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( ग़ज़ल ) जलाने को तुम्हारे हौसले तैयार बैठे हैं (गिरिराज भंडारी )

१२२२  १२२२ १२२२ १२२२

करेंगे होम ही, लेकर सभी आसार बैठे हैं

जिगर वाले जला के हाथ फिर तैयार बैठे हैं

ज़रा ठहरो छिपे घर में अभी मक्कार बैठे हैं

जलाने को तुम्हारे हौसले तैयार बैठे हैं

 

बहारों से कहो जाकर ग़लत तक़सीम है उनकी

कोई खुशहाल दिखता है , बहुत बेज़ार बैठे हैं

 

समझते हैं तेरे हर पैंतरे , गो कुछ नहीं कहते

तेरे जैसे अभी तो सैकड़ों हुशियार बैठे हैं

 

तुम्हें ये धूप की गर्मी नहीं लगती यूँ ही…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 20, 2014 at 9:30am — 32 Comments

तमाचा (लघुकथा)

" कितने गंदे लोग हैं , छी , सब तरफ गन्दगी ही गन्दगी , उधर किनारे चलते हैं " कहते हुए लड़का बड़े प्यार से हाथ पकड़ कर उसे किनारे ले गया और आँखों में आँखें डाल कर खो गए दोनों |

" साहब मूंगफली ले लो , टाइम पास " |

" ठीक है , दे दो " , और फटाफट पैसे देकर रुखसत किया उसको |

पता ही नहीं चला , कब मूंगफली ख़त्म हो गयी और अँधेरा हो गया | दोनों उठ कर चलने लगे |

लेकिन जैसे ही लड़की ने झुक कर छिलके उठाये , लड़के का हाथ अपने गाल पर चला गया |  

मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on August 20, 2014 at 2:00am — 23 Comments

कमाई...(लघुकथा)

मंदबुद्धि और भोला रामदीन वर्षों से अपने परिवार व् गाँव  से  दूर , दूसरे गाँव  में काम करके अपने परिवार में अपनी पत्नी व् बेटे का पालन करते-करते, विगत कुछ महीनों से बहुत थक चुका है. शरीर से बहुत कमजोर भी हो गया है , आखिर उम्र भी पचपन-छप्पन के लगभग जो हो गई.  अब तो कभी-कभी खाना ही नही खा पाता. पहले कई वर्षों तक रामदीन का मालिक उसके परिवार तक उसकी पगार पंहुचा दिया करता था. अब रामदीन का बेटा बड़ा हो गया है, कमाने भी लगा है अपने ही गाँव में. कुछ महीनों से उसकी पगार लेने भी आता जाता…

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Added by जितेन्द्र पस्टारिया on August 20, 2014 at 1:12am — 42 Comments


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अगर तुम टूटने के दर्द को महसूस कर जाते (ग़ज़ल 'राज'

१२२२    १२२२    १२२२  १२२२

अगर तुम टूटने के दर्द को महसूस कर जाते

तो क्या खुद एक पल में टूटकर इतना बिखर जाते

 

रिदाएँ गर्द की जब तब हटाते आइनों से तुम

दिलों के फासले मिटते कई रिश्ते सँवर जाते

 

झुलसते जिस्म फसलों के उमड़ती प्यास धरती की

चिढ़ाते बेवफ़ा बादल इधर जाते उधर जाते

 

पहेली सी बने फिरते बड़े मदमस्त ये बादल

कहीं ख़ाली गरजते उफ़ कहीं हद से गुजर जाते

 

तुम्हारे झूठ के छाले लगे रिसने सफ़र…

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Added by rajesh kumari on August 19, 2014 at 9:18pm — 31 Comments

नाम हो जाये

मिले है आज हम दोनो हसीं इक शाम हो जाये

कसम दो तोड़ तुम उसकी चलो इक जाम हो जाये

पड़ा सूखा मरे भ्‍ूाखो नहीं कोई हमें पूछे

कही ऐसा न हो यारो कि कल्‍लेआम हो जाये

नहीं रखते कभ्‍ाी धीरज किसी भी काम में यारो

बचा लो नाम तुम मेरा न वो बदनाम हो जाये

तुम्‍हारे प्‍यार में जानम मरेगें डूब कर सुन लो

मरा पागल दिवाना है न चरचा आम हो जाये

मिलेगा अब नहीं जीवन मिला इक बार जो तुमको

करो कुछ काम अब ऐसा तुम्‍हारा नाम हो…

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Added by Akhand Gahmari on August 19, 2014 at 8:16pm — 15 Comments

दिल की सच्चाई

हे प्रभु, सुन !

