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कवि
कौन कहता है
मैं कवि हूँ और वह नहीं ?
मैं पेट भर खाने के बाद
बरामदे की गुनगुनी धूप में बैठा हूँ
प्रकृति दर्शन के लिए –
वह,
भूखे पेट
एक कटी पतंग की डोर थामने
आसमान की ओर बेतहाशा भागा जा रहा है
मगर,
आसमान है कि
उससे दूर हटता जा रहा है –
बादल, क्षितिज और
एक कटी पतंग को
अपनी नीलिमा की ओढ़नी में छुपाकर,
कविता की लकीर खींचता हुआ !!!

(मौलिक तथा अप्रकाशित रचना)

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Comment by sharadindu mukerji on February 11, 2014 at 3:20am

भाई राम शिरोमणि जी, जब समझ में नहीं आया तो प्रशंसा कैसे कर दी आपने!! खैर, प्रशंसा सबको पसंद है, मुझे भी क्योंकि मैं भी तो एक साधारण इंसान हूँ. आपका हार्दिक आभार. मैंने वंदना जी को जो उत्तर दिया है उससे आपकी जिज्ञासा भी संतुष्ट होगी, ऐसी मेरी आशा है. सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on February 11, 2014 at 3:15am

आदरणीय अरुन शर्मा अनंत जी, आपका हार्दिक आभार.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on February 11, 2014 at 3:14am

आदरणीया वंदना जी, मेरी रचना को पढ़ने के लिए आभार. यदि आप बाकी पंक्तियों का अर्थ समझ गयी होतीं तो अंतिम दो पंक्तियाँ पहेली न बनती. "वह" एक छोटा सा बच्चा है जो गरीब है, भूखा ही रहता है. "आसमान" उसकी अभिलाषा या लक्ष्य है. "बादल" उसके सपने हैं, "क्षितिज" उसकी सीमा - एक ऐसी रेखा जो रहते हुए भी नहीं है. "कटी पतंग की डोर" वह अवसर है जो उसके भाग्य में आते-आते भी छूटता नज़र आता है. फिर भी "वह" "आसमान" की ओर भाग रहा है क्योंकि उसमें भावनाएँ हैं, कल्पना है, साहस है, सरलता है, चाह है. जब दर्द भी हो और इतना कुछ साथ हो तो कविता का जन्म होता है - एक भूखे बच्चे का सपना, एक भूखे समाज की ज़िंदगी की कविता. ऐसी कविता जिसके पास शब्द नहीं हैं मात्र एक अनुरणन है. इसीलिए हम कविता की केवल एक "लकीर" खिंचती हुई देख रहे हैं.  आशा है मेरी सोच आपसे साझा कर पाया कुछ-कुछ. सादर.

Comment by रमेश कुमार चौहान on February 10, 2014 at 8:15pm

सुंदर , बधाई आपको


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 10, 2014 at 5:42pm

आदरणीय , सुन्दर रचना के लिये आपको बधाइयाँ ॥

Comment by ram shiromani pathak on February 10, 2014 at 3:06pm

सच में बहुत गहराई है रचना में, सुन्दर अतीव सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय हार्दिक बधाई आपको//आदरणीया वंदना जी से सहमत हूँ,अल्प विवेक के कारण मै भी नहीं समझ पाया //////////   सादर

Comment by अरुन 'अनन्त' on February 10, 2014 at 11:57am

आदरणीय सर बहुत ही सुन्दर रचना हार्दिक बधाई आपको

Comment by Vindu Babu on February 10, 2014 at 5:16am

सहज और अच्छी कविता बन पड़ी है आदरनीय।

निवेदन है सर, अंतिम दो पंक्तियाँ मुझे खूब स्पष्ट नहीं हो पायीं.

अपनी नीलिमा...मतलब कविकर्म?

कविता की लकीर खींचता हुआ....कहाँ,कैसे?

सादर शुभकामनायें...


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on February 10, 2014 at 3:06am
आपका हार्दिक आभार आदरणीय श्याम नारायण जी.
Comment by Shyam Narain Verma on February 7, 2014 at 10:29am
बहुत बढ़िया रचना आदरणीय.....

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