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दामन के दाग गजल

बात भी दिल की तुझे हम अब बतायें कैसे

साथ जो हमने बिताये पल भुलायें कैसे

बंद रखना तू न ओठों को बता दे इतना

बात जो दिल पर लिखी तुमने मिटायें कैसे

मौत भी करती रही है वेवफाई मुझसे

पास हम अपने बुलायें तो बुलायें कैसे

आपकी तो चाहतो में खुद जले थे ऐसे

लाश भी कोई हमारी अब जलायें कैसे

खोल कर अपने लबों को तू बता दे यारा

दाग दामन पर लगे हैं वो धुलायें कैसे

मौलिक एवं अप्रकाशित अखंड गहमरी

Added by Akhand Gahmari on April 3, 2014 at 5:17pm — 12 Comments

ग़ज़ल- सारथी || न सोना न चांदी न धन ले गई ||

न सोना न चांदी न धन ले गई 

मुहब्बत मेरी बांकपन ले गई/१  

हजारों फ़रिश्ते गये हारकर 

मेरी जान तो गुलबदन ले गई/२  

नई ताजगी है नई सुब्ह है 

चलो! मौत मेरी थकन ले गई/३ 

न मशहूर होना खुदा के लिए 

समंदर नदी की उफन ले गई/४  

चलो बेच आएं बची रूह को  

गरीबी हमारे बदन ले गई/५ 

न ताक़त रही ज़ोश भी कम गया

शिकस्ते वफ़ा सब अगन ले गई/६ 

लिबासें चमकती रहे इसलिए 

सियासत शहीदी…

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Added by Saarthi Baidyanath on April 3, 2014 at 4:00pm — 27 Comments

मैं कितना झूठा था !!

कितनी सच्ची थी तुम , और मैं कितना झूठा था !!!

 

तुम्हे पसंद नहीं थी सांवली ख़ामोशी !

मैं चाहता कि बचा रहे मेरा सांवलापन चमकीले संक्रमण से !

तब रंगों का अर्थ न तुम जानती थी , न मैं !

 

एक गर्मी की छुट्टियों में -

तुम्हारी आँखों में उतर गया मेरा सांवला रंग !

मेरी चुप्पी थोड़ी तुम जैसी चटक रंग हो गई थी !

 

तुम गुलाबी फ्रोक पहने मेरा रंग अपनी हथेली में भर लेती !

मैं अपने सीने तक पहुँचते तुम्हारे माथे को सहलाता कह उठता…

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Added by Arun Sri on April 3, 2014 at 11:24am — 22 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
रात थी लेकिन अँधेरा उतना भी गहरा न था- ग़ज़ल

2122- 2122- 2122- 212

रात थी लेकिन अँधेरा उतना भी गहरा न था

सब दिखाई दे गया आँखो में जो पर्दा न था

 

झूठ की बुनियाद पर कोई महल बनता नहीं

झूठ आखिर झूठ है उसको तो सच होना न था

 

शोर था सारे जहाँ में इक लहर की बात थी

कोई दा'वा उस लहर का अस्ल में सच्चा न था

 

कहने को तो साथ मेरे कारवाँ था लोग थे

मैं वही था हाँ मगर वो दौर पहले सा न था

 

ये सफर गुज़रा बड़े आराम से तो अब तलक

आखिरश रुकना पड़ा मुझको कि…

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Added by शिज्जु "शकूर" on April 2, 2014 at 7:32pm — 28 Comments

सार्थक हस्तक्षेप के कवि: महेंद्रभटनागर - डॉ. कौशलनाथ उपाध्याय

सार्थक हस्तक्षेप के कवि: महेंद्रभटनागर

—   डॉ. कौशलनाथ उपाध्याय

      प्रोफे़सर, हिन्दी-विभाग, जयनारायणव्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर

 

 

                                हिम्मत न हारो!

                        कंटकों के बीच मन-पाटल खिलेगा एक दिन!

                                                हिम्मत न हारो!…

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Added by MAHENDRA BHATNAGAR on April 2, 2014 at 10:30am — 3 Comments

ख़वाहिशें...

नन्हीं नन्हीं

ख़वाहिशें जन्मी है

जैसे पतझड़ के बाद

नन्हीं कलियाँ

नन्ही कोपले

 

बड़े आग़ाज़ का

छोटा सा ख़ाका

बड़ी उम्मीदों की

छोटी सी किरन

 

उगने दो इन्हें

पनपने दो

कल की धूप के लिए

इनके साये बनने दो

 

करो तैयारी

खूबसूरत शुरुआत कि

सजाओ बस्ती

अपने जहान कि

के फिर

मौसम ने करवट ली है

फिर क़िस्मत ने दवात दी है

फिर खुशियों ने रहमत की…

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Added by Priyanka singh on April 1, 2014 at 2:32pm — 20 Comments

