मानव
मानव इस संसार का, स्वयं बृह्म साकार।
दंगा आतंक द्वेष को, खुद देता आकार।।1
मानव मन का दास है, पल पल रचता रास।
अन्तर्मन को भूल कर, बना लोक का हास।।2
तंत्र-मंत्र मनु सीख कर, चढ़ा व्यास की पीठ।
करूणाकर सम बोलता, इन्द्रराज अति ढीठ।।3
स्वर्ग जिसे दिखता नहीं, वह है दुर्जन धूर्त।
मात-पिता के चरण में, चौदह भू-नभ मूर्त।।4
पाठ पढ़े हित प्रेम का, कर्म करे विस्तार।
ज्ञान सुने ज्ञानी बने, भाव भरें…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on March 29, 2014 at 8:30pm — 8 Comments
कह मुकरियाँ
(ये मेरा पहला प्रयास है )
प्रेम बूँद वो भर भर लाते
तपित हिये की प्यास बुझाते
मन मयूर मेरा उस पर पागल
क्या सखि साजन्, ना सखि बादल
कभी पेड़ों के पीछे से झाँके
कभी खिड़की से झाँक मुस्काए
हँस हँस के डाले है वो फंदा
क्या सखि साजन्, ना सखि चंदा
उम्मीदों की किरण जगाता
स्फूर्ति नई वो भर भर लाता
शुरु होता जीवन उससे मेरा
क्या सखि साजन्, ना सखि…
ContinueAdded by Maheshwari Kaneri on March 29, 2014 at 1:00pm — 4 Comments
1222 1222 1222 1222
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सिखाते क्यों हमें हो तुम वही इतिहास की बातें
दिलों में घोलकर नफरत नये विश्वास की बातें
*
बताओ घर बनेगा क्या हमारा आसमानों में
जमीनें छीन के करते सदा आवास की बातें
*
कहाँ से हो कठौती में हमारे गंग की धारा
बिठाई ना मनों में जब कभी रविदास की बातें
*
बहाकर अश्क भी यारो कहाँ दुख दूर होते हैं
गमों से पार पाने को करो परिहास की…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 29, 2014 at 7:30am — 29 Comments
ये ग़ज़ल नहीं है देश का बयान है,
डूबते जहाज की ये दास्तान है।
लुट रही है कहकहाें के बीच अाबरु,
धर्तीपुत्र अाज माैन, बेजुबान है।
गर्व था उन्हें कि बन गये जगतपिता,
गर्भ में ही मर चुका वाे संविधान है।
हम ताे नेक हैं ये बाेलता है हर काेई,
हर काेई कहे कि मुल्क बेइमान है।
घर ताे बन गया मगर वाे साे नहीं सके,
बेघराें के बीच घर जाे अालिशान है।
लाेग पूछते हैं कैसे खण्डहर बना…
ContinueAdded by Krishnasingh Pela on March 29, 2014 at 12:30am — 14 Comments
मित्र !
आओ जीवंत बने|
देहधारी चेतना हम
कार्य-कारण को समझ
प्रत्येक क्षण-
स्मित-अधर या
सजल नयन हो
माने
'परम' प्रदत्त है
हर क्षण का सामंत बने|
गत क्षण से
आगत क्षण तक
यूँ गुथ
क्षण मणिमाल आत्म बल जाग्रत करें
कि
अंतर-जलद
संवेदना झर
प्यास हर
उर शांत बने|
आत्म कल्याण करें
क्षण-क्षण लोकहिताय रत
कर्मनिष्ठ जीवन-पर्यंत बने|
मित्र !
आओ जीवंत बने|
प्रमोद श्रीवास्तव, लखनऊ|
(मौलिक और…
Added by PRAMOD SRIVASTAVA on March 28, 2014 at 11:30pm — 4 Comments
फिर आया मौसम चुनाव का, वोट की कीमत जानो।
पाँच बरस फिर अवसर दे दो, सेवक को पहचानो॥
लोकतंत्र मजबूत बनेगा, संशय मन में न पालो।
भई, वोट मुझे ही डालो। …
ContinueAdded by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on March 28, 2014 at 7:30pm — 11 Comments
(2212 2212)
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थे साथ मेरे जो कभी
मेरे नहीं थे वो कभी
कुछ दर्द कम तो हो मिरा,
ये घाव सी डालो कभी
जी को ज़रा ख़ामोश कर,
इन आँसुओं को रोक भी
कबतक दुखों से काम लूँ?
