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हमारी अंटार्कटिका यात्रा – 12 वह अनोखा आतिथ्य

हमारी अंटार्कटिका यात्रा – 12 वह अनोखा आतिथ्य

 

        पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि रोमांचकारी 58 घंटे की समाप्ति के बाद हम सभी सुरक्षित अपने स्टेशन के अंदर थे. अगले दिन से ही हम लोग फिर से मंसूबे बनाने लगे रूसी स्टेशन जाने के लिए. सौभाग्य से दो दिन बाद मौसम कुछ अनुकूल होता दिखने लगा. हमने बाहर जाकर अपनी गाड़ियों का हाल देखा तो दंग रह गए. पिस्टन बुली के ऊपर ढेर सारा बर्फ़ तो था ही, भीतर भी पाऊडर की तरह बर्फ़ के बारीक कण हर कोने में एकत्रित थे. पूरी गाड़ी को खोलकर साफ़ किया गया. फिर उसके पीछे एक जर्मन स्लेज लगाकर उसके ऊपर एक दूसरे पिस्टन बुली का केबिन निकालकर लगा दिया गया. अब हमारा कारवाँ तैयार था. जिस दिन नोवो स्टेशन में ऑक्टोबर क्रांति का समारोह होना था उस दिन सुबह-सुबह हम दक्षिण गंगोत्री से चल दिये. इस बार मौसम बहुत अच्छा था और मैं भी उस दल में शामिल था जो नोवो जा रहा था.

        सफ़ेद रेगिस्तान के ऊपर से कारवाँ (caravan) गाड़ी में बैठकर जाना एक अद्भुत अनुभव था. हम अपने भूवैज्ञानिक काम में लाए जाने वाले दिशामापक यंत्र अर्थात कम्पास के सहारे दक्षिण दिशा में चले जा रहे थे. कभी-कभी यह संदेह भी मन में उठता था कि क्या हम ठीक दिशा में जा रहे हैं! फिर अचानक किसी ऊँची जगह से गुजरते हुए जब 150 कि.मी. दूर के वॉल्थट पर्वत (Wohlthat mountains) की चोटियाँ दिख जातीं, हम आश्वस्त हो जाते. अंतत: हमें सामने की ओर एक काली रेखा दिखाई दी जो पूर्व-पश्चिम दिशा में आलम्बित थी. हम शिर्माकर ओएसिस (Schirmacher Oasis) देख रहे थे. अंटार्कटिका भूभाग के किनारे स्थित यह एक ऐसा स्थान है जो बर्फ़ से ढका हुआ नहीं है. लगभग 18 कि.मी. लम्बा और अधिक से अधिक 3 कि.मी. चौड़ा यह छोटा सा खुला हुआ भूभाग सफ़ेद रेगिस्तान में नखलिस्तान (ओएसिस) का आभास दिलाता है. यह नामांकरण और भी सटीक बैठता है क्योंकि गर्मियों के दिनों में इस ओएसिस में स्थित 100 से भी अधिक मीठे जल के झील नज़र आते हैं और स्थान की सुंदरता में चार चांद लगाते हैं. जर्मनी के तानाशाह हिटलर की सेना के किसी सैनिक हवाई सर्वेक्षण के दौरान जिसने इस क्षेत्र को सबसे पहले देखा था उस सैनिक के नाम (शिर्माकर) से ही आज यह जाना जाता है. इसी शिर्माकर ओएसिस के पूर्वी छोर पर एक झील के किनारे रूसी स्टेशन नोवोलज़ारेव्स्काया अवस्थित है. नोवो से लगभग चार किलोमीटर पश्चिम में एक बहुत बड़े झील के किनारे उन दिनों अस्थायी भारतीय शिविर था. अब वहीं पर भारत का दूसरा स्थायी स्टेशन “मैत्री” बना हुआ है.

