स्टेशन के बाहर बिताने लगे थे. मैंने इस बदलते समय के साथ अपने साथियों के अच्छे होते हुए मूड का सदुपयोग करने का निश्चय किया. ‘हिमवात’ की तैयारी में पूरी…

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Added by sharadindu mukerji on January 18, 2014 at 2:00am — 5 Comments

लोकग्राम से आनंदवन - यात्रा वर्णन - रमेश यादव

यात्रा वर्णन -                 लोकग्राम से आनंदवन         

      

     देशाटन का जीवन में अनन्य महत्व है. इससे नई ऊर्जा, नए प्रदेशों की जानकरी, आत्मिक शांति प्राप्त होती है और लोक जीवन का परिचय होता है. कई ऐसे स्थान हैं जहां जाने से अदभूत सुख की प्राप्ति होती है. यात्रा के साथ यदि कुछ काम जुड़ जाए तो सोने पे सुहागा होता है. जिसकी अक्सर मुझे तलाश होती है.

      अवसर था नागपुर जाने का. वहां लोक कलाओं ( खड़ी गम्मत)  का…

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Added by RAMESH YADAV on January 18, 2014 at 1:47am — 5 Comments

हिंदी को रोजगार परख बनाने की जरूरत - रमेश यादव

मुलाकात -            हिंदी को रोजगार परख बनाने की जरूरत

( डॉ. वेद प्रकाश दुबे, संयुक्त निदेशक ( राजभाषा ) भारत सरकार, वित्त मंत्रालय से बातचीत )

 

मोबाइल की घंटी बजी, देखा, तो मेरे मित्र और आई.डी.बी.आई. बैंक के सहायक महाप्रबंधक डॉ. आर. पी.सिंह “ नाहर” जी फोन पर थे. आवाज आई , “ रमेश जी हिंदी और राजभाषा को लेकर आप काम रहे हैं, इस समय डॉ. वेद प्रकाश दुबे जी नीरिक्षण कार्य हेतु मुंबई में आए हैं जो भारत सरकार वित्त मंत्रालय के संयुक्त निदेशक ( राजभाषा…

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Added by RAMESH YADAV on January 18, 2014 at 1:30am — 2 Comments

मगर फिर चार दिन की ये जवानी कौन देता है...

पहले मौत दे, फिर जिंदगानी कौन देता है

मुकम्मल हो सके ऐसी कहानी कौन देता है,

यहां तालाब और नदियां कई बरसों से सूखी हैं

खुदा जाने कि पीने को ये पानी कौन देता है,

हमें तो जिंदगी ठहरी हुई इक झील लगती है

मगर हर वक्त दरिया को रवानी कौन देता है,

जमीं से आसमां तक का सफर हम कर चुके लेकिन

नहीं मालूम मंजिल की निशानी कौन देता है,

परिंदे जानते हैं ये कि पर कटने का खतरा है

इन्हें फिर हौसला ये आसमानी कौन देता…

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Added by atul kushwah on January 17, 2014 at 9:30pm — 15 Comments

नियति

नियति

किसी वी आई पी के

निधन पर -

लोक सभा एवं विधान सभा ने

शोक प्रकट किया है।

शोक अक्सर प्रकट किया जाता है

कोई वी आई पी जब दिवंगत होता है।

तुम क्यूँ रोते हो ?

शायद तुम्हारे घर मे, पड़ोस मे, मुहल्ले मे –

तुम्हारा कोई अज़ीज़ दिवंगत हो गया है।

कलुआ कह रहा था

साहब, नथुवा ने

तीन दिन से खाना नहीं खाया था

बीमार था, ठंड से ठिठुर कर - दम तोड़ दिया बेचारे ने ।

उसकी घरवाली ने लाला से –

अपनी पगार मांगी थी, पर –

लाला…

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Added by S. C. Brahmachari on January 17, 2014 at 3:28pm — 4 Comments

खोटा सिक्का

खोटा सिक्का

चले थे खुद को भुनवाने

दुनिया के इस बाजार में.

