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ग़ज़ल - आदत हो गयी है

(2122 2122)



इक बुरी लत हो गयी है।

तेरी आदत हो गयी है।



नींद किसको आएगी अब?

जब मुहब्बत हो गयी है।



इश्क़ करवट ले रहा है,

इक शरारत हो गयी है।



शायरी जो मैंने लिक्खी,

प्यार का ख़त हो गयी है।



तुम भी चुप हो मैं भी चुप हूँ,

एक मुद्दत हो गयी है।



यूँ ख़ुदी से लड़ रहा हूँ,

ज्यूँ बग़ावत हो गयी है।



बिन बताये जा रहे हो!

इतनी नफ़रत हो गयी है?



मैंने तो उल्फ़त करी थी,

पर इबादत हो गयी… Continue

Added by Zaif on July 10, 2014 at 8:35am — 10 Comments

चीखकर ऊँचे स्वरों में कह रहा हूँ --जगदीश पंकज

चीखकर ऊँचे स्वरों में

कह रहा हूँ

क्या मेरी आवाज

तुम तक आ रही है ?

 

जीतकर भी

हार जाते हम सदा ही

यह तुम्हारे खेल का

कैसा नियम है

चिर -बहिष्कृत हम

रहें प्रतियोगिता से ,

रोकता हमको

तुम्हारा हर कदम है

 

क्यों व्यवस्था

अनसुना करते हुए यों

एकलव्यों को

नहीं अपना रही है ?

 

मानते हैं हम ,

नहीं सम्भ्रांत ,ना सम्पन्न,

साधनहीन हैं,

अस्तित्व तो है

पर हमारे पास…

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Added by JAGDISH PRASAD JEND PANKAJ on July 10, 2014 at 6:00am — 13 Comments

ग़ज़ल -निलेश "नूर" लोग कहते हैं मोजज़ा होगा,

२१२२/१२१२/२२ 

.

लोग कहते हैं मोजज़ा होगा,

देखना कोई हादसा होगा.

.

ख़ूब ईमानदार बनता है,

नौकरी पर नया नया होगा.    

.

जब कहा, सिर्फ़ सच कहा उसने,

वो कभी आईना रहा होगा.

.

जिसकी सुहबत सुकून देती थी,

कैसे मानें कि बेवफ़ा होगा. 

.

एक मुद्दत के बाद धड़का दिल,

ज़ख्म-ए-दिल आज फिर हरा होगा. 

.

टूटता दिल भी एक नेमत है,

शायरी का चलो भला होगा.

.

शक्ल पर कुछ नहीं लिखा उसने,

कौन कैसा है, कौन…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on July 9, 2014 at 8:00pm — 16 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
गीतिका छंद पर आधारित एक गीत : रे पथिक अविराम चलना..........(डॉ० प्राची)

रे पथिक अविराम चलना पंथ पर तू श्रेय के

बहुगुणित कर कर्मपथ पर तन्तु सद्निर्मेय के

 

मन डिगाते छद्म लोभन जब खड़े हों सामने

दिग्भ्रमित हो चल न देना लोभनों को थामने

दे क्षणिक सुख फाँसते हों भव-भँवर में कर्म जो

मत उलझना! बस समझना! सन्निहित है मर्म जो  

 

तोड़ना मन-आचरण से बंध भंगुर प्रेय के

रे पथिक अविराम चलना पंथ पर तू श्रेय के

 

श्रेष्ठ हो जो मार्ग राही वो सदा ही पथ्य है

हर घड़ी युतिवत निभाना जो मिला…

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Added by Dr.Prachi Singh on July 9, 2014 at 12:26pm — 24 Comments

पर्यावरण दिवस पर नाइट्रोजन नुट्रिलिटी - कोस्टा रीका -डा० विजय शंकर

धूल मिटटी है , सोना है , ताकत है इतनी कि जिसमें मिल जाए उसे मिटटी बना डाले . पर खेत में हो तो सचमुच सोना ही सोना . खेत के अलावा कहीं भी हो तो मुश्किल ही मुश्किल , हटाना ही पड़ता है . हटा भी दिया लोगों ने धूल को, कम से कम आवासीय परिक्षेत्र से , सड़कों से , तो हटा ही दिया है . धूल को हटाने के तरह तह के तरीके अपनाते हैं लोग , यहां तक की फूलों की क्यारियों में , गमलों में , पेड़ों के थालों में लकड़ी की छोटी छोटी खप्पचियां मोटी-मोटी परतों में भर देते हैं जिससे उतनी धूल भी न उड़े और उनकें जीवन को… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on July 8, 2014 at 8:33pm — 7 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
है सफ़र में काफ़िला पर रहनुमा कोई नहीं-ग़ज़ल

