मुख भोला है भली पोशाक |
मैं भी तत्पर हुई बेबाक | बेबाक= निर्भीक|
किसे पता की मन में खोट|
कह सखि साजन ? ना सखि वोट |
कमरे में घुसते ही जाँचै |
उलटि पलटि वह ठहि के बाँचै | ठहि= स्थिर, इत्मीनान; बाँचै= निरखना, पढ़ना |
आँखों से मारै जस चोट |
कह सखि साजन ? ना सखि वोट |
ना छोड़ै जब अवसर आवे |
अंगुली पकड़त दाग लगावे |
ना पहचानै बड़ा न छोट |
कह सखि साजन ? ना सखि वोट…
ContinueAdded by SHARAD SINGH "VINOD" on January 1, 2015 at 6:30pm — 17 Comments
ग़ज़ल- 8 + 8 + 8 (रोला मात्रिक)
किस सागर में जान मिलेगी धार समय की
कौन पकड़ पाया जग में रफ़्तार समय की
मोल समय का उससे जाकर पूछो माधो
नासमझी में जिसने झेली मार समय की
जीवन नैया पार हुई बस उस केवट से
कसकर थामी जिसने भी पतवार समय की
आलस छोड़ो साहस धारो कर्म करो तुम
उठ जाओ अब सुनकर तुम फटकार समय की
कद्र तुम्हारी ये संसार करेगा उस दिन
कद्र करोगे जिस दिन बरखुर्दार…
ContinueAdded by khursheed khairadi on January 1, 2015 at 3:30pm — 19 Comments
नवगीत : दिन में दिखते तारे.
तिल सी खुशियों की राहों में,
खड़े ताड़ अंगारे.
कैसे कटें विपत्ति के दिन,
दिन में दिखते तारे.
आशा बन बेताल उड़ गयीं,
उलझे प्रश्न थमाकर.
मुश्किल का हल खोजे विक्रम,
अपना चैन गवाँकर.
मीन जी रही क्या बिन जल के.
खाली पड़े पिटारे.
कैसे कटें विपत्ति के दिन..
दिन में दिखते तारे.
दर्पण हमको रोज दिखाता,
एक फिल्म आँखों से,
पत्तों जैसे दिवस झर…
ContinueAdded by harivallabh sharma on January 1, 2015 at 3:00pm — 24 Comments
साथ मेरे ज़िंदगी की …(एक रचना )
साथ मेरे ज़िंदगी की रूठी किताब रख देना
जलते चरागों में बुझे वो लम्हात रख देना
रात भर सोती रही शबनम जिस आगोश में
रूठी बहारों में वो सूखा इक गुलाब रख देना
कहते कहते रह गए जो थरथराते से ये लब
साथ मेरी धड़कनों के वो जज़्बात रख देना
आज तक न दे सके जवाब जिन सवालों का
साथ मेरे वो सिसकते कुछ जवाब रख देना
मिट गयी थी दूरियां भीगी हुई जिस रात में
एक मुट्ठी…
Added by Sushil Sarna on January 1, 2015 at 1:22pm — 18 Comments
मुझ पे कब इख्तियार मेरा है
यूँ नए साल का सवेरा है.
ख़ैरियत लोग मेरी पूछें जब
ज़ेह्न ने दर्द ही उकेरा है .
इश्क़ बाजों से पूछ कर देखो
चाँद के पार भी बसेरा है.
वक़्त की धुन पे नाचती दुनिया
वक़्त सबसे बड़ा सपेरा है.
धर्म ईमान कुफ़्र की बातें
मुझ पे वाइज़ असर ये तेरा है .
नाम तुझ पर 'दिनेश' जँचता नहीं
तेरी किस्मत में जब अंधेरा है .
दिनेश कुमार
( मौलिक व अप्रकाशित )
Added by दिनेश कुमार on January 1, 2015 at 8:00am — 14 Comments
वर्ष फिर बीत गया
यूँ दे गया, अनुभव
जीने के
लड़ने के, अंधेरों से
रौशनी के लिए
सत्य से सत्य को
छीन लिया
असत्य से असत्य
छोड़े भी और मांग भी लिए
अधिकारों को
थोड़ी सी घुटन में
राहों में चलते रहे
अपनों के साथ
अपनों के ही लिए
जान लिया, पहचाना भी
समझ भी तो गये
अँधेरा और दुःख
दोनो ही तो, चाहिए
रौशनी और सुख के साथ-साथ
बड़ा अच्छा लगता है
इनके बीच…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on January 1, 2015 at 7:28am — 10 Comments
हां मैं एक पुरुष हूँ और अगर मैं एक पुरुष हूँ !