कोई ख़ुशी भी दो कभी
मैं ही सदा पलटा करूँ?
तुम भी मुझे रोको कभी
जिनका नहीं कोई कहीं,
उनके लिए भी रो कभी
जो मैं सही हूँ, 'दाद' दे,
जो मैं ग़लत हूँ, टोक भी
माँ ही…
ContinueAdded by Zaif on March 28, 2014 at 5:30pm — 9 Comments
२२१२ १२२२ २२१ २१२
वो बज्म में यूं तनहा क्यूँ खुद आप सोचिये
वो मैकदे मैं प्यासा क्यूँ खुद आप सोचिये
सूरज फलक पे आता है हर रोज वक़्त पर
फिर भी रहा अँधेरा क्यूँ खुद आप सोचिये
बचपन जवान होने से पहले ज़वाँ हुए
है बात इक इशारा क्यूँ खुद आप सोचिये
भरपूर तेल बाती भी दमदार थी मगर
किस ने दिया बुझाया क्यूँ खुद आप सोचिये
कांधा जो देने आया था हर शख्स गैर था
खुद को ही यूं मिटाया क्यूँ खुद आप…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on March 28, 2014 at 4:00pm — 12 Comments
स्व के पार ...
हाथ से हाथ छूटने की
तारीख़ तो सपनों को पता है
हाथ फिर कभी मिलेंगे ...
तारीख़ का पता नहीं
तुम्हारे चले जाने के बाद
मेरे दिन और रात
उदास, चुपचाप, कतरा-कतरा
बहते रहे हैं
मेरे वक्त के परिंदे की पथराई पलकें
इन उनींदी आँखों की सिलवटों-सी भारी
उम्र के सिमटते हुए दायरों के बीच
थके हुए इशारों से मुझसे
हर रोज़ कुछ कह जाती हैं
और मैं रोज़ कोई नया बहाना…
ContinueAdded by vijay nikore on March 28, 2014 at 4:34am — 20 Comments
Added by anwar suhail on March 27, 2014 at 8:23pm — 3 Comments
जिन्दगी कब अपने रंग दिखा दे कुछ कहा नही जा सकता समय समय पर जिदगी में धुप और छाव का मौसम आता जाता हैं। एक लड़की की जिन्दगी भी ना जाने कितने मौसम लेकर आती हैं जब एक तरह के मौसम के साथ अब्यस्त होने लगती हैं तो मौसम का दूसरा रंग बदल जाता हैं और वोह घूमती रहती हैं अपने आप को सम्हालती हुयी तो कभी भिगोती हुयी । भावनाओं का अतिरेक भी उनकी संवेदनशीलता पर हावी होकर बहा ले जाता हैं उनको समंदर में जहाँ दिर डूबना होता हैं बाहर निकल आने का कोई रास्ता नही होता और यह जब रिश्तो के…
ContinueAdded by Neelima Sharma Nivia on March 27, 2014 at 6:53pm — 4 Comments
न जानें कितने जीवन से परिक्रमा
ही तो करती आई हूँ ,
क्या पाया ?क्या खोया ?
पता नहीं भूली हूँ माया के जाल में ।
बस एक मेरा "मैं "
तैयार रहता मुझ पर हर दम,
कहता, मैं ही हूँ सबसे अच्छा ।
पर ये क्या सच है ?
नहीं ये हमारे "मैं "
का ही भ्रम है ।
घूमी हूँ यहाँ से वहाँ ,
लगाईं हैं कई जन्मों की
परिक्रमाएँ,
चुनी हैं मायेँ कई,
हर पल माना खुद को सही।
क्या ये सच है?…
Added by kalpna mishra bajpai on March 27, 2014 at 6:45pm — 5 Comments
ताकि, बचा सकूँ हताशा से
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इसलिये नही कि ,
सतत चलती सीखने की प्रक्रिया से भागना चाहता हूँ
इसलिये भी नही कि ,
मेरे लिए सब कुछ जाना-जाना , सीखा-सीखा है ,…
Added by गिरिराज भंडारी on March 27, 2014 at 4:30pm — 3 Comments
बागी ठोके ताल यूँ, दल को देने चोट
टिकिट मिले दागी खड़े, किसको डाले वोट
किसको डाले वोट, नहीं कुछ समझ में आता
खूब जताए प्यार, निकाले रिश्ता नाता
कह लक्ष्मण कविराय, देख अब जनता जागी
दागी की हो हार, भले ही जीते बागी |
(२)
योगी भोगी तो नहीं, उसके मन में टीस,
सुनो अरज माँ शारदे,दो अपना आशीष
दो आपना आशीष,यही है बस अभिलाषा
भारत रहे अखंड, रहे न एक भी प्यासा
कह लक्ष्मण कविराय, रहे सब यहाँ निरोगी
करो सभी का…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 27, 2014 at 2:30pm — 6 Comments
सत्य की राह
होती है अलग,
अलग, अलग लोगों के लिए.