2122- 2122- 2122- 212

नक्श भी कोई नहीं औ' रास्ता कोई नहीं

है सफ़र में काफ़िला पर रहनुमा कोई नहीं

 

भीड़ चेहरे सिर्फ़ कहने के लिये मौजूद हैं

घूम के देखा मगर मुझको मिला कोई नहीं

 

आशनाई बस ज़रूरत की है रिश्ते नाम के

इनका अब जज़्बात से ही वास्ता कोई नहीं

 

नफ़रतों के ज़ह्र में डूबी ज़बाँ के तीर का

आदमीयत है निशाना दूसरा कोई नहीं

 

सिर्फ़ बातों से बहल जायें यहाँ कुछ लोग तो

सच सुने कोई नहीं सच देखता…

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Added by शिज्जु "शकूर" on July 8, 2014 at 4:34pm — 25 Comments

प्रीत पहेली ....

प्रीत पहेली ....

मन तन है
या तन मन है
ये जान सका न कोई
भाव की गठरी
बाँध के अखियाँ
कभी हंसी कभी रोई
प्रीत पहेली
अब तक अनबुझ
हल निकला न कोई
बैरी हो गया
नैनों का सावन
भेद छुपा न कोई
सीप स्नेह में लिपटा मोती
बस चाहे इतना ही
सज जाऊं
उस तन पे जाकर
जिसकी छवि हृदय में सोई

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on July 8, 2014 at 12:30pm — 10 Comments

नज़र

वह दोस्तों के साथ मूवी देखकर और लंच करके लौटी थीं | घर में घुसते ही माँ ने कहा:

"अरे शर्मा अंकल आए हैं, ड्राइंग रूम में जा के नमस्ते तो कर ले |"
"ठीक है माँ, मिल लेती हूँ जा के , जरा दुपट्टा तो डाल लूँ |"

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by विनय कुमार on July 8, 2014 at 12:00am — 15 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
झुकी उस डाल में हमको कई चीखें सुनाई दें (ग़ज़ल 'राज')

१२२२  १२२२   १२२२   १२२२ 

तुम्हारे पाँव से कुचले हुए गुंचे दुहाई दें

फ़सुर्दा घास की आहें हमें अक्सर सुनाई दें

 

तुम्हें उस झोंपड़ी में हुस्न का बाज़ार दिखता है

हमें फिरती हुई बेजान सी लाशें दिखाई दें

 

तुम्हें क्या फ़र्क पड़ता है मजे से तोड़ते कलियाँ

झुकी उस डाल में  हमको कई चीखें सुनाई दें

 

न कोई दर्द होता है लहू को देख कर तुमको  

तुम्हें आती हँसी जब सिसकियाँ  भर- भर दुहाई दें 

कहाँ…

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Added by rajesh kumari on July 7, 2014 at 10:00pm — 36 Comments

उदास मां को एक बेटा हंसा के निकला है..

उदास मां को एक बेटा हंसा के निकला है

अंधेरे घर में वो दीपक जला के निकला है,

पानी गर्म था इसलिए ये खयाल आया,

इस समंदर से तो सूरज नहा के निकला है,

.

जमीं पर दिन के उजाले में उसको देखा था

रात में देखा तो चांद आसमां से निकला है,

वहां पर आज तक सोना कभी नहीं निकला

जहां खोदा गया पानी वहां से निकला है,

उनको देखा तो कायनात मुझसे पूछ उठी

अतुल इतना हसीं 'मौसम' कहां से निकला है।।

- मौलिक व…

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Added by atul kushwah on July 7, 2014 at 6:30pm — 5 Comments

