(2212 2212)
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थे साथ मेरे जो कभी
मेरे नहीं थे वो कभी
कुछ दर्द कम तो हो मिरा,
ये घाव सी डालो कभी
जी को ज़रा ख़ामोश कर,
इन आँसुओं को रोक भी
कबतक दुखों से काम लूँ?
कोई ख़ुशी भी दो कभी
मैं ही सदा पलटा करूँ?
तुम भी मुझे रोको कभी
जिनका नहीं कोई कहीं,
उनके लिए भी रो कभी
जो मैं सही हूँ, 'दाद' दे,
जो मैं ग़लत हूँ, टोक भी
माँ ही…
ContinueAdded by Zaif on March 28, 2014 at 5:30pm — 9 Comments
२२१२ १२२२ २२१ २१२
वो बज्म में यूं तनहा क्यूँ खुद आप सोचिये
वो मैकदे मैं प्यासा क्यूँ खुद आप सोचिये
सूरज फलक पे आता है हर रोज वक़्त पर
फिर भी रहा अँधेरा क्यूँ खुद आप सोचिये
बचपन जवान होने से पहले ज़वाँ हुए
है बात इक इशारा क्यूँ खुद आप सोचिये
भरपूर तेल बाती भी दमदार थी मगर
किस ने दिया बुझाया क्यूँ खुद आप सोचिये
कांधा जो देने आया था हर शख्स गैर था
खुद को ही यूं मिटाया क्यूँ खुद आप…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on March 28, 2014 at 4:00pm — 12 Comments
स्व के पार ...
हाथ से हाथ छूटने की
तारीख़ तो सपनों को पता है
हाथ फिर कभी मिलेंगे ...
तारीख़ का पता नहीं
तुम्हारे चले जाने के बाद
मेरे दिन और रात
उदास, चुपचाप, कतरा-कतरा
बहते रहे हैं
मेरे वक्त के परिंदे की पथराई पलकें
इन उनींदी आँखों की सिलवटों-सी भारी
उम्र के सिमटते हुए दायरों के बीच
थके हुए इशारों से मुझसे
हर रोज़ कुछ कह जाती हैं
और मैं रोज़ कोई नया बहाना…
ContinueAdded by vijay nikore on March 28, 2014 at 4:34am — 20 Comments
Added by anwar suhail on March 27, 2014 at 8:23pm — 3 Comments
जिन्दगी कब अपने रंग दिखा दे कुछ कहा नही जा सकता समय समय पर जिदगी में धुप और छाव का मौसम आता जाता हैं। एक लड़की की जिन्दगी भी ना जाने कितने मौसम लेकर आती हैं जब एक तरह के मौसम के साथ अब्यस्त होने लगती हैं तो मौसम का दूसरा रंग बदल जाता हैं और वोह घूमती रहती हैं अपने आप को सम्हालती हुयी तो कभी भिगोती हुयी । भावनाओं का अतिरेक भी उनकी संवेदनशीलता पर हावी होकर बहा ले जाता हैं उनको समंदर में जहाँ दिर डूबना होता हैं बाहर निकल आने का कोई रास्ता नही होता और यह जब रिश्तो के…
ContinueAdded by Neelima Sharma Nivia on March 27, 2014 at 6:53pm — 4 Comments
न जानें कितने जीवन से परिक्रमा
ही तो करती आई हूँ ,
क्या पाया ?क्या खोया ?
पता नहीं भूली हूँ माया के जाल में ।
बस एक मेरा "मैं "
तैयार रहता मुझ पर हर दम,
कहता, मैं ही हूँ सबसे अच्छा ।
पर ये क्या सच है ?
