बात भी दिल की तुझे हम अब बतायें कैसे
साथ जो हमने बिताये पल भुलायें कैसे
बंद रखना तू न ओठों को बता दे इतना
बात जो दिल पर लिखी तुमने मिटायें कैसे
मौत भी करती रही है वेवफाई मुझसे
पास हम अपने बुलायें तो बुलायें कैसे
आपकी तो चाहतो में खुद जले थे ऐसे
लाश भी कोई हमारी अब जलायें कैसे
खोल कर अपने लबों को तू बता दे यारा
दाग दामन पर लगे हैं वो धुलायें कैसे
मौलिक एवं अप्रकाशित अखंड गहमरी
Added by Akhand Gahmari on April 3, 2014 at 5:17pm — 12 Comments
न सोना न चांदी न धन ले गई
मुहब्बत मेरी बांकपन ले गई/१
हजारों फ़रिश्ते गये हारकर
मेरी जान तो गुलबदन ले गई/२
नई ताजगी है नई सुब्ह है
चलो! मौत मेरी थकन ले गई/३
न मशहूर होना खुदा के लिए
समंदर नदी की उफन ले गई/४
चलो बेच आएं बची रूह को
गरीबी हमारे बदन ले गई/५
न ताक़त रही ज़ोश भी कम गया
शिकस्ते वफ़ा सब अगन ले गई/६
लिबासें चमकती रहे इसलिए
सियासत शहीदी…
ContinueAdded by Saarthi Baidyanath on April 3, 2014 at 4:00pm — 27 Comments
कितनी सच्ची थी तुम , और मैं कितना झूठा था !!!
तुम्हे पसंद नहीं थी सांवली ख़ामोशी !
मैं चाहता कि बचा रहे मेरा सांवलापन चमकीले संक्रमण से !
तब रंगों का अर्थ न तुम जानती थी , न मैं !
एक गर्मी की छुट्टियों में -
तुम्हारी आँखों में उतर गया मेरा सांवला रंग !
मेरी चुप्पी थोड़ी तुम जैसी चटक रंग हो गई थी !
तुम गुलाबी फ्रोक पहने मेरा रंग अपनी हथेली में भर लेती !
मैं अपने सीने तक पहुँचते तुम्हारे माथे को सहलाता कह उठता…
ContinueAdded by Arun Sri on April 3, 2014 at 11:24am — 22 Comments
2122- 2122- 2122- 212
रात थी लेकिन अँधेरा उतना भी गहरा न था
सब दिखाई दे गया आँखो में जो पर्दा न था
झूठ की बुनियाद पर कोई महल बनता नहीं
झूठ आखिर झूठ है उसको तो सच होना न था
शोर था सारे जहाँ में इक लहर की बात थी
कोई दा'वा उस लहर का अस्ल में सच्चा न था
कहने को तो साथ मेरे कारवाँ था लोग थे
मैं वही था हाँ मगर वो दौर पहले सा न था
ये सफर गुज़रा बड़े आराम से तो अब तलक
आखिरश रुकना पड़ा मुझको कि…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on April 2, 2014 at 7:32pm — 28 Comments
सार्थक हस्तक्षेप के कवि: महेंद्रभटनागर
— डॉ. कौशलनाथ उपाध्याय
प्रोफे़सर, हिन्दी-विभाग, जयनारायणव्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर
हिम्मत न हारो!
कंटकों के बीच मन-पाटल खिलेगा एक दिन!