तो मुझे बनना भी चाहिए उस पुरुष की तरह
जो बेरोजगारी की भेंट चढ़कर, अपने फर्ज़ निभाता रहे,
सुबह से शाम तक रोजी रोटी की जुगाड़ में
जैसे हो कोई जादूगर, जिसके हांथों में हो गरीबी का हुनर
टूटी चप्पलें और घिसते पेंट की मोहरी से, झलके उसकी गरीबी
और ये नाक वाले नेता, छीन सके हम गरीबों के मुंह का निवाला
और कह सकें “तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हे नौकरी दूंगा”
जैसे हम गरीब हों बिना पेट के पुतले, पेट हो जैसे मेरा एक…
Added by sunita dohare on January 1, 2015 at 1:00am — 9 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on December 31, 2014 at 11:24pm — 16 Comments
1222 1222 1222 1222
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कोई चाहत नहीं मेरी ,तेरे इक़ प्यार से आगे
क़भी सोचा नहीं मैंने ,तेरे रुख़सार से आगे
---------
क़भी का जीत लेता मैं,ज़माने को मेरे दम पर
मग़र वो जीत मिलनी थी,तेरी इक हार से आगे
---------
हरिक ख़्वाहिश अधूरी है,इन्हे करदे मुकम्मल तू
क़भी तो आज़मा ले तू ,मुझे इनकार से आगे
---------
जमाने की हरिक़ खुशियाँ ,तेरे कदमों तले रख़ दूँ
तेरा हर ख़्वाब हो जाऊँ,तेरे इक़रार से…
Added by umesh katara on December 31, 2014 at 8:20pm — 9 Comments
कभी निकटता रिश्तों में ,
ज्यों सागर की गहराई !
कभी दूरियाँ अपनों में,
ज्यों अम्बर की ऊँचाई !
कभी सहजता चुप्पी में,
कभी जटिलता बोली में !
कभी बर्फ मैं ज्वाला किंतु,
आंच नहीं अब होली मैं !
कहीं मोहब्बत की म्यानों में,
रखी बैर की शमशीरें !
कहीं इबारत उलटी यारों ,
जहाँ लिखी हैं तक़दीरें !
कहीं सत्य एक झंझट,
कही झूठ है सुलझा !
कहीं किसी ने जाल बिछाया
खुद ही आकर उलझा…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on December 31, 2014 at 7:30pm — 10 Comments
**साल गुजरे जा रहे हैं.
आ रहे पल, जा रहे पल
साल गुजरे जा रहे हैं.
वक़्त बन के पाहुना,
आ गया है द्वार पर.
साज सज्जा वाद्य धुन.
गूंज मंगलचार घर.
नवल वधु से कुछ लजा,
दिन सुनहरे आ रहे हैं.
साल गुजरे जा रहे हैं.
बोझ बढ़ता नित नया.
स्कूल का बस्ता हुआ,
दाम बढ़ते माल के,
आदमी सस्ता हुआ.
नाम सुरसा का सुना जब,
आमजन भय खा रहे है.
साल गुजरे जा रहे हैं.
सूर्य भटका…
ContinueAdded by harivallabh sharma on December 31, 2014 at 7:23pm — 16 Comments
1222 1222 1222 122
नया सूरज नई आशा चलो इक बार फिर से
शब-ए-ग़म में नया किस्सा चलो इक बार फिर से
तेरे पिंदार का दामन तसव्वुर थाम लेगा
तेरी यादें तेरा चर्चा चलो इक बार फिर से
किसे हसरत बहारों की किसे चाहत चमन की
वही जंगल वही सहरा चलो इक बार फिर से
किसी पर तंज़िया पत्थर उछालेंगे न हरगिज
यही ख़ुद से करें वादा चलो इक बार फिर से
बुझेगी तिश्नगी अपनी शरारों से हमेशा
निगलने आग का दरिया चलो…
ContinueAdded by khursheed khairadi on December 31, 2014 at 11:00am — 13 Comments
मैं चौक गया
आईना देखकर
परख कर
अपनी परछाई
मुख में झुर्री
काली काली रेखाएं
आंखों के नीचे
पिचका हुआ गाल
हाल बेहाल
सिकुड़ी हुई त्वचा
कांप उठा मैं
नही नही मैं नही
झूठा आईना
है मेरे पिछे कौन
सोचकर मैं
पलट कर देखा
चौक गया मैं
अकेले ही खड़ा हूॅं
काल ग्रास होकर ।
.......................
मौलिक अप्रकाशित
Added by रमेश कुमार चौहान on December 31, 2014 at 10:30am — 8 Comments
122 - 122 - 122 - 122 - 122 - 122 - 122 - 122 (16-रुक्नी)
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गुजारिश नहीं है, नवाजिश नहीं है, इज़ाज़त नहीं है, नसीहत नहीं है।
ज़माना हुआ है बड़ा बेमुरव्वत, किसी को किसी की जरूरत नहीं है।
किनारे दिखाई नहीं दे रहें है, चलो किश्तियों के जनाज़े उठा लें,
यहाँ आप से है समंदर परेशाँ, यहाँ उस तरह की निजामत नहीं है।
जमीं आसमां…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 31, 2014 at 12:41am — 31 Comments
और भाई, इस बार तो तूने पूरी राम लीला देख ली क्या सीखा ?
भईया, रामचरितमानस की कथा के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ की पिता का कहना नहीं मानना चाहिए, इससे बहुत तकलीफ उठानी पड़ती है !!
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Hari Prakash Dubey on December 30, 2014 at 11:55pm — 9 Comments
(2122 2122 2122 2122)
दोस्ती कैसे निभाएं कोई पैमाना कहाँ है
हीर रान्झू का नया सा आज अफ़साना कहाँ है
प्यार से ही जो बदल दे हर अदावत की फ़जा को
संत मुर्शिद सूफ़ी मौल़ा ऐसा मस्ताना कहाँ है
ख़ुद गरज नेता वतन का तो करेंगे वो भला क्या
मार हक़ फिर देखते हैं वो कि नजराना कहाँ है
अंजुमन में रिन्दों की भी बैठ कर देखें जरा हम
हाल सब का पूछते वो कोई अनजाना कहाँ है
हर ख़ुशी कुर्बान…
ContinueAdded by कंवर करतार on December 30, 2014 at 10:00pm — 19 Comments
रात आँखों में बिता दूँ ! तो क्या बुरा मानोगे ?
मैं आज बत्तियां जला दूँ ! तो क्या बुरा मानोगे ?
बैठे हो सर झुकाए, कुछ गुमशुदा से बन के,
आज घूँघट फिर उठा दूँ ! तो क्या बुरा मानोगे ?
है कंपता बदन ये, आँखों में कुछ नमी है,
लाओ सर जरा दबा दूँ ! तो क्या बुरा मानोगे ?
लगती हो खोई-खोई, किस सोच में पड़ी हो ?
ग़र फिक्र सब मिटा दूँ ! तो क्या बुरा मानोगे ?
ख़ामोशी क्यूँ है इतनी ? अरे गाते थे कभी हम,
मैं कुछ गीत…
ContinueAdded by संदेश नायक 'स्वर्ण' on December 30, 2014 at 8:14pm — 9 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on December 30, 2014 at 1:03pm — 24 Comments
दो हजार पंद्रह मने, योग लिए है आठ,
मानो यह नव वर्ष भी,लेकर आया ठाठ |
नए वर्ष का आगमन, खुशिया मिले हजार,
सबको दे शुभ कामना, दूर करे अँधियार |
रश्मि करे अठखेलियाँ, आता तब नववर्ष
प्राची में सौरभ खिले, सुखद धूप का हर्ष |
अच्छे दिन की आस रख, ह्रदय रहे सद्भाव
दूर करे नव वर्ष में, रिश्तों से अलगाव |
स्वागत हो नव वर्ष का,लेता विदा अतीत,
प्रथम दिवस के भोर से, शुभ हो समय व्यतीत…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 30, 2014 at 12:30pm — 10 Comments
2122 2122 2122 212
" मोगरे के फूल पर थी चाँदनी सोई हुई -
( इस मिसरे पर गज़ल कहने की मैने भी कोशिश की है , आपके सामने रख रहा हूँ )
****************************************************************************
ग़म सभी बेदार लगते , हर खुशी सोई हुई
जग गई लगती है फिर से, बेकली सोई हुई -
बेदार -जागे हुये, बेकली - अकुलाहट
फैलती ही जा रही बारूद की बदबू जहाँ
बे ख़ुदी में लग रही बस्ती वही सोई…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 30, 2014 at 11:00am — 23 Comments
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