गजल.....जमाना धूल-गर्दिश का-

गजल.....जमाना धूल-गर्दिश का

बह्र - 1222, 1222, 1222, 1222

इशारों ही इशारों में, इशारे कर रहे हैं हम।

तरफदारी हमारी तो, हजारों मर रहे हैं हम।।

उदारी नीति पावन पर, दिशा हर बार संहारी,

गरीबी भेड़ जैसी बस, कुॅंओं को भर रहे हैं हम।।1

भिड़े हैं शेर-हाथी गर, शिवा-राणा लड़े गॉंधी,

हमें भी देखिये साहब, गधों से डर रहे हैं हम।2

कहानी जब सुनाते हैं, हमें तो नींद आती है,

उड़ा…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 1, 2014 at 10:52am — 15 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
तीर दिल पे चलाये छुप के, पर ( ग़ज़ल ) गिरिराज़ भंडारी

2122       1212      112/22

बांट के     छाव,     धूप     पीते   हैं      

ज़िन्दगी  हम…

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Added by गिरिराज भंडारी on April 1, 2014 at 10:30am — 32 Comments

खुशबू के पल भीने से/नवगीत/कल्पना रामानी

रंग चले निज गेह, सिखाकर

मत घबराना जीने से।

जंग छेड़नी है देहों को,

सूरज, धूप, पसीने से।

 

शीत विदा हो गई पलटकर।

लू लपटें हँस रहीं झपटकर।

वनचर कैद हुए खोहों में,

पाखी बैठे नीड़ सिमटकर।

 

सुबह शाम जन लिपट रहे हैं,

तरण ताल के सीने से।

 

तले भुने पकवान दंग हैं।

शायद इनसे लोग तंग हैं।

देख रहे हैं टुकुर-टुकुर वे,

फल, सलाद, रस के प्रसंग हैं।

 

मात मिली भारी वस्त्रों…

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Added by कल्पना रामानी on April 1, 2014 at 10:30am — 16 Comments

अलविदा

संध्या निश्चित है ,

सूर्य अस्ताचल की ओर

है अग्रसर ..

मुझे संदेह नहीं

अपनी भिज्ञता पर

तुम्हारी विस्मरणशीलता के प्रति

फिर भी अपनी बात सुनाता हूँ.

आओ बैठो मेरे पास

जीवन गीत सुनाता हूँ.

डूबेगा व सूरज भी

जो प्रबलता से अभी

है प्रखर .

तुम भूला दोगे मुझे, कल

जैसे मैं था ही नहीं कोई.

सुख के उन्माद में मानो

आने वाली व्यथा ही नहीं कोई.

सत्य का स्वाद तीखा है,

असत्य क्षणिक है,

मैं सत्य सुनाता हूँ…

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Added by Neeraj Neer on April 1, 2014 at 9:24am — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
उद्घोष

उद्घोष

(ओ.बी.ओ. की चौथी वर्षगाँठ पर ओ.बी.ओ. परिवार के सभी का अभिनंदन करते हुए)

 

गली-गली पवन चली, किलक उठी कली-कली,
महक उठे पराग बिंद, थिरक उठे अलि-अलि.

 

जाग उठा तमाल वन, जाग उठा है हर चमन,
किसी के आगमन के साथ, जाग उठा है हर सपन.

उम‌ड़ रहे जलद दल, घुमड़ रहे वे हो विकल,
कर रहे उद्घोष सब, ये किसी का जन्म पल.

(मौलिक व अप्रकाशित रचना)

Added by sharadindu mukerji on April 1, 2014 at 1:32am — 6 Comments

ग़ज़ल-चादनीं तुम मेरी बनीं हो क्या

दूर है चाँद बंदगी हो क्या

दिल की बस्ती में रौशनी हो क्या 

 

और के ख्वाब को न आने दिये

ख्वाब में ऐसी नौकरी हो क्या 

 

मुड़के देखा हमें न जाते हुये

तल्ख़ इससे भी बेरुखी हो क्या 

 …

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Added by Atendra Kumar Singh "Ravi" on March 31, 2014 at 6:00pm — 16 Comments

चाँद मुझे तरसाते क्यूँ हो ?

चाँद मुझे तरसाते क्यूँ हो ?

 

तुम सुंदर हो , तुम भोले हो

नटखट तुम हो बहुत सलोने ।

रूठ - रूठ जाते क्यूँ मुझसे ?

छुप छुप कर बादल के कोने ।

तुम बादल से झांक झांक कर, अपना रूप दिखाते क्यूँ हो

चाँद मुझे तरसाते क्यूँ हो ?

मुझसे स्नेह नहीं है, मानूँ –

तुम छुप जाओ नज़र न आओ ।

चंद्र बदन ढँक लो तुम अपना

मेरी बगिया नज़र न आओ ।

आँख मिचौली खेल खेल कर, रह रह मुझे रिझाते क्यूँ हो

चाँद मुझे…

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Added by S. C. Brahmachari on March 31, 2014 at 5:00pm — 8 Comments

ग़ज़ल

साकी तो  हो गिलास भी हो क्या !

घूँट-दो -घूँट ये प्यास भी हो क्या  !

--

दूर-दूर यूँ रहकर पास भी हो क्या !

मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या !

--

क्यूँ लगता है डर सा अंधेरों को ?

मुझसे कह दो उजास भी हो क्या !