        शिर्माकर की भूरी – काली रेखा दिखते ही हमारा उत्साह बढ़ गया और हम उत्सुकता से नोवो पहुँचने की प्रतीक्षा करने लगे. लेकिन जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, अंटार्कटिका में दूरियाँ बहुत विभ्रांत कर सकती हैं. हम जिसे 5 से 10 कि.मी. दूर समझ रहे थे वह वास्तव में 30 कि.मी. से भी अधिक दूरी पर था. यथासमय हम ओएसिस के पूर्वी छोर से नोवो स्टेशन की ओर मुड़े. हमारी गाड़ी में तिरंगा फहरा दिया गया था जो सगर्व अंटार्कटिका की तेज़ ठण्डी हवा में लहरा रहा था. नोवो स्टेशन से पहले हमें पूर्वी जर्मनी का जॉर्ज फ़ॉर्स्टर (Georg Forster) स्टेशन दिखाई दिया जिसके छत पर भारत के सम्मान में तिरंगा लहरा रहा था. यह औपचारिक शिष्टता वहाँ हर देश निभाता है. निकट ही एक झील है जो उस समय पूरी तरह जमा हुआ था. उसके ऊपर हमारी गाड़ी पहुँचते ही रूसी व जर्मन दल के नेताद्वय अपने कुछ सहयोगियों के साथ हमारा स्वागत करने आ गए. गाड़ी वहीं छोड़कर हम सब लोग नोवो पहुँचे. वहाँ अन्य रूसी अभियात्रियों ने हमारा स्वागत किया. कोट व जैकेट आदि क्लोक रूम में रखकर हम आगे बढ़े. रूसी नेता हमारे दल के वरिष्ठ सदस्यों को लेकर अपने कक्ष में गये और बाकी साथियों को उनके बिलियर्ड रूम में ले जाया गया. रूसी नेता से हम लोगों की वार्ता शुरु हुई. उन्होंने रूसी अंदाज़ में सबको वोद्का पीने को दिया. मैंने माफ़ी मांगते हुए एक गिलास पानी का आग्रह किया जिससे उन सबके साथ हाथ में पीने के लिए कुछ रहे. पानी रूसी नेता के ताला लगे हुए अल्मारी से निकला क्योंकि उनके यहाँ शायद ही कभी कोई पानी जैसी मूल्यवान चीज़ माँगता हो. फिर खाने के लिये भी प्लेटों में तरह तरह के सामान आने लगे लेकिन मेरे तो होश उड़ गए थे वे व्यंजन देखकर. मैं आमिष भोजन उन दिनों लेता था लेकिन हालात देखते हुए मैंने साफ़ कह दिया कि मैं निरामिष हूँ. मेरे साथी मुझे घूरकर देखने लगे पर मेरी बेबसी समझते हुए चुप रहे. वास्तव में वे भी सोच रहे थे कि निरामिष कुछ मिल जाता तो अच्छा होता. वे सौजन्यता दिखाते हुए कुछ नहीं बोले और रूसी आमिष भोजन का आनंद लेना ही उन्होंने उचित समझा. मैं कुछ बासी, सम्भवत: बरसों पुराने बिस्कुट और ब्रेड के टुकड़े चबा रहा था कड़वी काली रूसी कॉफ़ी की चुस्की के साथ. अचानक रूसी नेता उठे और अल्मारी का ताला पुन: खोलते हुए मुझसे बोले कि तुम्हारे लिए मेरे पास कुछ है जो निरामिष है और बेहद स्वादिष्ट. कहते कहते एक सील किया हुआ छोटा टिन का डब्बा निकालकर उन्होंने मुझे दिया और कहा कि मैं रूसी निरामिष भोजन का आनंद लूँ. भूख तो लगी ही थी. मैंने टिन काटा तो देखा कि उसमें बहुत ही सुंदर दिखता हुआ हरे रंग का कुछ है. मेरे साथियों ने भी देखा और ईर्ष्या से जल उठे क्योंकि सबको घर के पालक पनीर की याद आ गयी. मैंने भी बड़ी आशा लेकर रूसी 'पालक' खाने के लिए चम्मच उठाया. पहला चम्मच भरकर मैंने अपने मुँह में डाला.....मुझे लगा कि मैं वहीं उल्टी कर दूंगा. बड़ी मुश्किल से अपने आप को संभाल कर मैं वह डिब्बा हाथ में लिए बैठा रहा. जानता था कि उस चीज़ को, चाहे कुछ भी हो, अब मुझे ख़त्म करना पड़ेगा नहीं तो अशिष्टता होगी. मैं बहुत धीरे किसी तरह उस चीज़ को निगल रहा था कड़वी कॉफ़ी के सहारे जब रूसी नेता ने मुझसे पूछा कि मुझे वह कैसा लगा. औपचारिकतावश मुझे कहना पड़ा कि अच्छा है. तब उन्होंने गर्व के साथ बताया कि मैं संसार की सबसे महंगी चीज़ों में से एक का स्वाद ले रहा था. पूछने पर पता चला कि वह ब्लैक सी के नीचे पायी जाने वाली एक विशेष प्रकार की काई है जिसे मैं पालक समझ बैठा था. औपचारिकता का पहला दौर समाप्त होने के बाद हम सब उनके भोजन कक्ष में पहुँचे. वहाँ कुछ ब्रेड, बिस्कुट, काफ़ी मात्रा में चॉकोलेट और कॉफ़ी रखे थे. हाँ एक बड़े से डोंगे में उबले हुए आलू भी थे जिसके सामने रूसी और अंग्रेज़ी में लिखा था "केवल भारतीय अतिथियों के लिए". हमने आलू खाए तो अवश्य पर रूसियों को ललचायी दृष्टि से उस ओर देखते हुए दु:ख भी हो रहा था.