हिम्मत न हारो!…
ContinueAdded by MAHENDRA BHATNAGAR on April 2, 2014 at 10:30am — 3 Comments
नन्हीं नन्हीं
ख़वाहिशें जन्मी है
जैसे पतझड़ के बाद
नन्हीं कलियाँ
नन्ही कोपले
बड़े आग़ाज़ का
छोटा सा ख़ाका
बड़ी उम्मीदों की
छोटी सी किरन
उगने दो इन्हें
पनपने दो
कल की धूप के लिए
इनके साये बनने दो
करो तैयारी
खूबसूरत शुरुआत कि
सजाओ बस्ती
अपने जहान कि
के फिर
मौसम ने करवट ली है
फिर क़िस्मत ने दवात दी है
फिर खुशियों ने रहमत की…
ContinueAdded by Priyanka singh on April 1, 2014 at 2:32pm — 20 Comments
गजल.....जमाना धूल-गर्दिश का
बह्र - 1222, 1222, 1222, 1222
इशारों ही इशारों में, इशारे कर रहे हैं हम।
तरफदारी हमारी तो, हजारों मर रहे हैं हम।।
उदारी नीति पावन पर, दिशा हर बार संहारी,
गरीबी भेड़ जैसी बस, कुॅंओं को भर रहे हैं हम।।1
भिड़े हैं शेर-हाथी गर, शिवा-राणा लड़े गॉंधी,
हमें भी देखिये साहब, गधों से डर रहे हैं हम।2
कहानी जब सुनाते हैं, हमें तो नींद आती है,
उड़ा…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 1, 2014 at 10:52am — 15 Comments
Added by गिरिराज भंडारी on April 1, 2014 at 10:30am — 32 Comments
रंग चले निज गेह, सिखाकर
मत घबराना जीने से।
जंग छेड़नी है देहों को,
सूरज, धूप, पसीने से।
शीत विदा हो गई पलटकर।
लू लपटें हँस रहीं झपटकर।
वनचर कैद हुए खोहों में,
पाखी बैठे नीड़ सिमटकर।
सुबह शाम जन लिपट रहे हैं,
तरण ताल के सीने से।
तले भुने पकवान दंग हैं।
शायद इनसे लोग तंग हैं।
देख रहे हैं टुकुर-टुकुर वे,
फल, सलाद, रस के प्रसंग हैं।
मात मिली भारी वस्त्रों…
ContinueAdded by कल्पना रामानी on April 1, 2014 at 10:30am — 16 Comments
संध्या निश्चित है ,
सूर्य अस्ताचल की ओर
है अग्रसर ..
मुझे संदेह नहीं
अपनी भिज्ञता पर
तुम्हारी विस्मरणशीलता के प्रति
फिर भी अपनी बात सुनाता हूँ.
आओ बैठो मेरे पास
जीवन गीत सुनाता हूँ.
डूबेगा व सूरज भी
जो प्रबलता से अभी
है प्रखर .
तुम भूला दोगे मुझे, कल
जैसे मैं था ही नहीं कोई.
सुख के उन्माद में मानो
आने वाली व्यथा ही नहीं कोई.
सत्य का स्वाद तीखा है,
असत्य क्षणिक है,
मैं सत्य सुनाता हूँ…
Added by Neeraj Neer on April 1, 2014 at 9:24am — 12 Comments
उद्घोष
(ओ.बी.ओ. की चौथी वर्षगाँठ पर ओ.बी.ओ. परिवार के सभी का अभिनंदन करते हुए)
गली-गली पवन चली, किलक उठी कली-कली,
महक उठे पराग बिंद, थिरक उठे अलि-अलि.
जाग उठा तमाल वन, जाग उठा है हर चमन,
किसी के आगमन के साथ, जाग उठा है हर सपन.
उमड़ रहे जलद दल, घुमड़ रहे वे हो विकल,
कर रहे उद्घोष सब, ये किसी का जन्म पल.
(मौलिक व अप्रकाशित रचना)
Added by sharadindu mukerji on April 1, 2014 at 1:32am — 6 Comments
दूर है चाँद बंदगी हो क्या
दिल की बस्ती में रौशनी हो क्या
और के ख्वाब को न आने दिये
ख्वाब में ऐसी नौकरी हो क्या
मुड़के देखा हमें न जाते हुये
तल्ख़ इससे भी बेरुखी हो क्या
…
ContinueAdded by Atendra Kumar Singh "Ravi" on March 31, 2014 at 6:00pm — 16 Comments
चाँद मुझे तरसाते क्यूँ हो ?
तुम सुंदर हो , तुम भोले हो
नटखट तुम हो बहुत सलोने ।
रूठ - रूठ जाते क्यूँ मुझसे ?
छुप छुप कर बादल के कोने ।
तुम बादल से झांक झांक कर, अपना रूप दिखाते क्यूँ हो
चाँद मुझे तरसाते क्यूँ हो ?
मुझसे स्नेह नहीं है, मानूँ –
तुम छुप जाओ नज़र न आओ ।
चंद्र बदन ढँक लो तुम अपना
मेरी बगिया नज़र न आओ ।
आँख मिचौली खेल खेल कर, रह रह मुझे रिझाते क्यूँ हो
चाँद मुझे…
ContinueAdded by S. C. Brahmachari on March 31, 2014 at 5:00pm — 8 Comments
साकी तो हो गिलास भी हो क्या !
घूँट-दो -घूँट ये प्यास भी हो क्या !
--
दूर-दूर यूँ रहकर पास भी हो क्या !
मुझसे मिलकर उदास भी हो क्या !
--
क्यूँ लगता है डर सा अंधेरों को ?
मुझसे कह दो उजास भी हो क्या !
--
ढँक रही हो मुझको शिदद्त से,
मेरी हमनफ़स लिबास भी हो क्या !