--

ढँक रही हो  मुझको  शिदद्त  से,

मेरी हमनफ़स लिबास भी हो क्या !

--

दूध जैसी निर्मल…

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Added by AVINASH S BAGDE on March 31, 2014 at 4:47pm — 3 Comments

बना खूब सरताज (दोहे) -ओबीओ की चौथी वर्षगाँठ के शुभ अवसर पर

1 अप्रैल 2014 को ओबीओ की चौथी वर्षगाँठ है। चार वर्षो में इस मंच ने मुझ जैसे सैकड़ों लेखको को तैयार किया है | इस अवसर पर दोहों के रूप में सभी सदस्यों में सहर्ष पुष्प समर्पित है ।-

 

 

मना रहे सब साथ में, उत्सव देखो आज

चार वर्ष कर पूर्ण ये, बना खूब सरताज |

 

बागी की ही सोच से, बिछ पाया यह साज

योगराज…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 31, 2014 at 3:30pm — 15 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
लगे है धूप भी -ग़ज़ल

1222- 1222- 1222

मुसीबत साथ आई हमसफर की तरह

लगे है धूप भी अब राहबर की तरह

 

सहे जाता हूँ मौसम की अज़ीयत मैं                     अज़ीयत =यातना

बियाबाँ मे किसी उजड़े शजर की तरह

 

झुलसने लगता है मन सुब्ह उठते ही

हुये दिन गर्मियों की दोपहर की तरह

 

घुटन होने लगी है इन हवाओं मे

जहाँ लगने लगा है बन्द घर की तरह

 

हिसारे ग़म से बाहर लाये कोई तो                    हिसारे ग़म= ग़म का घेरा

मुसल्सल…

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Added by शिज्जु "शकूर" on March 31, 2014 at 8:08am — 29 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आंखों देखी -14 एक नये अध्याय की सूचना

आंखों देखी -14 एक नये अध्याय की सूचना

 

05 दिसम्बर 1986 के दिन पहली बार जहाज “थुलीलैण्ड” के साथ हम लोगों का रेडियो सम्पर्क स्थापित हुआ. अभी भी नये अभियान दल को अंटार्कटिका पहुँचने में लगभग तीन सप्ताह का समय लगना था, लेकिन मन में कितने ही मिश्रित भाव उमड़ने लगे. जहाज मॉरीशस के इलाके में था. एक साल पहले वहाँ से गुजरते हुए हम लोगों को जहाज से उतरने की अनुमति नहीं मिली थी. क्या वापसी यात्रा में हम मॉरीशस की धरती पर उतरेंगे ? कौन जाने ! फिलहाल जहाज के आने की प्रतीक्षा है – उसमें…

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Added by sharadindu mukerji on March 31, 2014 at 1:30am — 17 Comments

जो भूखा रो रहा उसको नही रोटी खिलाते हैं

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२

जो भूखा रो रहा उसको नही रोटी खिलाते हैं

जो बुत हैं मौन मंदिर में उन्हें सब सर झुकाते हैं

 

जिकर होता है जिसका दोस्तों हर सांस में मेरी

मेरे दुश्मन का लेके नाम वो मेंहदी रचाते है  

 

जहाँ भी चाहते दिल फेंकते आदत है ये उनकी

नजर जब हमसे मिलती है तो वो कितना लजाते हैं

 

सजाये थे गुलाबी पांखुरी से पथ मगर अब क्या

जो पल्लू झाड़ियों में खुद ही अब उलझाये जाते हैं

 

गुलाबों की भी किस्मत आशु…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on March 30, 2014 at 1:00pm — 19 Comments

नवगीत-----झील चुप सी.......!

नवगीत--झील चुप सी.......!

झील चुप सी राह तकती,

नाव डगमग

भाव भर कर

राज सारे पूछती है।

रेत फिसली

तट सॅवर कर,

हाथ पल पल

धो रही नित,

मल घुला जल

विष भरे तन

मीन प्यासी कोसती है।।1



सूर्य किरनों से

पिए नित रक्त

नदियों के बदन का,

धर्म की

पतवार भी अब

तीर सम तन छेदती है।।2



वन-सरोवर

तन उचट कर

छॉंव गिर कर

दूर जाती।

प्रेम का

सम्बन्ध रचकर

सांझ तक मन सोखती…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 30, 2014 at 8:53am — 17 Comments

ग़ज़ल: जां कभी ये जहान लेता है

जां कभी ये जहान लेता है

और कभी आसमान लेता है



सब्र का इम्तेहान लेता है

हिज़्र का पल भी जान लेता है



रिंद आबे हयात पी आया 

और वाइज़ बयान लेता है



लोग कहते हैं सर कटा ले तू

और वो बात मान लेता है



पैरवी कर के वो लुटेरों की

रोज मुफ़लिस की जान लेता है



लो ग़ज़ल बन गयी ये कहते हैं

जब वो कहने की ठान लेता है



वो मुझे राज़दार है कहता 

और शमशीर तान लेता है



धार आ जाती है हवाओ में

ख्वाब जब भी उड़ान…

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Added by भुवन निस्तेज on March 30, 2014 at 12:00am — 10 Comments

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