उत्तुंग शृंखलाओ को
चीर कर
रफ्ता रफ्ता
उतरती चली आती है
सदा ही अवनत
मचलती लहराती वो
करती धरा का आलिंगन
सहर्ष ..... वलयित हो
मुसकाती
बढ़ती जाती निरंतर
सागर की बाँहों मे
समा जाने को विकल
अद्भुत निरखता सौम्य रूप
कुछ उच्छृंखल
राह के अवरोध समेट
तरण तारिणी
सागर से मिलन की
मधुर बेला मे
पूर्ण समर्पण लखता
अहा ! क्या ही अद्भुत
विहंगम दृश्य.......
धारा का जलध…
ContinueAdded by annapurna bajpai on March 23, 2014 at 12:00am — 15 Comments
चुपके-चुपके चैत ने, घोला अपना रंग।
और बदन की स्वेद से, शुरू हो गई जंग।
पल-पल तपते सूर्य की, ऐसी बिछी बिसात।
हर बाज़ी वो जीतकर, हमें दे रहा मात।
लू लपटों ने कर लिया, दुपहर पर अधिकार।
दिन भर तनकर घूमता, दिनकर…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on March 22, 2014 at 10:00pm — 15 Comments
जिंदगी जब से सधी होने लगी
जाने क्यूँ उनकी कमी होने लगी
डूब कर हमने जिया है काम को
काम से ही अब ख़ुशी होने लगी
हारना सीखा नहीं हमने यदा
दुश्मनो में खलबली होने लगी
नेक दिल की बात करते है चतुर
हर कहे अक से बदी होने लगी
चाँद पूनम का खिला जब यूँ लगा
यादें दिल की फिर कली होने लगी
------- शशि पुरवार
मौलिक और अप्रकाशित
Added by shashi purwar on March 22, 2014 at 9:30pm — 11 Comments
2122 1122 1122 22
अब्र चाहत के जहाँ दिल से करम करते हैं
ऐसी झीलों में मुहब्बत के कँवल झरते हैं
मजहबी छीटें रकाबत के जहाँ पर गिरते
उन तड़ागों के बदन मैले हुआ करते हैं
बस गए हैं जो बिना खौफ़ विषैले अजगर
वादियों में वो सभी आज जह्र भरते हैं
मस्त भँवरों की शरारत की यहाँ अनदेखी
फूल पत्तों पे चढ़ी दर्द भरी परते हैं
सौदे बाजों की बगल में हुई आहट सुनकर
धीमे-धीमे…
ContinueAdded by rajesh kumari on March 22, 2014 at 9:00pm — 12 Comments
बह्र : १२२२ १२२२ १२२२ १२२२
कहीं भी आसमाँ पे मील का पत्थर नहीं होता
भटक जाता परिंदा, गर ख़ुदा, रहबर नहीं होता
कहें कुछ भी किताबें, देश का हाकिम ही मालिक है
दमन की शक्ति जिसके पास हो, नौकर नहीं होता
बचा पाएँगी मच्छरदानियाँ मज़लूम को कैसे
यहाँ जो ख़ून पीता है महज़ मच्छर नहीं होता
मिलाकर झूठ में सच बोलना, देना जब इंटरव्यू
सदा सच बोलता है जो कभी अफ़सर नहीं होता
ये पीली पत्तियाँ, पत्ते हरे आने…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 22, 2014 at 8:00pm — 28 Comments
गजल (रहनुमा)
2122 2122 2122 2122
इस शहर मैं रस्मे-आमद लोग इस तरह निभाते हैं
हाथों मैं गुल होते नहीं और पत्थर लिए नजर आते हैं
तेरी सूरत मेरी सूरत से हसीं नहीं बताने को ये
आने वाले हर शख्स को वो आईना दिखलाते हैं
वो भी देख लें कभी गिरेवां मैं अपने झांककर यारों
दूसरों पे जो यूँ ही अक्सर उँगलियाँ ऊठाते हैं
मैं जो निकला हूँ सफर पे तो मंजिल पा ही लूँगा कभी
फिर क्यूँ मुझे मेरी मंजिल का पता बतलाते हैं
जाने किस भेष…
Added by Sachin Dev on March 22, 2014 at 5:00pm — 14 Comments
घनाक्षरी- (कलाधर) -छन्द........होली....!
गुरू लघु गुणे 15 अन्त में एक गुरू कुल 31 वर्ण होते हैं।
अंग अंग में तरंग, बोलचाल में बिहंग, धूप सृष्टि में रसाल, बौर रूप आम है।
रूप रंग बाग लिए, अग्नि बाण ढाक लिए, शम्भु ने कहा अनंग, सौम्य रूप काम है।।
प्राण-प्राण में उमंग, रास रंग में बसंत, ऊंच - नीच, भेद - भाव, टूटता धड़ाम है।
प्रेम का प्रसंग फाग, रंग - भंग भी सुहाग, अंग से मिला सुअंग, हर्ष को प्रणाम है।।
के0पी0सत्यम-मौलिक व अप्रकाशित
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 22, 2014 at 10:30am — 3 Comments
बीज मन्त्र..................!