नहीं ये हमारे "मैं "
का ही भ्रम है ।
घूमी हूँ यहाँ से वहाँ ,
लगाईं हैं कई जन्मों की
परिक्रमाएँ,
चुनी हैं मायेँ कई,
हर पल माना खुद को सही।
क्या ये सच है?…
Added by kalpna mishra bajpai on March 27, 2014 at 6:45pm — 5 Comments
ताकि, बचा सकूँ हताशा से
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इसलिये नही कि ,
सतत चलती सीखने की प्रक्रिया से भागना चाहता हूँ
इसलिये भी नही कि ,
मेरे लिए सब कुछ जाना-जाना , सीखा-सीखा है ,…
Added by गिरिराज भंडारी on March 27, 2014 at 4:30pm — 3 Comments
बागी ठोके ताल यूँ, दल को देने चोट
टिकिट मिले दागी खड़े, किसको डाले वोट
किसको डाले वोट, नहीं कुछ समझ में आता
खूब जताए प्यार, निकाले रिश्ता नाता
कह लक्ष्मण कविराय, देख अब जनता जागी
दागी की हो हार, भले ही जीते बागी |
(२)
योगी भोगी तो नहीं, उसके मन में टीस,
सुनो अरज माँ शारदे,दो अपना आशीष
दो आपना आशीष,यही है बस अभिलाषा
भारत रहे अखंड, रहे न एक भी प्यासा
कह लक्ष्मण कविराय, रहे सब यहाँ निरोगी
करो सभी का…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 27, 2014 at 2:30pm — 6 Comments
सत्य की राह
होती है अलग,
अलग, अलग लोगों के लिए.
किसी का श्वेत ,
श्याम होता है किसी के लिए .
श्वेत श्याम के झगड़ें में
जो गुम होता है
वह होता है सत्य,
सत्य सार्वभौमिक है,
पर सत्य नहीं हो सकता
सामूहिक .
सत्य निजता मांगता है ,
हरेक का सत्य
तय होता है
निज अनुभूति से.
... नीरज कुमार नीर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neeraj Neer on March 27, 2014 at 8:32am — 4 Comments
विजय – पराजय
वह जो मैंने सपने मे देखा
सोने की गाय
कुतुबमीनार पर घास चर रही थी , और –
नीचे ज़मीन पर बैठा कोई ,
सूखी रोटियाँ तोड़ रहा था ।
अचानक कुतुब झुकने लगा
मुझे ऐसा लगा, जैसे -
वह झुक कर स्थिर हो जाएगा
पीसा के मीनार की तरह
और बनेगा
संसार का आठवाँ आश्चर्य ।
पर, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ
वह धराशायी हो गया
गाय कहाँ गयी , कुतुब कहाँ गया
कह नहीं सकता
किन्तु सूखी…
ContinueAdded by S. C. Brahmachari on March 26, 2014 at 9:30pm — 9 Comments
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
अभी तो म्यान देखी है अभी तलवार देखोगे
हिरन के सींग देखे सींग की तुम मार देखोगे
बहुत खुश होते हो परदे के जिन अश्लील चित्रों पर
बहुत रोओगे जब घर पर यही बाज़ार देखोगे
जिस्म की मंडियों में डोलते हो बन के सौदागर
करोगे खुदकशी बेटी को जब लाचार देखोगे
नदी, नाले, तलैया-ताल यारों देखकर सँभलो
नहीं तो तुम सड़े पानी का पारावार देखोगे
अभी भाता बहुत है ये सफ़र पूरब से पश्चिम…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on March 26, 2014 at 5:00pm — 12 Comments
अनुष्टुप छंद 4 चरण प्रत्येक चरण 8-8 वर्ण
विषम चरण - वर्ण क्रमांक पाँचवाँ, छठा, सातवाँ, आठवाँ क्रमशः लघु, गुरू, गुरू, गुरू
सम चरण - वर्ण क्रमांक पाँचवाँ, छठा, सातवाँ, आठवाँ क्रमशः लघु, गुरू, लघु, गुरू
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मदिरापान कैसा है, इस देश समाज में ।
अमरबेल सा मानो, फैला जो हर साख में ।।
पीने के सौ बहाने हैं, खुशी व गम साथ में ।
जड़ है नाश का दारू, रखे…
Added by रमेश कुमार चौहान on March 26, 2014 at 4:38pm — 4 Comments
पैसे की बिसात पर लोकतंत्र
लोकतांत्रिक प्रक्रिया का सबसे भव्य प्रदर्शन अप्रैल और मई में होने वाला है जब देश के 81करोड़ मतदाताओं को अपने सांसदों को चुनने का सौभाग्य मिलेगा। मतदाताओं को अपने एक-एक वोट से उत्कृष्ट नेताओं को संसद तक पंहुचाने के लिए चुनावी इम्तिहान से गुजरना होगा। पैसा, प्रलोभन और भाई भतीजावाद से ऊपर उठकर लोकतंत्र के सभी मानकों…