ग़ज़ल : सदा संदेह से बरसों का बंधन टूट जाता है

बह्र : हज़ज़ मुसम्मन सालिम

मुलायम फूल सा हो दिल या दरपन टूट जाता है,

सदा संदेह से बरसों का बंधन टूट जाता है,



जमीं जब रार बोती है सगे दो भाइयों में तो,

मधुर संबंध आपस का पुरातन टूट जाता है,



तुम्हारी याद में मैया मैं जब आंसू बहाता हूँ,

दिवारें सील जाती हैं कि आँगन टूट जाता है,



पृथक प्रारब्ध ने हमको किया है जानता हूँ पर,

विरह की वेदना में जूझके मन टूट जाता है,

भले अभिमान करती हों स्वयं पे खूब बरसातें,

झड़ी नैनों…

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Added by अरुन 'अनन्त' on July 7, 2014 at 5:00pm — 17 Comments

क्यों हर कोई परेशां है

क्यों हर कोई परेशां है

दिल के पास है लेकिन निगाहों से जो ओझल है

ख्बाबों में अक्सर वह हमारे पास आती है

अपनों संग समय गुजरे इससे बेहतर क्या होगा

कोई तन्हा रहना नहीं चाहें मजबूरी बनाती है

किसी के हाल पर यारों,कौन कब आसूँ बहाता है

बिना मेहनत के मंजिल कब किसके हाथ आती है

क्यों हर कोई परेशां है बगल बाले की किस्मत से

दशा कैसी भी अपनी हो किसको रास आती है

दिल की बात दिल में ही दफ़न कर लो तो अच्छा है

पत्थर दिल ज़माने में कहीं ये बात भाती…

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Added by Madan Mohan saxena on July 7, 2014 at 4:55pm — 5 Comments

ग़ज़ल: अरुन 'अनन्त'

दुष्ट दुर्जन पशु बराबर हो गए,

आज कल इंसान पत्थर हो गए,



क़त्ल चोरी रेप दंगो के विषय,

सुर्ख़ियों में आज ऊपर हो गए,



स्वार्थ से कोमल ह्रदय को सींचकर,

प्रेम से वंचित हो ऊसर हो गए,



अंततः जब सत्य मैंने कह दिया,

प्राण लेने को वो तत्पर हो गए,



ढह गई दीवार आदर भाव की,

प्रेम के आवास खँडहर हो गए,



पथ प्रदर्शक जो कभी थे साथ में,

राह में वो आज ठोकर हो गए,



जो समय के साथ चलते हैं नहीं,

एक दिन वो बद से बदतर हो…

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Added by अरुन 'अनन्त' on July 7, 2014 at 3:00pm — 22 Comments

ग़ज़ल -निलेश "नूर"--कितना आसान है आसान का मुश्किल होना.

२१२२, ११ २२, ११२२, २२/ ११२ 

.

आप का, ग़म में हमारे कभी शामिल होना,

अपनी क़िस्मत में नहीं था ये भी हासिल होना.

.

ये सफ़र ज़ीस्त का था, साथ चली रुसवाई,

देखना बाक़ी रहा...राह का मंज़िल होना.

.

इक सफ़र चलता रहा उसके फ़ना होने तक,

एक हसरत थी लहर की, कभी साहिल होना.

.

जश्न में डूबे हुए दिल में ख़लिश थी हरदम,

रोज़ महसूस किया, याद का...महफ़िल होना.  

.

बोझ नाक़ाम सी हसरत का उठाकर देखो,

कितना आसान है आसान का मुश्किल…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on July 7, 2014 at 2:00pm — 21 Comments

इक बार आ उस माँ से मिला दे मुझे ……

इक बार आ उस माँ से मिला दे मुझे ……



वक्त तेरे दामन . को मोतियों से भरूँ

इक बार बीते लम्हों से मिला दे मुझे

थक गया हूँ बहुत ..बिछुड़ के जिससे

इक बार आ उस माँ से मिला दे मुझे



इक बार आ उस माँ से मिला दे मुझे



पंथ के शूलों से हैं रक्त रंजित ये पाँव

नहीं दूर तलक कोई ममता का गाँव

अश्रु अपनी हथेली पे ले लेती थी जो

उस आँचल की छाँव में छुपा दे मुझे



इक बार आ उस माँ से मिला दे मुझे



मेरी अकथ व्यथा को पढ़ लेती  थी…

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Added by Sushil Sarna on July 7, 2014 at 12:30pm — 16 Comments