दोहा- बीज बीज से बन रहा, बीज बनाता कौन?
बीज सकल संसार ही, बीज मन्त्र बस मौन।।
चौ0- निष्ठुर बीज गया गहरे में। संशय शोक हुआ पहरे में।।
मां की आखों का वह तारा। दिल का टुकड़ा बड़ा दुलारा।।
सींचा तन को दूध पिलाकर। दीन धर्म की कथा सुनाकर।।
बड़े प्रेम से सिर सहलाती। अंकुर की महिमा समझाती।।
शिशु की गहरी निन्द्रा टूटी। अहं द्वेष माया भी छूटी।।
अंकुर ने जब ली…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 22, 2014 at 9:30am — 5 Comments
ग़ज़ल
फाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फैलुन
२१२२ ११२२ ११२२ २२
फूल की ख़ुशबू को हम यूं भी लुटा देते हैं |
करते हैं इश्क़ ज़माने को बता देते है |
एक चिंगारी है सीने में हवा देते हैं |
हम ग़ज़ल कहते हुए ख़ुद को सज़ा देते हैं |
जिसकी शाखों पे घरौंदों में मुहब्बत ज़िंदा ,
ऐसे पेड़ों को परिंदे भी दुआ देते हैं |
इश्क़ लहरों से अगर है तो क़िला गढ़ना क्या ,
रेत के घर को बनाते हैं मिटा देते हैं |…
Added by Abhinav Arun on March 22, 2014 at 7:30am — 20 Comments
शौख से आशियाँ उजाड़ ,ये इख्तियार है तुझे ,
खानाबदोश हूँ ,ठहरना मेरी फितरत भी नहीं है
मेरे जख्मों पर नमक छिड़क गया ,वो आज ,
उसके ही दिए तोहफों कि याद दिला गया वो आज
उसकी नफरतों के जाम को भी
शांती कि कीमत समझ पिया…
ContinueAdded by Dr Dilip Mittal on March 21, 2014 at 7:22pm — 6 Comments
कहो प्रिय , कैसे सराहूँ
मैं सौंदर्य तुम्हारा.
मैं चाहता हूँ,
तुम्हारे मुख को कहूँ माहताब.
अधरों को कहूँ लाल गुलाब .
महकती केश राशि को संज्ञा दूँ
मेघ माल की .
लहराते आँचल को कहूँ
मधु मालती .
पर, अपवर्तन का अपना नियम है,
मेरी दृष्टि गुजरती है,
तुम तक पहुचने से पहले
संवेदना के तल से,
और हो जाती है अपवर्तित
सड़क किनारे डस्टबिन में
खाना ढूंढते व्यक्ति पर,
प्लेटफार्म पर भीख मांगते
चिक्कट बालों वाली…
Added by Neeraj Neer on March 21, 2014 at 7:00pm — 10 Comments
2122- 2122- 2122
दिल से निकले वो तराना चाहता हूँ
इक मसर्रत का फसाना चाहता हूँ (मसर्रत =खुशी)
देख कर मुझको छलक जायें न आँसू
तेरी खातिर मुस्कुराना चाहता हूँ
जी लिया मैंने बहुत बचते हुये अब
मुश्किलों को आजमाना चाहता हूँ
बेझिझक मै पत्थरों के शह्र जाके
उनको आईना दिखाना चाहता हूँ
सुब्ह की चुभती हुई इस धूप को मैं
अपनी आँखों से हटाना चाहता हूँ
हर…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on March 21, 2014 at 6:30pm — 28 Comments
रिश्ते बनते प्यार से, मत करना तकरार
खुशियाँ बसती हैं यहाँ, चहक उठें परिवार /
चहक उठें परिवार, सभी जो मिलझुल रहते
मुश्किल करते दूर ,सुख दुःख मिलकर सहते
सुदृढ बने परिवार ,तो बसें वहाँ फरिश्ते
तनिक न रहे खटास ,बनाना ऐसे रिश्ते //
........................................................
.............मौलिक व अप्रकाशित................