ContinueAdded by DR. HIRDESH CHAUDHARY on March 26, 2014 at 3:00pm — 2 Comments
बस्ते में रोटी भर लाया
बच्चा भी ये क्या घर लाया
होठों पे खुशियाँ धर लाया
वो बोले किसकी हर लाया
सोने चांदी सब नें मांगे
वो चिड़ियों जैसे पर लाया
इक तूफानी झोंका आया
जाने किसका छप्पर लाया
दुत्कारा लोगों नें उसको
जो धरती पे अम्बर लाया
काम के इंसा मैंने मांगे
वो बस्ती से शायर लाया
भुवन निस्तेज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by भुवन निस्तेज on March 26, 2014 at 2:30pm — 9 Comments
बने रहें ये दिन बसंत के,
गीत कोकिला गाती
रहना।
मंथर होती गति जीवन की,
नई उमंगों से भर जाती।
कुंद जड़ें भी होतीं स्पंदित,
वसुधा मंद-मंद मुसकाती।
देखो जोग न ले अमराई,
उससे प्रीत जताती
रहना।
बोल तुम्हारे सखी घोलते,
जग में अमृत-रस की धारा।
प्रेम-नगर बन जाती जगती,
समय ठहर जाता बंजारा।
झाँक सकें ना ज्यों अँधियारे,
तुम प्रकाश बन…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on March 26, 2014 at 1:30pm — 14 Comments
छप्पन व्यंजन खाय के,भरा पेट कर्राय
तब टीवी की खबर पर, 'देश प्रेम' चर्राय
नेता उल्लू साधते, आपन गाल बजाय
जनता देखय फायदा, बातन में आ जाय
जोड़-तोड़ बनि जाय जो, दोबारा सरकार
लूट-पाट होने लगे, बढ़ता भ्रष्टाचार
महंगाई जस जस बढ़ै, व्यापारी मुस्कायँ,
जैसे आवय आपदा, फौरन दाम बढ़ायँ
पत्रकारिता बिक गयी, कलम करे व्यापार
समाचार के दाम भी, माँग रहे अखबार
कामकाज को टारि के, बाबू गाल बजायँ
देश तरक्की…
Added by VISHAAL CHARCHCHIT on March 26, 2014 at 1:00pm — 14 Comments
अल्प विराम – पूर्ण विराम
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वो मै होऊँ या आप
छोटा मोटा विद्यार्थी
सबके अंदर जीता है ,
आवश्यक रूप से
और वो जानता भी है ,
जीते रहने की…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 26, 2014 at 7:00am — 12 Comments
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कनक कनक रम बौराया जग
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किसको किसको मै समझाऊँ
ये जग प्यारे रैन बसेरा
सुबह जगे बस भटके जाना
ठाँव नहीं, क्या तेरा-मेरा ??
आंधी तूफाँ धूल बहुत है
सब है नजर का फेरा
खोल सके कुछ चक्षु वो देखे
पञ्च-तत्व बस, दो दिन…
Added by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on March 26, 2014 at 2:30am — 11 Comments
रह गयी कुछ है यही ग़र रह गयी
घर की अस्मत घर के बाहर रह गयी
ज़िन्दगी तक उसकी होकर रह गयी
अपने हिस्से की ये चादर रह गयी
वो मुझे बस याद आया चल दिया
शाम मेरी याद से तर रह गयी
तृप्ति ने बोला बकाया काम है
और तृष्णा घर बनाकर रह गयी
नाव जब डूबी तो बोला नाख़ुदा
थी कमी सूई बराबर रह गयी*
बन गई मेरी ग़ज़ल वो आ गया
कुछ खलिश फिर भी यहाँ पर रह गयी
भुवन निस्तेज
(मौलिक व…
ContinueAdded by भुवन निस्तेज on March 25, 2014 at 11:00pm — 16 Comments
दोहा........
कददू -पूड़ी ही सदा, शुभ मुहुर्त में भोग।
वर्जित अरहर दाल जब, शुभ विवाह का योग।।1
अन्तर्मन की आंख से, देखो जग व्यवहार ।
धोखा पर धोखा सदा, देता यह संसार ।।2
तन मन में सागर भरा, जीव प्राण आाधार।
सम्यक कश्ती साध कर, राम हुए भव पार ।।3
धर्म कर्म अति मर्म से, विषम समय को साध।
मन की माया जीत लें, मिले प्रेम आगाध ।।4
जैसी जिसकी नियति है, तैसा भाग्य लिलार।
लेकिन आत्मा राम नित, सदा करें…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 25, 2014 at 8:30pm — 6 Comments
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