कर दें अँधेरा

चारों तरफ.. .  

उजाले काटते हैं / छलते है !

लगता है अब डर

उजालें से

दिखती हैं जब

अपनी ही परछाई -

छोटी से बड़ी

बड़ी से विशालकाय होती हुई.

भयभीत हो जाती हूँ !

मेरी ही परछाई मुझे डंस न ले,

ख़त्म कर दे मेरा अस्तित्व !

जब होगा अँधेरा चारों ओर

नहीं दिखेगा

आदमी को आदमी !

यहाँ तक कि हाथ को हाथ भी.

फिर तो मन की आँखें

स्वतः खुल जाएँगी !

देख…

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Added by savitamishra on August 19, 2014 at 2:00pm — 20 Comments

प्रिय मोहन

प्रिय मोहन तेरे द्वार खड़ी मैं,

कबसे से रही पुकार!

कान्हा मुझको शरण में ले लो,

विनती बारम्बार।

मैं तो अज्ञानी, अभिलाशी,

तेरे दरश की प्यारे!

जीवन पार लगा दो मेरा,

बस मन यही पुकारे।

खुशियों से भर दो ये झोली,

ओ मेरे साँवरिया!

तेरे पीछे दौड़ी आऊँ,

बन के मैं बाँवरिया।

मोह रहे हैं मन को मेरे,

श्याम तेरे ये नयना!

दिन में सुकून ना पाऊँ तुम बिन,

रात मिले ना चैना।

मुझ अबला को सबला कर दो,

जग…

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Added by Pawan Kumar on August 19, 2014 at 1:14pm — 8 Comments

गजल - शशि पुरवार

२१२२ २१२२ २१२

जंग दौलत की छिड़ी है रार क्या

आदमी की आज है दरकार क्या १

जालसाजी के घनेरे मेघ है

हो गया जीवन सभी बेकार क्या२



लुट रही है राह में हर नार क्यों

झुक रहा है शर्म से संसार क्या ३

छल रहे है दोस्ती की आड़ में

अब भरोसे का नहीं किरदार क्या ४

गुम हुआ साया भी अपना छोड़कर

हो रहा जीना भी अब दुश्वार क्या ५



धुंध आँखों से छटी जब प्रेम की

घात अपनों का दिखा गद्दार क्या६

इन…

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Added by shashi purwar on August 18, 2014 at 9:30pm — 8 Comments

मंच-दाँ रहनुमा

तुम हुए मंच-दाँ जब से मन निहाई हो गया

यों मगर खाली निहाई पीटने से क्या हुआ |

सोन-माटी के कबाड़े क्यों नजर आते नहीं

सिर्फ़ बातों की हथौड़ी से धरा सब रह गया |

           

तुम हुए रहनुमा मकसद घर से बाहर चल पड़े   

पर तुम्हारी रहबरी ने…

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Added by Santlal Karun on August 18, 2014 at 5:00pm — 18 Comments

जन्‍माष्‍टमी के अवसर पर कुछ सवैया छंद

यदा यदा हि धर्मस्‍य--------

1

मानव देह धरी अवतारी, मन सकुचौ अटक्‍यो घबरायो।

सच सुनके कि देवकीनंदन हूँ मैं जसुमति पेट न जायो।

सोच सोच गोकुल की दुनिया, सब समझंगे मोय परायो।

सुन बतियन वसुदेव दृगन में, घन गरजो उमरो बरसायो।

कौन मोह जाऊँ गोकुल मैं, कौन घड़ी पल छिन इहँ आयो।

कछु दिन और रुके मधुसूदन, फि‍रहुँ विकल कल चैन न पायो।

परम आत्‍मा जानैं सब कछु, ‘आकुल’ मानव देह धरायो।

कर्म क्रिया मानव गुण अवगुण, श्‍यामहिं चित्‍त तनिक…

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Added by Dr. Gopal Krishna Bhatt 'Aakul' on August 18, 2014 at 5:00pm — 7 Comments