 

        खाने का दौर समाप्त होने पर हमने पूछा कि क्रांति दिवस का उनका कार्यक्रम क्या है? हमें बताया गया कि रात में खाने के बाद कुछ नाच-गाना होगा. हमारी गाड़ी से आवश्यक सामान लेकर हमलोग अपने अस्थायी शिविर की ओर चले. चार किलोमीटर दूरी तय करने में हमें एक घंटे से थोड़ा अधिक समय लगा था. यहाँ भी झील पूरी तरह जमी हुई थी. भारत के तीन HUT थे इस झील के किनारे (ये 'हट' आज भी हैं). इनमें से एक का नाम दिया गया था 'अन्नपूर्णा' क्योंकि इसी में रसोई की व्यवस्था थी. एक दूसरे 'हट' में वैज्ञानिक प्रयोगशाला थी और तीसरे मं् भण्डार का सामान भरा हुआ था. तीनों 'हट' की रूपरेखा एक जैसी थी – नीचे बड़ा सा हॉल जैसा और ऊपर आठ-दस लोगों के लिए सोने का स्थान. हमने 'अन्नपूर्णा' में ही डेरा डालना ठीक समझा. दरवाजे के सामने थोड़ी सी बर्फ़ थी. उसे बेलचे से आसानी से हटाकर, लैच खोलकर हम अंदर पहुँचे. पिछली गर्मी के बाद लगभग दस महीने के अंतराल में हम इस जगह पर वापस आए थे. अंटार्कटिका में धूल, कीड़े-मकोड़े आदि तो होते नहीं. बहुत थोड़ी सी सफाई के बाद हम सब अपने-अपने स्लीपिंग बैग के अंदर घुस गए. जब रात में पुन: नोवो जाने की बात उठी तो हममें से कई लोगों ने साफ़ मना कर दिया. कुछ उत्साही भी थे. वे रूसी गान, नृत्य के साथ-साथ उत्सव के अवसर पर विशेष रूसी भोजन और पानीय के आकर्षण में पुन: नोवो जाने को तैयार हो गये. हमारे साथ मैसूर के सेंट्रल फ़ूड व टेक्नोलॉजीकल रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा बनाए गए पुलाव के पैकेट थे. गर्म पानी में रखकर पैकेट खोलकर हम सबने भरपेट खाया. फिर आईसक्रीम खाकर सो गए. गहरी नींद आ गयी थी क्योंकि हम सब थके हुए थे. अचानक नीचे रसोई से आती हुई आवाज़ से नींद खुली. घड़ी देखा तो तीन बजने को था. पूछने पर पता चला कि हमारे साथी नोवो से वापस आ गए थे. रसोई में क्या कर रहे हैं पूछते ही रहस्य का उद्घाटन हुआ. नोवो में जाते ही उनकी आवभगत हुई थी गर्मजोशी के साथ. नाच-गाना तो नाममात्र का था, पीने-पिलाने के अंदाज़ में कोई कमी नहीं थी. फिर बड़ी उम्मीद लेकर वे खाने के हॉल में दाखिल हुए. सम्मान के साथ भारतीयों को पहले प्लेट पकड़ाया गया. अब उनके चौंकने की बारी थी. टेबल पर भुना हुआ घोड़ा पड़ा था जिसके अंग-प्रत्यंग से छुरी द्वारा माँस काटकर खाना था. उनका नशा, उनकी उम्मीदें सब एक झटके में उड़ गयी. वे किसी तरह औपचारिक धन्यवाद देकर भाग कर 'अन्नपूर्णा' में वापस आए थे. भूख से बेहाल वे लोग अपने लिए खिचड़ी बना रहे थे. मैंने जब यह सब सुना तो अनायास मेरे होठों पर मुस्कान खिल गयी जिसे किसी ने नहीं देखा. मैं जान गया कि अब मेरे साथ बहुत से लोग निरामिष हो जाएँगे. एक तृप्ति के साथ स्लीपिंग बैग के अंदर मैंने करवट बदली...तृप्ति क्योंकि .मैं आखिर एक इंसान ही तो हूँ.