Added by Sarita Bhatia on March 21, 2014 at 9:38am — 8 Comments
आंखों देखी – 13 पुराने दिन नयी बातें
रूसी आतिथ्य के शानदार अनुभव (देखिये आंखों देखी – 12) के बाद नोवो स्टेशन जाने का आकर्षण स्वत: कम हो गया था. हम लोगों ने शिर्माकर ओएसिस के खूबसूरत झील ‘प्रियदर्शिनी’ के किनारे स्थित भारतीय शिविर को साफ़ किया. डेढ़ दो महीने बाद अगले अभियान दल को पहुँचना था अत: यह सुनिश्चित करना कि नए दल के सदस्यों को “मैत्री” पहुँचकर कोई असुविधा न हो हमारा नैतिक दायित्व था. शिर्माकर में हम लोग 12 दिन रहे जिस दौरान हिमनदीय, भूवैज्ञानिक और जीवविज्ञान सम्बंधी…
Added by sharadindu mukerji on March 21, 2014 at 4:48am — 6 Comments
एक गज़ल
(मफ़ाईलुन,मफ़ाईलुन,मफ़ाईलुन,मफ़ाईलुन)
कहीं सूरत नहीं मिलती,कहीं सीरत नहीं मिलती ॥
वफ़ा करकॆ मुनासिब सी,हमॆं कीमत नहीं मिलती ॥१॥
लियॆ उल्फ़त फिरॆ दर-दर,वफ़ाऒं का भरम पालॆ,
ज़हां मॆं प्यार की हमकॊ,खरी दौलत नहीं मिलती ॥२॥
मिटा दीं आज हमनॆ सब, लकीरॆं हाँथ की अपनॆ,
मिटा दूँ नाम इक तॆरा, यही ताक़त नहीं मिलती ॥३॥
सुनॆं हैं प्यार कॆ किस्सॆ, ज़मानॆ कॊ बहुत कहतॆ,
किताबॊं मॆं लिखा तॊ है,मगर चाहत नहीं मिलती ॥४॥
दिलॆ -…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on March 21, 2014 at 2:30am — 9 Comments
नयनों की इस झील का, कितना निर्मल नीर।
बूँद बूँद कहती रही, देखो तल की पीर॥
वो आती हैं जब यहाँ, होता है आभास!
तपते पग को ज्यों मिले,पथ पर कोमल घास!!
मन शुक फिर बनने लगा,चखने चला रसाल !!
कितना मोहक रूप है,कितने सुन्दर गाल!!
केश कहूँ या तरु सघन,होता है यह भ्राम!!
इन केशों की छाँव में,कर लूँ मैं विश्राम!!
प्रेममयी इस झील का,अविरल मंद प्रवाह!
इसकी परिधि अमाप है,और नहीं है थाह!!
रंगों की वर्षा…
ContinueAdded by ram shiromani pathak on March 20, 2014 at 8:00pm — 11 Comments
ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता जब यौन शोषण की घटनाएँ खबरों में नहीं आती। खबर पढ़कर हृदय ग्लानि और अपराध-बोध के दलदल में धँस जाता है। खुद से पूछता हूँ- यह यौन शोषण है क्या? अब आप कहेंगे- कैसा अनपढ़ और गवाँर हूँ। यौन शोषण का अर्थ तक नहीं समझता। तो मैं आपसे पूछता हूँ। क्या आप सही मायने में इसका उत्तर बता सकते हैं? मेरा तात्पर्य उस प्रश्न से ही जुड़ा है। आखिर यह शोषण हमेशा स्त्रियों के साथ ही क्यों होता है? क्या यह शारीरिक रूप से पीड़ादायी है या मानसिक रूप से भी? क्या यह केवल शारीरिक है या पूर्णतः मानसिक?…
ContinueAdded by Kundan Kumar Singh on March 20, 2014 at 4:00pm — 1 Comment
अपने आँसू दे गए ,किया हमें बेहाल
नया साल लाये नई खुशियाँ करें कमाल /
खुशियाँ करें कमाल, दूर हों उलझन सारी
छाए नया बसंत, खिले अब बगिया न्यारी
सरिता करे गुहार, पूरे हों सभी सपने
करना रक्षा ईश ,बिछुड़े नहीं अब अपने//
...................................................
...........मौलिक व अप्रकाशित.............
Added by Sarita Bhatia on March 20, 2014 at 10:30am — 12 Comments
1222 1222 1222 1222
किया माथे तिलक झट से कहा नाकाम भी मुझको
बहुत ठोका लुहारों सा दिया आराम भी मुझको
*
गिरा तो भी समझ मेरी न आयी शातिरी उसकी
बिठाया पास भी अपने किया बदनाम भी मुझको
*
पता है साथ उसके तो न आया था कभी सूरज
जलाता क्यो न जाने फिर शरद का घाम भी मुझको
*
हसाता चोट देकर भी बड़ा जालिम खुदा पाया
रूला देता न मरने का सुना पैगाम भी मुझको
*
अजब सी रहमतें उसकी अजब ही सब…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 20, 2014 at 6:30am — 14 Comments
अपनों नें जो मुझपर फेंका पत्थर है
वो गैरों के फूलों से तो बेहतर है
दुनिया समझी थी वो कोई शायर है
जिसका दामन मेरे अश्कों से तर है
ऐ खुशियों तुम सावन बनकर मत आना
पिछली बारिश ने तोडा मेरा घर है
भूखा मंदिर जायेगा क्या पायेगा
रोटी बन पाता क्या संगेमरमर है
धरती सौ हिस्सों में बाँटो होगा क्या
पक्षी का तो आना जाना उड़कर है
चूल्हा जलने से रोको इस बस्ती में
इस बस्ती में आंधी आने का…
ContinueAdded by भुवन निस्तेज on March 19, 2014 at 2:00pm — 18 Comments
2025
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2025 Created by Admin.
Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |