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लक्ष्य हमारा

आकाश में उड़ने की चाह लिये

कल्पना रूपी पंखों को फैलाने की कोशिश करता हूँ

पर

अक्सर नाकाम होता हूँ

उस ऊँची उड़ान में,

फिर भी आस लगाये रहता हूँ

कि कभी तो वो पर निकलेंगे

जो मुझे ले जायेंगे

मेरे लक्ष्य की ओर,

और अनवरत ही

बढता जाता हूँ

अथक प्रयास करते हुए

सुनहरे ख्वाब की ओर अग्रसर करने वाले पथ पर।…

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Added by Pawan Kumar on August 13, 2014 at 12:30pm — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
अकड़न - अतुकांत -(गिरिराज भंडारी)

‘ अकड़न ’  

*********

जहाँ कहीं भी अकड़न है

समझ लेने दीजिये उसे

अगर वो ये सोचती है कि, दुनिया है , तो वो है

तो ये बात सही भी हो सकती है

और अगर वो ये सोचती है कि , वो है, इसलिए दुनिया है

तो फिर उसे देखना चाहिए पीछे मुड़कर

कि, कोई भी नहीं बचा है , ऐसी सोच रखने वालों में से

और दुनिया आज भी है ,

वैसे तो तुम्हारा होना बस तुम्हारा होना ही है , इससे ज्यादा कुछ नहीं

बस एक घटना घटी और तुम हो गए

एक और…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 13, 2014 at 9:30am — 17 Comments

बहुत गहरा गए हैं अंधेरे हर सू

बहुत गहरा गए हैं अंधेरे हर सू

रोशनी की किरन अब कहां खोजें

 

गुम हो गई है कहां दुनिया में

आओ मिल के हम वफा खोजें

 

खतावार जब कि थे हम दोनों ही

क्यूं न इक जैसी ही सजा खोजें

 

जीत जाएं न कहीं दूरियां हमसे

आओ मिल के अपनी खता खोजें

 

नफरतों के वास्ते न जगह बाकी हो

पूरे जहान में एसा कोई पता खोजें

-----प्रियंका

 

"मौलिक व अप्रकाशित" 

Added by Priyanka Pandey on August 12, 2014 at 11:00pm — 4 Comments

छोटी बह्र की एक ग़ज़ल-रात

जैसे जैसे बिख़री रात,

बिस्तर बिस्तर पिघली रात.

.

चाँद के साथ बदलती रँग,

काली भूरी कत्थई रात.

.

चाँद ज़मीं पर उतरा था,

हुई अमावस पिछली रात.

.

एक शम’अ थी साथ मेरे,  

फिर भी तन्हा सुलगी…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on August 12, 2014 at 10:24pm — 15 Comments

खुरचन

गुरु लघु और लघु गुरु, आपस में है मेल

चूक हुई तों समझिये, बिगड़े सारा खेल

खीरे सा मत होइये , गर्दन काटी जाय

दुनिया से तुम तो गये, स्वाद न उनको आय



इन्द्र देव नाखुश हुए, धरती सूखी जाय

फसल बाजरा तिल करें , दूजा न अब उपाय

जग में संगत बडन की, करो सोच सौ बार

जोड़ी सम होती भली , खाओ कभी न मार



चौबे जी दूबे बने, पीटत अपना माथ

छब्बे बनने थे चले, कुछ नहि आया हाथ



मोबाइल ले हाथ में , बाला करती चैट

गिटपिट…

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Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on August 12, 2014 at 10:00pm — 6 Comments

एक बड़ा हादसा (लघुकथा)

फैक्ट्री में हुए एक भयानक हादसे में उसे अपनी दोनों टाँगे गंवानी पड़ गई, जबकि उसके तीन साथियों को जान से हाथ धोना पड़ा था.
"तुम्हें ठीक होनें में तो अभी बहुत समय लगेगा, जबकि एक महीने के बाद ही तुम्हारी रिटायरमेंट है। इसलिए मैनेजमेंट ने फैसला किया है कि तुम्हें एक महीना पहले ही रिटायर कर दिया जाए।”  उसका हाल चाल पूछने आए सहकर्मियों में से एक ने उसे सूचित किया

“चलो कोई बात नहीं यार, भगवान…
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Added by Ravi Prabhakar on August 12, 2014 at 6:00pm — 20 Comments

ग़ज़ल (ख़्वाबों पे उसका पहरा है)

ख़्वाबों पे उसका पहरा है!

यादों का सागर गहरा है !!

चीखें वो फिर सुनाता कैसे!

मुझको तो लगता बहरा है !!

आईने में भी देखा कर !

क्या ये तेरा ही चेहरा है !!

बातें उसनें कर दी ऐसी !

दिल में सन्नाटा ठहरा है !!

कतरा -कतरा जीता हूँ मैं!

मेरे अन्दर भी सहरा है !!

*************************

राम शिरोमणि पाठक"दीपक"

मौलिक/अप्रकाशित 

Added by ram shiromani pathak on August 12, 2014 at 1:00pm — 7 Comments

प्रेम भाव के सेतु बन्ध में..

नवगीत

प्रेम भाव के सेतु बन्ध में,

कुटिल नीति के खम्भ गड़े हैं।

गहन सिंधु से मुक्त हुआ रवि,

पथ पर पर्वत अटल अड़े है।

प्रजातंत्र की जड़े हिला कर,

स्वर्ण कवच में सजल खड़े है।।1

कर लम्बे अति प्रखर सोच रति

तीक्ष्ण बाण से भीष्म बिंधे है।

श्वांस-श्वांस चलती लू-अंधड़,

संशय मन में प्रश्न बड़े हैं।।2

छलक रहे नित अश्रु गाल पर,

शुष्क होंठ भी सिले हुए हैं।

भाव-वचन पर शोध नही जब,

चींख रहे जन तंग घड़े…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 12, 2014 at 4:52am — 3 Comments

इक दिन अपना नाम बताकर !

इक दिन अपना नाम बताकर !
हँसती है वो आँख चुराकर!!

पत्थर का है शहर जानलो!
घर से निकलना सर बचाकर !!

तेरी गर मासूका ना हो !
खुद को ही खत रोज़ लिखाकर!!

मुझको खुद से दूर कर दिया!
इतना अपने पास बुलाकर !!

इक दिन वो सुन लेगा तेरी !
बस तू जाके रोज़ कहाकर!!
********************
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित

Added by ram shiromani pathak on August 12, 2014 at 12:30am — 4 Comments

सबसे अलग नालायक (लघुकथा)

"सुनती हो, देखा तुमने गुप्ता जी की बेटी आज दौड़ में फर्स्ट आयी है, देखो हर फ़ील्ड में अव्वल है और एक हमारी बेटी है, पास हो जाती है यही उसका एहसान है, मैं पहले ही कहता था कि जिस रास्ते पर चल रही है वो सही नहीं है| दिन भर बस पता नहीं क्या सोचती रहती है | पांचवीं में पढ़ती है और बैठी ऐसे रहती है जैसे 50 साल की बुढ़िया हो |" - मदन जी चिल्लाते हुए अपने घर में दाखिल हुए|

 

उनकी पत्नी तो जैसे ये वाक्य सुनने को आतुर बैठी थी, उसने भी चिल्लाते हुए जवाब दिया, "अब आपके खानदान की है, और क्या…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on August 11, 2014 at 6:30pm — 16 Comments

बिच्छू के डंक-से ये दिन

बिच्छू के डंक-से दिन ये खलते रहे

सर्प के दंश-सी रातें खलती रहीं

बंद पलकों में ले दर्द सारा पड़े

नव सृजन-सर्ग की आस पलती रही  |

 