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दो क्षणिकाएँ ( गिरिराज भंडारी )

१-

जहाँ अश्रु की बूँदें

रोने वालों के दुखों को,

दुखों की सान्ध्रता को

कम कर देती है

 

वहीं पर यही अश्रु बूँदें

रोने वालों से भावनाओं से जुड़े

उनके अपनों को

बेदम भी कर देती है

 

२-

संयत नहीं हो पाए अगर आप

अपने भाव के साथ

तो वही भाव,

कहे गये शब्दों के अर्थ बदल देता है

 

और वहीं

अगर आप सही नहीं समझ पाए शब्दों को

तो शब्द,

आपके चहरे से प्रकट

भावों के…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 18, 2014 at 2:30pm — 25 Comments

कुण्डलिया छंद

मन में सद्विचार रहे, नेक करे वह काम,

फल की इच्छा छोड़कर, कर्म करे निष्काम

कर्म करे निष्काम,  भाव संतोषी पाते

काम क्रोध मद लोभ स्वार्थ के रंग दिखाते

कर लक्षमण सद्कर्म नम्रता रहे वचन में

गीता में सन्देश, रहे निश्छलता मन में ||

(2)

करे प्रशंसा स्वयं की, और स्वयं से प्रीत,

आत्म मुग्ध के आग्रही, ये दर्पण के मीत

ये दर्पण के मीत,  संग चमचों के रहते

अपने को सर्वोच्च अन्य को तुच्छ समझते

कह लक्ष्मण कविराज इन्हें भाती…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on August 18, 2014 at 2:00pm — 19 Comments

कुछ सामयिक दोहे / जवाहर

मानसून की देर से, खेतहि फटे दरार,

ताके किसना मेघ को, आपस में हो रार.

मानसून की अधिकता, बारिश हो घनघोर

उजड़ा घर अरु खेत अब, देखत सब चहु ओर

तीव्र पानी प्रवाह से,  वन गिरि भी थर्राय

नर पशु पानी में बहे, किसको कौन बचाय .

उथल पुथल भइ जिंदगी, कहते जिसे विकास.

जलवायु दूषित हुई,  आम हो गया ख़ास

राग द्वेष का जोर है, प्रीती नहीं सुहाय,

भाई से भाई लड़े, संचित धन भी जाय..

फैशन की अब होड़ है, फैशन…

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Added by JAWAHAR LAL SINGH on August 18, 2014 at 9:30am — 19 Comments

गीत ' सदियों से ढूँढूं मैं कान्हा'

तम में छिपते श्याम

घटा से

कभी छिपते सित भौर

सदियों से ढूँढूं मैं

कान्हा

पाऊँ ओर ना छोर

...

घोर तिमिर की छाया

में तुम

क्षण दर्पण देते हो

धुंध कुहासा हट

ना पाये

पल अर्पण लेते हो

तुम अदृश्य अनंत

अविनाशी

बंधें भी कैसे डोर

...

गोपियों के प्रेम में

बसकर

भक्ति में हँसते हो

योगिराज युग युग

से,तंदुल

मित्र कभी रमते हो

ज्ञान भक्ति पथ हो

कोई भी

कर्म बिना नहीं ठौर



सीमा हरि… Continue

Added by seemahari sharma on August 18, 2014 at 1:23am — 12 Comments

जन्माष्टमी दोहावली

कृष्ण पक्ष की अष्टमी ,मध्यरात का काल

मथुरा में पैदा हुआ ,मोहक छवि का बाल ||

कृष्ण लला की झाँकियाँ ,करती भाव विभोर

आई जो जन्माष्टमी ,धूम मची चहुँ ओर ||

पुत्र देवकी वासु के ,पले यशोदा धाम

तारे सबकी आँख के,कृष्ण रखा था नाम ||

दोस्त सुदामा कृष्ण से ,देकर गए मिसाल

शासक,सेवक का मिलन,करता सदा कमाल ||

कृष्ण बचाने द्रौपदी ,अब तो लो अवतार

दुशासन हैं,गली गली , करते अत्याचार ||

युग पुरुष श्री कृष्ण थे…

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Added by Sarita Bhatia on August 17, 2014 at 9:55pm — 19 Comments

