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All Blog Posts (19,140)

ज़िंदा हूँ मगर जीने का एहसास नही है

इक उसके चले जाने से कुछ पास नही है

ज़िंदा हूँ मगर जीने का एहसास नही है



वो दूर गया जब से ये बेजान है महफिल

साग़र है सुराही हैं मगर प्यास नही है



सुनने को तिरे पास भी जब वक़्त नही तो

कहने को मिरे पास भी कुछ ख़ास नहीं है

 

इस रूह के आगोश में है तेरी मुहब्बत

माना के तिरा प्यार मिरे पास नही है



रावण तो ज़माने में अभी ज़िंदा रहेगा

क़िस्मत में अभी राम के बनवास नही है



फिर कैसे यक़ी तुझपे करेगा ये ज़माना,

ख़ुद तुझको…

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Added by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on March 18, 2014 at 11:30pm — 21 Comments

फागुन चला गया

फागुन चला गया, अरे फागुन चला गया,

वह खुशमिजाज मौसम सगुन दे चला गया।

बागों में आम बौर बढ़े, फगुआ हवा में,

सर्दी के सितम से भी तो राहत दी पछुआ ने।

हर एक दिल को खुशनुमा करके चला गया,

फागुन चला गया, अरे फागुन ..................

सूरज की चमक को भी तो फागुन ने टटोला,

हर एक दिल को मौसमी अंदाज से तोला।

बूढ़ों को धूप, बच्चों को मुस्कान दे गया।

हर व्यक्ति को राहत भरा उनमान दे गया।

फागुन चला गया, अरे फागुन ..................

हम बात कहें, अन्नदाता के हिसाब…

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Added by Atul Chandra Awsathi *अतुल* on March 18, 2014 at 9:22pm — 2 Comments

संध्या बेला मधुरिम मधुरिम

संध्या बेला मधुरिम पल है

लाल कपोल लिए तन सूरज

ढलता पल-पल छिन-छिन हर पल

सहलाती पद उसके संध्या

करती सेवा उसकी रज-रज। 

मृग़ छौने थक जाते चलकर

दिवा चली सुस्ताने पल भर

स्वप्निल सपने देती संध्या

सब को मंजिल तक पहुंचाकर। 

बीता वासर बिछी चाँदनी

वृक्ष खड़े अलसाए लत-पत

खग और विहग पुकारे हरि को

वन्य माधुरी फैली इत-उत। 

सोचो संध्या गर ना होती

तो क्या सो पाते हम जी भर?

कर पाते,…

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Added by kalpna mishra bajpai on March 18, 2014 at 9:00pm — 6 Comments

पानी में आग--ओमप्रकाश क्षत्रिय "प्रकाश"

------पानी में आग -----------

पानी में आग वे लगाने लगे है .

भूखे थे पर वे चहचहाने लगे है .

फूलों की मानिंद प्यार करते थे

काँटों से दोस्ती वे निभाने लगे है .

जो स्वयं पास न कर सके परीक्षा

ऐसे शिक्षक आज पढ़ाने लगे है .

पुलिस ने चोरो से की दोस्ती

गश्त में वे अपनी सुसताने लगे .

देशसेवा का जज्बा लिए थे जो

वे अपने देश को ही खाने लगे है…

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Added by Omprakash Kshatriya on March 18, 2014 at 6:30pm — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
फ़क़त दो चार पल की बात है ये ( ग़ज़ल - गिरिराज भन्डारी )

1222     1222     122 

फ़क़त दो चार पल की बात है ये

हाँ, बस इक रात जैसी रात है ये

कबूतर, तुम यक़ीं करना समझ कर

कहूँ क्या? आदमी की जात है ये

 

रफ़ाक़त आप कैसे कह रहे हैं ?