अहं से हृदय काँटा हुआ जा रहा

द्वेष-दावाग्नि घर-बार पकड़े हुए

भोग की यक्ष्मा भीतर घर कर गई

रात-दिन बुद्धि के ज्वर से हम तप रहे

जैसे बढ़ते ज़हरबाद का हो असर

क्रूरता-नीचता मन की बढ़ती रही |

 

आँख काढ़े-सा शैतान विज्ञान का

पीसकर दाँत आगे खड़ा हो रहा

महामारी-सा रुतबा है आतंक…

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Added by Santlal Karun on August 11, 2014 at 2:30pm — 4 Comments

"इक ऐसा भी घर बनवाना"

इक ऐसा भी घर बनवाना!
जिसमे रह ले एक ज़माना !!

खुद से खुद की बातें करना !
जब खुद के ही हिस्से आना !!

वो मरा है तू भी मरेगा !
लगा रहेगा आना जाना !!

कुछ ऐसा भी कर ले पगले !
जो बन जाए एक फ़साना !!

खुद से ही भागेगा कब तक !!
खुद से चलता नहीं बहाना !!

भूल गया हो गर वो मुझको !
उसको मेरी याद दिलाना !!
***************************

राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित

Added by ram shiromani pathak on August 11, 2014 at 11:21am — 8 Comments

बोलने से कौन करता है मना - (ग़ज़ल) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    212

**********************

जन्म  से  ही   यार  जो  बेशर्म  है

पाप क्या उसके लिए, क्या धर्म है

**

छेड़ मत तू बात किस्मत की यहाँ

साथ  मेरे  शेष  अब  तो  कर्म  है

**

बोलने  से  कौन  करता है मना

सोच पर ये शब्द का क्या मर्म है

**

चाँद  आये  तो  बिछाऊँ  मैं उसे

 एक  चादर  आँसुओं  की नर्म है

**

शीत का मौसम सुना है आ गया

पर चमन की  ये हवा क्यों गर्म है

**

( रचना - 30 जुलाई 2014 )



मौलिक…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 11, 2014 at 11:00am — 15 Comments

"मैं अपने ही साथ रहूँगा"

मैं अपने ही साथ रहूँगा!
खुद में तुझसे बात करूँगा!!

अब चाहे  जिससे मिलना हो!
दर्पण अपने साथ रखूँगा!!

मेरे कद को ढाँक सके जो !
ऐसी चादर साथ रखूँगा!!

उनको हँसकर मिलने तो दो!
मैं भी दिल की बात करूँगा!!

बातें बहुत ज़बानी कर लीं!
मैं भी खत इक बार लिखूँगा!!
*****************************

राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित

Added by ram shiromani pathak on August 11, 2014 at 11:00am — 12 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
राष्ट्र-रूप (घनाक्षरी) // --सौरभ

देश  है नवीन  किन्तु, राष्ट्र है सनातनी ये,  मान्यता और संस्कार की  लिये निशानियाँ

था समस्त लोक-विश्व क्लिष्ट तम के पाश में, भारती सुना रही थी नीति की कहानियाँ

संतति  प्रबुद्ध मुग्ध  थी  सुविज्ञ  सौम्य उच्च, बाँचती थी धर्म-शास्त्र को सदा जुबानियाँ

स्वीकार्यता  चरित्र  में,   प्रभाव  में  उदारता,   शांत  मंद  गीत  में  सदैव थीं…

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Added by Saurabh Pandey on August 11, 2014 at 2:30am — 30 Comments

अवसरवादी....(लघुकथा)

देखो ! न.. बेचारा नरेश बड़े शहर में नौकरी कर, अपनी पत्नि व् छोटे से बेटे के साथ-साथ गाँव में अपनी बूढी विधवा माँ और दो कुवांरे निकम्मे भाइयों का भी पालन करता रहा. उसने कई बार अपने दोनों भाइयो को काम-धंधे से लगवाया, किन्तु दोनों की मक्कारी और माँ के लाड़-प्यार  ने उन्हें हमेशा से कामचोर भी बना रखा था.