पर खोटा सिक्का मान

ठुकरा दिया ज़माने ने

सोचा ! मुझमें ही कमी थी

या, फिर वक्त का साथ न था

समझ न पाये ,और चुप रह गए

पर चैन न आया

और चल पडे दुनिया को

जानने और पहचानने

देखा ! तो जाना ,

दुनिया कितनी अजीब है

झूठ,मक्कारी और खुदगर्ज़ी

के पलड़े में हर रोज

इंसान तुल रहा 

पलड़ा जितना भारी

इंसान उतना ही…

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Added by Maheshwari Kaneri on January 17, 2014 at 1:00pm — 9 Comments

धकेलिए न देश को यूँ अंध-कूप में (गीत).

धकेलिए न देश को यूँ अंध-कूप में 
धकेलिए न देश को यूँ अंध-कूप में
 
क्रांतिकारियों ने जो बलिदान है दिया 
निज देश पे हर बात को कुर्बान कर दिया 
हम छांव में खड़े थे वो चले थे धूप में 
धकेलिए न देश को यूँ अंध-कूप में
 
बयानबाजियों से कभी हल नहीं कोई 
उंगली उठा के दूजे पे सफल नहीं कोई 
फर्क प्रजातंत्र  में न रंक ओ भूप में 
धकेलिए न देश को यूँ अंध-कूप…
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Added by AVINASH S BAGDE on January 17, 2014 at 11:00am — 26 Comments

क्षणिकाएँ

क्षितिज

 

दूर छोर पर

एकाकार होते 

सिन्दूरी आसमान

और हरी धरती

 

उस रेखा का कोई रंग नहीं

 

 

एक स्थिति

 

खाली बाल्टी

और उसमें

नल से

बूँद-बूँद टपकता पानी

 

मैं देख रहा हूँ

किंकर्तव्यविमूढ़

संघर्ष

 

तपते दिनों के बाद

सर्द हवाओं का मौसम

 

कब से बारिश नहीं हुई

बहुत से सपने सूख…

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Added by बृजेश नीरज on January 17, 2014 at 7:29am — 22 Comments

सावन का मौसम आया है............

हाथों से पता चल जायेगा होठों से खबर लग जायेगी

आँखों से नज़र आ जायेगा ,

सावन का मौसम आया है ऄ

कुछ बातें ऐसी वैसी होंगी , होंगीं जिनकी कुछ वज़ह नहीं

कुछ फूल खिलेंगे ऐसे जिनकी , होगी बागों में जगह नहीं

ख़ुश्बू , सबको बतलायेगी

सावन का मौसम आया है

झूलों पे बैठे हम और तुम , धरती से नभ तक हो आयेंगे

मिलन के बरसेंगे घन घोर , विरह के ताप हवन हो जायेंगे

दुनिया सारी जल  जायेगी  

सावन का मौसम आया…

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Added by ajay sharma on January 16, 2014 at 11:30pm — 8 Comments

मज़दूर

(एक)

 

तुम क्या चुकाओगे

मेरी मेहनत की कीमत

मेरी जवानी

मेरे सपने

मेरी उम्मीदें

सब-कुछ तो दफ्न है

तुम्हारी इमारतों में।

 

(दो)

 

जब चलती हैं  

झुलसा देने वाली गर्म हवाएँ

कवच बन जातीं है

यही सूरज की किरणें

हमारे लिए ।

 

मुसलधार बारिश

जब हमारे बदन को छूती है

फिर से खिल उठता है  

हमारा तन

ऊर्जावान हो…

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Added by नादिर ख़ान on January 16, 2014 at 10:30pm — 16 Comments

मेरा अपना गांव (रोला छंद)

मेरा अपना गांव, विश्‍व से न्यारा न्यारा ।

प्रेम मगन सब लोग, लगे हैं प्यारा प्यारा ।।

काका बाबा होय, गांव के बुजुर्ग सारे ।

हर सुख दुख में साथ, सखा बन काम सवारे ।।



अमराई के छांव, गांव के छोरा छोरी ।

खेले नाना खेल, करे सब जोरा जोरी ।।

ग्वाला छेड़े वेणु, धेनु धुन सुन रंभाती ।

मुख पर लेकर घास, उठा शिश स्नेह दिखाती ।।





मोहे पनघट नाद, सखी मिल करे ठिठोली ।

गारी देवे सास, करे बालम बरजोरी ।।

चारी चुगली खास, कथा सा सुने सुनावे ।

सभी… Continue

Added by रमेश कुमार चौहान on January 16, 2014 at 9:54pm — 9 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
लोकतंत्र का मुखौटा पहने (अतुकांत)

लोग कहते हैं

ज़माना बदल गया

मै कहता हूँ-

फ़क़त चेहरे बदले हैं,

व्यक्ति परक समाज तब भी था

अब भी है,

रियासतों,

शाही आनो-शान के बीच,

इंसानों के लहू से लिखी गई,

इतिहास की इबारत,

जो आज भी सुर्ख़ है

 

नाम बदले

मगर हालात न बदले

हुक्मरान बदले

मगर

जनता पहले भी ग़ुलाम थी

अब भी ग़ुलाम है

अंग्रेज़ों के पहले भी

अंग्रेज़ों के बाद भी

बेबसी ने ग़ुलाम…

Continue

Added by शिज्जु "शकूर" on January 16, 2014 at 8:30pm — 12 Comments

जाग रे मन !!!

जाग रे मन !

कब तक यूं ही सोएगा

जग मे मन को खोएगा

अब तो जाग रे मन !!

1)

सत्कर्मों की माला काहे न बनाई

पाप गठरिया है  सीस  धराई  

जाग रे !!!!

2)

माया औ पद्मा कबहु काम न आवे

नात नेवतिया साथ कबहु न निभावे

जाग रे !!!!

3)

दिवस निशि सब विरथा ही गंवाई

प्रीति की रीति अबहूँ  न निभाई

जाग रे !!!!!

4)

सारा जीवन यही जुगत लगाई

मान अभिमान सुत दारा पाई

जाग रे…

Continue

Added by annapurna bajpai on January 16, 2014 at 5:30pm — 10 Comments

जीबन :एक बुलबुला

गज़ब हैं रंग जीबन के गजब किस्से लगा करते

जबानी जब कदम चूमे बचपन छूट जाता है

बंगला ,कार, ओहदे को पाने के ही चक्कर में

सीधा सच्चा बच्चों का आचरण छूट जाता है

जबानी के नशें में लोग क्या क्या ना किया करते

ढलते ही जबानी के बुढ़ापा टूट जाता है

समय के साथ बहना ही असल तो यार जीबन है

समय को गर नहीं समझे समय फिर रूठ जाता है

जियो ऐसे कि औरों को भी जीने का मजा आये

मदन ,जीबन क्या ,बुलबुला है, आखिर फुट जाता है

मदन मोहन सक्सेना

मौलिक व…

Continue

Added by Madan Mohan saxena on January 16, 2014 at 1:53pm — 6 Comments

तुम पथिक आए कहाँ से (नवगीत) - कल्पना रामानी

तुम पथिक, आए कहाँ से,

कौनसी मंज़िल पहुँचना?

इस शहर के रास्तों पर,

कुछ सँभलकर पाँव धरना।

 

बात कल की है, यहाँ पर,

कत्ल जीवित वन हुआ था।

जड़ मशीनें जी उठी थीं,

और जड़ जीवन हुआ था।

 

देख थी हैरान कुदरत,

सूर्य का बेवक्त ढलना।

 

जो युगों से थे खड़े

वे पेड़ धरती पर पड़े थे। 

उस कुटिल तूफान से, तुम  

पूछना कैसे लड़े थे।

 

याद होगा हर दिशा को,

डालियों का वो…

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Added by कल्पना रामानी on January 16, 2014 at 10:30am — 26 Comments

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