असल में पीठ…

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Added by गिरिराज भंडारी on March 18, 2014 at 5:00pm — 25 Comments

अकेलापन [कुण्डलिया

बैठ अकेले सोचती ,तुमको दिन और रात
जान हमारी ले गए ,बहते हैं जज्बात /
बहते हैं जज्बात सजल हैं आँखें रहती
टूटा है विश्वास, हर निगाह यही कहती
तुम बिन हैं सुनसान सभी दुनिया के मेले
सरिता रही पुकार, हर रोज बैठ अकेले //

.........................................................

..................मौलिक व अप्रकाशित .............

Added by Sarita Bhatia on March 18, 2014 at 10:03am — 9 Comments

आया लो फागुन का मौसम

     आया लो फागुन का मौसम

 

आया लो फागुन का मौसम, मुझको पागल हो जाने दो !

वासंती  बयार ने  तेरे -

कोमल कुंतल को बिखराए,

गजब ढा रही तेरी बिंदिया-

गालों पर फागुन छा जाये ।

तेरा बदन गुलाल हुआ , अपनी ज़ुल्फों मे खो जाने दो

आया लो फागुन का मौसम, मुझको पागल हो जाने दो !

फागुन के मौसम मे तुम पर

फूलों की  बरसात  हुयी  है,

अंग अंग फागुनी हुआ ,और –

कामदेव  की  दुआ हुयी  है।

कैसे संयम करूँ प्रिये…

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Added by S. C. Brahmachari on March 17, 2014 at 10:30pm — 4 Comments

कुंडलिया छंद-लक्ष्मण लडीवाला

 होली का तौहार ये, रंगों का तौहार,

प्रेम भाव बढ़ता रहे, माने सब आभार 

माने सब आभार, प्रकृति की छटा निराली 

मिटा कर भेद भाव, चखे प्रेम भरी प्याली

मित्रो से अनुरोध, बना रसियों की टोली 

टेसू का हो रंग, प्रेम से खेले होली  |

(मौलिक व् अप्रकाशित)

Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 17, 2014 at 12:30pm — 4 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
जब से तेरी जुस्तजू होने लगी

2122- 2122- 212

जब से तेरी जुस्तजू होने लगी             (जुस्तजू=तलाश)

अजनबी सी मुझसे तू होने लगी

 

वक्त का होने लगा है वो असर

अब महक फूलों की बू होने लगी

 

भागता था जिस बला से दूर मैं

हर तरफ वो रू-ब-रू होने लगी

 

मुस्तकिल ये ज़िन्दगी होती नहीं           (मुस्तकिल= स्थाई)

क्यूँ इसी की आरज़ू होने लगी

 

उम्र के फटने लगे हैं अब लिबास

सो दवाओं से रफ़ू होने लगी

 

नफरतें ही…

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Added by शिज्जु "शकूर" on March 17, 2014 at 7:58am — 16 Comments

"विडम्बनाएं"

किरणों को अभिशाप पड़ेंगी वे जिन जिन पर

कर देंगी परछाईं काली किसी पटल पर ।

हर जीवन के संग जनमती मृत्यु, अजय है

हर आशा में छुपा निराशा का भी भय है ॥

धन औ ऋण का योग बनाता सदा शून्य है

गोल शून्य सा भाल किन्तु रत धन औ ऋण में ।

हासिल जिसका शून्य पराजय वह कहलाती

किन्तु शून्य को छू पाऊँ तो अजय विजय है ॥

हर आशा में छुपा निराशा का भी भय है ॥

जन्मदिवस कि ख़ुशी प्रसव के पीर से उपजी

राम नाम का ज्ञान मरा में छुपा मिला था…

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Added by Pradeep Kumar Shukla on March 17, 2014 at 12:41am — 4 Comments

सार ललित छंद -- शशि पुरवार

छन्न पकैया छन्न पकैया ,छंदो का क्या कहना

एक है हीरा दूजा मोती, बने कलम का गहना

छन्न पकैया छन्न पकैया ,राग हुआ है कैसा

प्रेम रंग की होली खेलो ,दोन टके का पैसा



छन्न पकैया छन्न पकैया ,रंग भरी पिचकारी

बुरा न मानो होली है ,कह ,खेले दुनिया सारी

छन्न पकैया छन्न पकैया , होली खूब मनाये

बीती बाते बिसरा दे ,तो , प्रेम नीति अपनाये



छन्न पकैया छन्न पकैया ,दुनिया है सतरंगी

क्या झूठा है क्या…

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Added by shashi purwar on March 16, 2014 at 10:30pm — 3 Comments

फाग

होली है .............


तुम रचाओं रास, रे कृष्‍णा
तुम रचाओ रास
राधा बुलाओ खास, रे कृष्‍णा
तुम रचाओ रास
हम होली मनाये आज, रे कृष्‍णा
तुम रचाओ रास
भक्त गाये फाग, रे कृष्‍णा
तुम रचाओ रास
उड़े हे रंग गुलाल, रे कृष्‍णा
तुम रचाओ रास
ब्रज लगे हमारे गांव, रे कृष्‍णा
तुम रचाओ रास
तुम रचाओं रास, रे कृष्‍णा
तुम रचाओ रास
---------------------
मौलिक अप्रकाशित

Added by रमेश कुमार चौहान on March 16, 2014 at 5:53pm — 1 Comment

कहमुकरियाँ-36 से 50/कल्पना रामानी

३६)

प्यारा लगता उसका साथ।

रोज़ मिलाता मुझसे हाथ।

बने हमकदम अपना मान,

क्या सखि साजन?

ना सखि लॉन!

37)

जब से वो जीवन में आया।

रोम-रोम में प्यार समाया।

खिले फूल सा महका तन-मन,

क्या सखि साजन?

ना सखि, यौवन!

38)

सखी! रात खिड़की से आया।

फूँक मारकर दिया बुझाया।

चैन लूट ले गया ठगोरा,

क्या सखि साजन?

नहीं, झकोरा!

39)

उससे जुड़े हृदय के तार।

मुझे बुलाता…

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Added by कल्पना रामानी on March 16, 2014 at 3:30pm — 9 Comments

होली और बादर : गीत

आ रे कारे बादर

रँग बरसाने आ रे

श्याम खेलें होरी

तू बरसाने आ रे

रँग अलग अलग भर ला

लाल, बैंगनी, पीला

कोई बच ना जाए

सबको कर दे गीला

खुशियों की बारिश में

तू भिंगाने आ रे

इन्द्रधनुष से रँग ला

त्याग उदासी काली

उल्लसित जीवन, डाल

मुख पे उमंग लाली ..

जो उदास है जग में

उन्हें हँसाने आ रे

हाथों में पिचकारी

गाल पे रंग गुलाल

सब मिल खेलें होरी

अंचल धरा का लाल

जीवन में खुशियाँ भर…

Continue

Added by Neeraj Neer on March 16, 2014 at 2:04pm — 6 Comments

मेरे पन्ने (प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा)

मेरे पन्ने 

-----------
जीवन पृष्ठ मेरे
हाथों में तेरे
खुली किताब की तरह
कुछ
चिपके पन्ने
कह रहे
दास्तान पढ़ने को
है अभी बाक़ी
लौट आया हूँ फिर
चाहता हूँ
रुकूँ अभी
हवा के तेज झोंके
जीवन पृष्ठों को
तेजी से बदलते हुए
चिपका हूँ
दीवार के साथ
बूझेगा अब कौन
न है मधुशाला
न उसमे साकी
मौलिक और अप्रकाशित
प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
१५ मार्च २०१४

Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 15, 2014 at 8:00pm — 6 Comments