ग़ज़ल -ख़ताएँ कुछ रही होंगी, सज़ाए ज़िन्दगी लायक

१२२२/१२२२/१२२२/१२२२ 

.

इरादे मैं यकीनन आज भी छोटे नहीं रखता,

मगर आँखों में अब अपनी तेरे सपने नहीं रखता.  

.

बड़ी शिद्दत से अपने इश्क़-ओ-रंजिश मै निभाता हूँ 

ख़बर रखता तो हूँ सबकी मगर फ़ि
तने नहीं रखता.

.

दिखाएगा वही सबको जो होंगे सामने उसके,

छुपाकर आईना कोई कभी चेहरे…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on August 17, 2014 at 9:30pm — 7 Comments

गीत (कल्पना मिश्रा बाजपेई)

बंसी का बजाना खेल भी है

गिरिवर का उठाना खेल नहीं

भक्तों के भारी संकट में

दुख दर्द मिटाना खेल नहीं है !!

 

एक विप्र सुदामा आया था

वो भेंट में तंदुल लाया था

पल भर में ही दीन दुखी को

धनवान बनाना खेल नहीं !!

 

कौरव दल द्रुपद दुलारी की

सुन कर पुकार दुखियारी की

दो गज की सारी में देखो

अंबार लगाना खेल नहीं !!

 

था कंस बड़ा अत्याचारी

देता था सबको दुख भारी

उसको जा मारा मथुरा…

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Added by kalpna mishra bajpai on August 17, 2014 at 3:00pm — 29 Comments


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दिल ही न टूट जाये कहीं ऐतबार में-ग़ज़ल

221 2121 1221 212

जाने पड़ा हुआ है तू किसके खुमार में

दिल ही न टूट जाये कहीं ऐतबार में

 

मैं नाम लौहे दिल पे यूँ लिखता गया तेरा

इसके सिवा रहा नहीं कुछ इख़्तियार में

 

वो कारवाने वक्त गुज़र…

Continue

Added by शिज्जु "शकूर" on August 17, 2014 at 2:00pm — 12 Comments

मैंने चुप की आवाज़ सुनी !

मैंने चुप की आवाज़ सुनी !
जबसे गूँगे से बात करी !!

वर्षों तक देखा है उनको !
तब जाके ये तस्वीर बनी!!

चोर-चोर मौसेरे भाई!
उनकी आपस में खूब छनी!!

कोई कैसे घायल ना हो!
वो थी ही मृग सावक नयनी !!

बीवी साड़ी माँग रही थी!
मेरी तो तनख़्वाह कटनी!!
**************************
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित

Added by ram shiromani pathak on August 17, 2014 at 11:25am — 8 Comments

बचपन को बचपन ही रहने दो - डॉ o विजय शंकर

( चित्र काव्य पर एक अलग द्दृष्टि - चामत्कारिक कल्पनाओं से हट कर )



एक हाथ में राखी का भार

दूसरे में ध्वज बना तलवार ,

पैर पादुका नहीं ,वस्त्र नीवी नहीं

सामने कोई रास्ता दिखता नहीं ,

मंजिल कोई उसे बताता नहीं

उमंग छोड़ कुछ भी पास है नहीं ,

दूर कहाँ तक जाएगा यह अबोध

जल्दी ही लौट आएगा यह अबोध |

अर्द्धनग्न आधा पेट खायेगा सो जाएगा

दिन ढले रात ढलेगी नया सवेरा आएगा

वो उत्साहित फिर थोड़ी दौड़ लगाएगा

ऐसे ही उसका जीवन बढ़ता जाएगा |

सरसठ… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on August 17, 2014 at 11:23am — 12 Comments

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