किसी का श्वेत ,
श्याम होता है किसी के लिए .
श्वेत श्याम के झगड़ें में
जो गुम होता है
वह होता है सत्य,
सत्य सार्वभौमिक है,
पर सत्य नहीं हो सकता
सामूहिक .
सत्य निजता मांगता है ,
हरेक का सत्य
तय होता है
निज अनुभूति से.
... नीरज कुमार नीर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neeraj Neer on March 27, 2014 at 8:32am — 4 Comments
विजय – पराजय
वह जो मैंने सपने मे देखा
सोने की गाय
कुतुबमीनार पर घास चर रही थी , और –
नीचे ज़मीन पर बैठा कोई ,
सूखी रोटियाँ तोड़ रहा था ।
अचानक कुतुब झुकने लगा
मुझे ऐसा लगा, जैसे -
वह झुक कर स्थिर हो जाएगा
पीसा के मीनार की तरह
और बनेगा
संसार का आठवाँ आश्चर्य ।
पर, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ
वह धराशायी हो गया
गाय कहाँ गयी , कुतुब कहाँ गया
कह नहीं सकता
किन्तु सूखी…
ContinueAdded by S. C. Brahmachari on March 26, 2014 at 9:30pm — 9 Comments
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
अभी तो म्यान देखी है अभी तलवार देखोगे
हिरन के सींग देखे सींग की तुम मार देखोगे
बहुत खुश होते हो परदे के जिन अश्लील चित्रों पर
बहुत रोओगे जब घर पर यही बाज़ार देखोगे
जिस्म की मंडियों में डोलते हो बन के सौदागर
करोगे खुदकशी बेटी को जब लाचार देखोगे
नदी, नाले, तलैया-ताल यारों देखकर सँभलो
नहीं तो तुम सड़े पानी का पारावार देखोगे
अभी भाता बहुत है ये सफ़र पूरब से पश्चिम…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on March 26, 2014 at 5:00pm — 12 Comments
अनुष्टुप छंद 4 चरण प्रत्येक चरण 8-8 वर्ण
विषम चरण - वर्ण क्रमांक पाँचवाँ, छठा, सातवाँ, आठवाँ क्रमशः लघु, गुरू, गुरू, गुरू
सम चरण - वर्ण क्रमांक पाँचवाँ, छठा, सातवाँ, आठवाँ क्रमशः लघु, गुरू, लघु, गुरू
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मदिरापान कैसा है, इस देश समाज में ।
अमरबेल सा मानो, फैला जो हर साख में ।।
पीने के सौ बहाने हैं, खुशी व गम साथ में ।
जड़ है नाश का दारू, रखे…
Added by रमेश कुमार चौहान on March 26, 2014 at 4:38pm — 4 Comments
पैसे की बिसात पर लोकतंत्र
लोकतांत्रिक प्रक्रिया का सबसे भव्य प्रदर्शन अप्रैल और मई में होने वाला है जब देश के 81करोड़ मतदाताओं को अपने सांसदों को चुनने का सौभाग्य मिलेगा। मतदाताओं को अपने एक-एक वोट से उत्कृष्ट नेताओं को संसद तक पंहुचाने के लिए चुनावी इम्तिहान से गुजरना होगा। पैसा, प्रलोभन और भाई भतीजावाद से ऊपर उठकर लोकतंत्र के सभी मानकों…
ContinueAdded by DR. HIRDESH CHAUDHARY on March 26, 2014 at 3:00pm — 2 Comments
बस्ते में रोटी भर लाया
बच्चा भी ये क्या घर लाया
होठों पे खुशियाँ धर लाया
वो बोले किसकी हर लाया
सोने चांदी सब नें मांगे
वो चिड़ियों जैसे पर लाया
इक तूफानी झोंका आया
जाने किसका छप्पर लाया
दुत्कारा लोगों नें उसको
जो धरती पे अम्बर लाया
काम के इंसा मैंने मांगे
वो बस्ती से शायर लाया
भुवन निस्तेज
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by भुवन निस्तेज on March 26, 2014 at 2:30pm — 9 Comments
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1999
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