--
दूध जैसी निर्मल…
Added by AVINASH S BAGDE on March 31, 2014 at 4:47pm — 3 Comments
1 अप्रैल 2014 को ओबीओ की चौथी वर्षगाँठ है। चार वर्षो में इस मंच ने मुझ जैसे सैकड़ों लेखको को तैयार किया है | इस अवसर पर दोहों के रूप में सभी सदस्यों में सहर्ष पुष्प समर्पित है ।-
मना रहे सब साथ में, उत्सव देखो आज
चार वर्ष कर पूर्ण ये, बना खूब सरताज |
बागी की ही सोच से, बिछ पाया यह साज
योगराज…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 31, 2014 at 3:30pm — 15 Comments
1222- 1222- 1222
मुसीबत साथ आई हमसफर की तरह
लगे है धूप भी अब राहबर की तरह
सहे जाता हूँ मौसम की अज़ीयत मैं अज़ीयत =यातना
बियाबाँ मे किसी उजड़े शजर की तरह
झुलसने लगता है मन सुब्ह उठते ही
हुये दिन गर्मियों की दोपहर की तरह
घुटन होने लगी है इन हवाओं मे
जहाँ लगने लगा है बन्द घर की तरह
हिसारे ग़म से बाहर लाये कोई तो हिसारे ग़म= ग़म का घेरा
मुसल्सल…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on March 31, 2014 at 8:08am — 29 Comments
आंखों देखी -14 एक नये अध्याय की सूचना
05 दिसम्बर 1986 के दिन पहली बार जहाज “थुलीलैण्ड” के साथ हम लोगों का रेडियो सम्पर्क स्थापित हुआ. अभी भी नये अभियान दल को अंटार्कटिका पहुँचने में लगभग तीन सप्ताह का समय लगना था, लेकिन मन में कितने ही मिश्रित भाव उमड़ने लगे. जहाज मॉरीशस के इलाके में था. एक साल पहले वहाँ से गुजरते हुए हम लोगों को जहाज से उतरने की अनुमति नहीं मिली थी. क्या वापसी यात्रा में हम मॉरीशस की धरती पर उतरेंगे ? कौन जाने ! फिलहाल जहाज के आने की प्रतीक्षा है – उसमें…
ContinueAdded by sharadindu mukerji on March 31, 2014 at 1:30am — 17 Comments
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
जो भूखा रो रहा उसको नही रोटी खिलाते हैं
जो बुत हैं मौन मंदिर में उन्हें सब सर झुकाते हैं
जिकर होता है जिसका दोस्तों हर सांस में मेरी
मेरे दुश्मन का लेके नाम वो मेंहदी रचाते है
जहाँ भी चाहते दिल फेंकते आदत है ये उनकी
नजर जब हमसे मिलती है तो वो कितना लजाते हैं
सजाये थे गुलाबी पांखुरी से पथ मगर अब क्या
जो पल्लू झाड़ियों में खुद ही अब उलझाये जाते हैं
गुलाबों की भी किस्मत आशु…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on March 30, 2014 at 1:00pm — 19 Comments
नवगीत--झील चुप सी.......!
झील चुप सी राह तकती,
नाव डगमग
भाव भर कर
राज सारे पूछती है।
रेत फिसली
तट सॅवर कर,
हाथ पल पल
धो रही नित,
मल घुला जल
विष भरे तन
मीन प्यासी कोसती है।।1
सूर्य किरनों से
पिए नित रक्त
नदियों के बदन का,
धर्म की
पतवार भी अब
तीर सम तन छेदती है।।2
वन-सरोवर
तन उचट कर
छॉंव गिर कर
दूर जाती।
प्रेम का
सम्बन्ध रचकर
सांझ तक मन सोखती…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 30, 2014 at 8:53am — 17 Comments
जां कभी ये जहान लेता है
और कभी आसमान लेता है
सब्र का इम्तेहान लेता है
हिज़्र का पल भी जान लेता है
रिंद आबे हयात पी आया
और वाइज़ बयान लेता है
लोग कहते हैं सर कटा ले तू
और वो बात मान लेता है
पैरवी कर के वो लुटेरों की
रोज मुफ़लिस की जान लेता है
लो ग़ज़ल बन गयी ये कहते हैं
जब वो कहने की ठान लेता है
वो मुझे राज़दार है कहता
और शमशीर तान लेता है
धार आ जाती है हवाओ में
ख्वाब जब भी उड़ान…
Added by भुवन निस्तेज on March 30, 2014 at 12:00am — 10 Comments
2025
2024
2023
2022
2021
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