ग़ज़ल- कि दरिया पार होकर भी किनारे छूट जाते हैं

१२२२       १२२२          १२२२         १२२२

ज़रा सी बात पर अनबन, भरोसे टूट जाते हैं

कि साथी सात जन्मों के पलों में छूट जाते हैं

ये दिल का मामला प्यारे नहीं दरकार पत्थर की

ज़रा सी बेरुखी से ही ये शीशे फूट जाते हैं

ये ऐसा दौर है साहिब कि आँखें खोल हम सोये

मगर हद है लुटेरे सामने ही लूट जाते हैं

ये माना बेखुदी में हो मगर कुछ होश भी रखना

बहुत जल्दी ही  ख्वाबों के घरौंदे टूट जाते हैं

खुदी में दम…

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Added by sanju shabdita on July 6, 2014 at 9:26pm — 30 Comments

अभी सुहाग कि मेहंदी हटीं न हाथों से

१२१२ ११२२ १२१२ २२/११२

अभी सुहाग कि मेहंदी हटीं न हाथों से

जहर उगलने लगे हैं बशर तो बातों से

जो घूमते थे सदा तान सीना  जंगल में

वो शेर टूटे हैं जंगल में अपनी मातों से

हयात रो के गुजारी तमाम जनता नें

कहाँ ये लात के हैं भूत मनते बातों से ?

सुना है आज वो  संसद है इक मंदिर सी

 सुना था पहले जो चलती थी घूंसे लातों से

गले न मिलते हैं अब लोग इस सियासत में

कहीं न छीन ले कुर्सी ही कोई घातों…

Continue

Added by Dr Ashutosh Mishra on July 6, 2014 at 7:56pm — 8 Comments

ग़ज़ल : जाल सहरा पे डाले गए

बह्र : २१२ २१२ २१२

-----------

जाल सहरा पे डाले गए

यूँ समंदर खँगाले गए

 

रेत में धर पकड़ सीपियाँ

मीन सारी बचा ले गए

 

जो जमीं ले गए हैं वही

सूर्य, बादल, हवा ले गए

 

सर उन्हीं के बचे हैं यहाँ

वक्त पर जो झुका ले गए

 

मैं चला जब तो चलता गया

फूट कर खुद ही छाले गए

 

जानवर बन गए क्या हुआ

धर्म अपना बचा ले गए

 

खुद को मालिक समझते थे वो

अंत में जो निकाले…

Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 6, 2014 at 2:00pm — 24 Comments

एक नया बीज फिर अंकुरित होने वाला है

मैंने हिटलर को नहीं देखा

तुम्हें देखा है

तुम भी विस्तारवादी हो

अपनी सत्ता बचाए रखना चाहते हो

किसी भी कीमत पर

 

तुम बहुत अच्छे आदमी हो

नहीं, शायद थे

यह ‘है’ और ‘थे’ बहुत कष्ट देता है मुझे 

अक्सर समझ नहीं पाता

कब ‘है’, ‘थे’ में बदल दिया जाना चाहिए 

 

तुम अच्छे से कब कमतर हो गए

पता नहीं चला

 

एक दिन सुबह 

पेड़ से आम टूटकर नीचे गिरे थे

तुम्हें अच्छा नहीं लगा

पतझड़ में…

Continue

Added by बृजेश नीरज on July 6, 2014 at 1:30pm — 46 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - - ' ज़िन्दगी क्यूँ है उधारी सी ' ( गिरिराज भंडारी )

2122      2122        2

कुछ  परायी  कुछ  हमारी  सी

ज़िन्दगी  क्यूँ   है  उधारी  सी

 

अश्क़ों की  नदियाँ  थमीं तो  हैं

सिसकियाँ अब तक हैं जारी सी

 

लोग कहते हैं  कि  जी ली, पर

ज़िन्दगी  लगती   गुजारी  सी

 

बदलियों के सामने  क्यों  धूप

हो  रही  है  इक  भिखारी  सी

 

आसमाँ रोया  बहुत  था  कल

आज  सूरत  है  निखारी  सी

 

हर तरफ़  घायल हुआ हूँ   मै

बात  शायद   थी  दुधारी…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 6, 2014 at 12:04pm — 28 Comments

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