हाँ भाई ! अभी पिछले माह ही तो सड़क दुर्घटना में नरेश की मौत हुई थी और देखो तो बेचारे  नरेश की विधवा पत्नी और बेटे को घर से बाहर निकाल दिया, दोनों हरामी भाइयों ने. कम से कम ,माँ को तो…

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Added by जितेन्द्र पस्टारिया on August 11, 2014 at 1:59am — 12 Comments

एक ग़ज़ल -जब दिल की धड़कने हों थमीं, क्यूँ जिगर चले?

22121211221212

.


जब रात ढल गई तो सितारे भी घर चले,

कुछ रिंद लड़खड़ाके चले थे, मगर चले. 

.

कुछ सोचने दो मुझ को कमाई का रास्ता. 

शेरो सुखन के दम पे भला कैसे घर चले. 

.

क्या है पड़ी मुझे कि जियूँ मै तेरे बग़ैर, 

जब दिल की धड़कने हों थमीं, क्यूँ जिगर चले? 

.

अब छोड़िये भी फ़िक्र हमारी हुज़ूर आप, …

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Added by Nilesh Shevgaonkar on August 10, 2014 at 11:00pm — 4 Comments

"पुष्प हरसिंगार का "

"गीत"

_____

श्याम घन नभ सोहते ज्योँ ग्वाल दल घनश्याम का ।

चंचला यमुना किनारे नृत्य रत ज्योँ राधिका ||



आ रहे महबूब मेरे

दिल कहे श्रृँगार कर ।

द्वार पर कलियाँ बिछा कर

बावरी सत्कार कर ।

प्यार पर सब वार कर

-दुल्हन सदृश अभिसार कर ।

अब गले लग प्राण प्रिय से

डर भला किस बात का |

श्याम घन नभ सोहते ज्योँ ग्वाल दल घनश्याम का ।

चंचला यमुना किनारे नृत्य रत ज्योँ राधिका ||

चाहती पलकें भी बिछना…

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Added by Chhaya Shukla on August 10, 2014 at 8:30pm — 29 Comments

प्रेम पारावार

अगम है प्रेम पारावार फिर भी  प्रिये पतवार लेकर आ गया हूँ I

विकल मन में जलधि के ज्वार  फूटे

तार      संयम       अनेको     बार    टूटे

प्राण     आकंठ      होकर       थरथराये

नेह    के   बंधन   सजीले   थे   न    छूटे

प्यास  की  वासना  उद्दाम ऐसी  नयन  सागर सहेजे आ गया हूँ I

 

नयन   ने    काव्य  करुणा  के   रचे  हैं

कौन  से    पाठ्यक्रम    इससे    बचे   हैं

किसी   कवि   ने   इन्हें जब गुनगुनाया

लाज     ने    तोड़      डाले  …

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 10, 2014 at 2:30pm — 22 Comments

सहारा मिल गया होगा

1222 1222 1222 1222

झुकी पलकों कि उल्फत का इशारा मिल गया होगा ।

कि सहरा को समंदर का नज़ारा मिल गया होगा ।

अभी था रो रहा बच्चा अभी है खेलता हँसता ,

कि खोया था खिलौना जो दुबारा मिल गया होगा ।

घटाओं की अँधेरी रात में उम्मीद जागी है ,

गगन में टिमटिमाता इक सितारा मिल गया होगा ।

सुखों की ख्वाहिशें जिसने समझ से छोड़ दी होंगी ,

उसे दुःख के भँवर से भी किनारा मिल गया होगा ।

निगाहों ने कहा मुझ से कि सूरत सी…

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Added by Neeraj Nishchal on August 10, 2014 at 2:00pm — 8 Comments

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"    प्रस्तुति की सराहना हेतु हृदय से आभार आदरणीय मिथिलेश जी. सादर "
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