ग़ज़ल- रात इक जुगनू हवा में कुलबुलाता रह गया

रात इक जुगनू हवा में कुलबुलाता रह गया

रौशनी के वास्ते खुद को जलाता रह गया



पेट की मजबूरियां थीं, हम शहर में बस गए

गाँव हमको ख्वाब में वापस बुलाता रह गया



कोठियाँ बेशक मेरे बच्चों ने कर दी हैं खड़ी

पर तुम्हारी याद का उसमें अहाता रह गया



आज मुझको काम से इक रोज की फुर्सत मिली

आज दिनभर लाडला बस मुस्कुराता रह गया



धन की देवी आपके घर क्यों कभी रुकती नहीं

चौक पर बैठा नजूमी ये बताता रह गया



आँख का हर प्रश्न आंसू की सतह में बह… Continue

Added by Anurag Anubhav on March 14, 2014 at 10:59pm — 25 Comments

अच्छा लगता है

छोटी खुशियाँ
गम पहाड़ से
फिर भी जीना
अच्छा लगता है
गम से लड़कर खुशियाँ पाना
अच्छा लगता है
दर्द बहुत है जीवन में
पर हाथ कोई मरहम का फेरे
अच्छा लगता है
खाकर तीखा और चटपटा
मीठा कुछ मिल जाए तो
अच्छा लगता है

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Pragya Srivastava on March 14, 2014 at 10:56pm — 2 Comments

ग़ज़ल

ज्यों जवां ये चांदनी होने लगी

त्यों सुबह की सुगबुगी होने लगी

 

जब समंदर सी नदी होने लगी

साहिलों सी ज़िन्दगी होने लगी

 

आदमी में हो न हो रूहानियत

आदमीयत लाज़मी होने लगी

 

तितलियों को मिल गयी जब से भनक

बाग़ में कुछ सनसनी होने लगी

 

यार ने आदी बनाया इस क़दर

हर नए ग़म से ख़ुशी होने लगी

 

आँधियों से रूह कांपी रेत की

पर्वतों में दिल्लगी होने लगी

 

फिर मुसाफ़िर रासता मंजिल…

Continue

Added by भुवन निस्तेज on March 14, 2014 at 9:30pm — 8 Comments

ख़यालों के रंग

इन ख़यालों के रंगों को ख्वाबों के इतर देखता कौन है

जब मिल रही है मुफ्त में खुराक तो फेरता कौन है

तितली के रंग हों या हो किसी दीवार पर चिलमन

बिना फायदे के इनसे अपनी आँखों को सेंकता कौन है



जब चढ़ रहा था रंग फूलों की फुलवारी पर

इठला रही थी माँ अपने बच्चे की किलकारी पर

ठीक उसी समय बरसनें लगती हैं सावन की बूदें

वरना पानी का इतना सरल सुंदर रूप देखता कौन है



ये नदियाँ जब गाती हैं कल-कल की धुन

पत्तों की सरसराहट से बढ़ जाती है कई गुन

प्रकृति ही…

Continue

Added by राणा रुद्र प्रताप सिंह on March 14, 2014 at 8:10pm — No Comments

तेरे बगैर

मेरी खुशी के संग खुल के खिलखिला जाना तेरा

ज़िंदगी मेरी नक्काशी तेरी और नज़राना तेरा

हो गई जो गलतियाँ या की कभी बदमाशियाँ

धीरे से चपत संग प्यार से समझाना तेरा

अब तू ही बता कैसे जियूं तेरे बगैर तेरे बगैर



चाँदनी के रंग सी याद है फितरत तेरी

देखते ही मुस्कुराना शायद थी आदत तेरी

शख्शियत सीने में रख कर याद फरमाता हूँ तुझे

प्लेट टूटी मुझसे थी पर भरना हरजाना तेरा

अब तू ही बता कैसे जियूं तेरे बगैर तेरे बगैर



हाजिरी तेरी सलामत अब भी है दराज़ में…

Continue

Added by राणा रुद्र प्रताप सिंह on March 14, 2014 at 8:06pm — 6 Comments

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