 

(मौलिक व अप्रकाशित सत्य घटना)

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Comment

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Comment by Ashok Kumar Raktale on March 26, 2014 at 11:21pm

आदरणीय शरदिंदु जी सादर, अभी तक के खगोलीय और वैज्ञानिक रोचकता के अंकों के पश्चात यह खाने-खिलाने और पीने-पिलाने का अंक भी घोड़े और काई ने बहुत ही रोचक बना दिया. इस रोचक प्रस्तुति के लिए सादर आभार.

Comment by बृजेश नीरज on March 26, 2014 at 7:50pm

वीनस भाई से सहमत हूँ!

मुझे भी मजबूर होना पड़ा टिप्पणी करने को! :))

आदरणीय शरदिंदु जी, इन रोचक संस्मरणों के लिए आपका हार्दिक आभार!

सादर!

Comment by वीनस केसरी on March 24, 2014 at 12:08am

औपचारिकता जो न करवाए ....
वैसे ये कमेन्ट औपचारिकता का नहीं मजबूरी का परिणाम है ... ये पोस्ट पढने के बाद कमेन्ट करना हमारी मजबूरी है :)


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on March 4, 2014 at 1:36am

इस मेहमाननवाज़ी पर कौन न मर जाये ऐ खुदा.. खिलाते भी हैं तो काई.. भूनते हैं तो घोड़ा.. बहती है वोदका.. तालाबन्द पानी..

हा हा हा.. .

आप कहते रहें, आदरणीय शरदिन्दुजी.

साभार

Comment by MAHIMA SHREE on February 11, 2014 at 10:23pm

आदरणीय शरदेन्दु  सर , नमस्कार ,

बहुत ही रोचक , ऑंखें  विस्फारित कर देने वाले प्रसंग ... भुने हुए घोडें की खाने की कल्पना से ही सिहरन सी दौड़ गयी .. दुनिया के सबसे महंगे खाद्यपदार्थों में से एक समुद्री काई का प्रसंग और उस खाने की विवशता आँखों में चलचित्र की भातिं तैर गयी .. आपका बहुत आभार इतने सुंदर अनुभवों को प्रस्तुत करने के लिए .. सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 11, 2014 at 8:54pm

आ0 शरदिन्दु सर जी,  वाह....बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति।  आपकी याददाश्त और कहानी का प्रस्तुतिकरण दोनों ही जबरदस्त है।  हार्दिक बधार्इ स्वीकारें। सादर,

Comment by Shubhranshu Pandey on February 11, 2014 at 4:12pm

आदरणीय शरदिन्दु जी, 

आपके इस लेखसे यह तो स्पष्ट हो रहा है कि पिछली यात्रा में आप नहीं गये थे और अन्य लोगों को  58 घण्टे का दुखद अनुभव उठाना पडा़. आपके बिना हमें भी उस अनुभव में कुछ कुछ छुटता हुआ लग रहा था. इस बार आप आये और हमारा मजा भी दूगुना हो गया. जहाँ वोद्का की धार बहती हो वहाँ पानी पर ताला लगाना मजेदार था. काले सागर के तल में काली काई के स्वाद को बस सोचा जा सकता है. और ये भी कि ये आज के सबसे महंगे खाने में से एक था. वैसे मांसाहारी लोगों के लिये आपकी सलाह काम की है, माँस किसका है ये आपके अनुसार नहीं हो सकता है....लो अब खाओ घोडा़....हा...हा...हा...

सादर.

 

Comment by Meena Pathak on February 10, 2014 at 2:21pm

काई और घोड़ा...... !!!!!!!!!!!!!
उफ्फ्फ्फ़ .. ये सब खाते हैं वो लोग   और हमारे देश मे  प्याज लहसन तक नही खाते कुछ लोग ||

हर बार की तरह इस बार भी बहुत रोचक लगा संस्मरण पर वो काई और घोड़ा .... हे भगवान !


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Comment by rajesh kumari on February 10, 2014 at 10:55am

बहुत रोचक संस्मरण लगा ,हँसी भी आई सोचकर की विदेशी क्या क्या खाते हैं अर्थात क्या नहीं खाते ,कहीं घोड़े ,कहीं बन्दर ,कहीं कुत्ते ...और जाने क्या क्या नरभक्षी जानवरों को कहा जाता है इंसानों को क्या नाम दें ? आपके  संस्मरण का ये प्रसंग पढ़कर अपनी इस्राइल की यात्रा याद आ गई और मैं भी पूर्ण शाकाहारी हूँ ,बहुत रोचक संस्मरण ,जानकारियों से भरा ....आगे का इन्तजार 

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