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सुखों को तराजू में मत तोल सिक्के-लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

१२२/१२२/१२२/१२२
*
कथा निर्धनों की कभी बोल सिक्के
सुखों को तराजू में मत तोल सिक्के।१।
*
महल को तिजोरी रहा खोल सिक्के
कहे झोपड़ी  का  नहीं मोल सिक्के।२।
*
लगाता है  सबके  सुखों को पलीता
बना रोज रिश्तों में क्यों होल सिक्के।३।
*
रहें दूर या फिर  निकट  जिन्दगी में
बजाता है सबको बना ढोल सिक्के।४।
*
सिधर भी गये तो न बक्शेंगे हमको
रहे जिन्दगी में  जो ये झोल सिक्के।५।
*
नहीं  पेट    ताली   भरेगी  मदारी
चलाते हैं जीवन यहाँ गोल सिक्के।६।
*
समझती तुझे ही नयी पीढ़ी सब कुछ
न जीवन में ऐसे तो विष घोल सिक्के।७।
*
नहीं इनकी मंजिल नहीं है ठिकाना
'मुसाफिर' से जाते सदा डोल सिक्के।८।
**
मौलिक/अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

Views: 91

Comment

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Comment by Aazi Tamaam on August 13, 2025 at 12:47am

एकदम अलग अंदाज़ में धामी सर कमाल की रचना हुई है बहुत ख़ूब बधाई

बस महल को तिजोरी रहा खोल सिक्के लाइन समझ नहीं आ सकी मुझे

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 26, 2025 at 4:40am

आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति औल स्ने के लिए आभार।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 18, 2025 at 11:04am

आदरणीय लक्ष्मण भाई अच्छी ग़ज़ल हुई है , बधाई स्वीकार करें 

कृपया ध्यान दे...

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