गीतिका छंद......गीतिका छ्न्द में 14-12 के क्रम में कुल 26 मात्राएं होती हैं. इस छंद की प्रत्येक पंक्ति की तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं व चौबिसवी मात्राएं अनिवार्य रूप से लघु ही होती हैंं.
मां सरस्वती - वन्दना
शारदे मां वर्ण-व्यंजन में प्रचुर आसक्ति दो।
शब्द-भावों में सहज रस-भक्ति की अभिव्यक्ति दो।।
प्रेम का उपहार नित संवेदना से सिक्त हो।
हर व्यथा-संघर्ष में भी क्रोध मन से रिक्त हो।।1
वृक्ष सा जीवन हमारा हो नदी की भावना।
तृप्त ही…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 23, 2015 at 11:00pm — 4 Comments
धीरे से कहा जो तुमने,
वो मेरे मन ने सुन लिया।
तुम नहीं थे समीप मेरे,
फिर भी मैंने तुम्हें देख लिया।
अधरों पर थी बात ही और,
जिसका अर्थ हृदय ने समझ लिया।
तुम भूले नहीं थे मुझे,फिर भी
तुमने भूलने का-सा अभिनय किया।
है निवास हृदय में मेरा ही,
किन्तु कुछ और ही दिखला दिया।
सोचा करते हो केवल मुझे,
पर काम कुछ और बता दिया।
कहते हो कि कुछ भी नहीं,
पर अधिकार अपना जता दिया।
मेरी समीपता से ही होते हो
विचलित,स्वभाव इसे…
Added by Savitri Rathore on May 23, 2015 at 7:30pm — 3 Comments
Added by kanta roy on May 23, 2015 at 6:36pm — 15 Comments
Added by मनोज अहसास on May 23, 2015 at 4:30pm — 3 Comments
"ठीक है पिताजी। मान लो आप कि मैं नास्तिक हूँ और रीति रिवाज नही मानता।" बेटे ने सजल आँखो से कहा।
"बेटा। एक तुम्हारे ना मानने से समाज के रिवाज खत्म नही हो जायेगें।" व्यथित मन से पिता ने जवाब दिया।
"जानता हूँ नही खत्म होगें। लेकिन इस कठोर परम्परा के लिए हर दिन पेड़ो से काटी जाने वाली लकड़ी के कारण ठूंठ होते गांव में एक नई परम्परा की शुरूआत तो हो सकती है।" कहते हुये बेटे ने रूंधे लेकिन कड़े मन से गांव में पहली बार मगांयी गयी बिजली शव दाह घर की गाडी में अपनी पत्नि के शव को ले जाने की तैयारी…
Added by VIRENDER VEER MEHTA on May 23, 2015 at 4:18pm — 3 Comments
2122 2122 212
चाँदनी बदली को इतना भा गयी
पगली बदली चाँद को ही खा गयी
जिसको रोता देख हमने की मदद
वो ही बिपदा बन मेरे सर आ गयी
हक़ की मैंने की यहाँ है बात जब
गोली इक बन्दूक की दहला गयी
जिस घड़ी लव पे हँसी आयी मेरे
वो उसी पल अश्क से नहला गयी
जान से मारा मगर जब बच गया
आ मेरे घावों को वो सहला गयी
Added by Dr Ashutosh Mishra on May 23, 2015 at 1:43pm — 12 Comments
"नही! मैं नही करती तुमसे प्यार।" यही कहा था मैंने उस दिन इसी जगह पर, ऐसी ही किसी शाम में।
"करने लगोगी, शादी के बाद।" तुम हॅस पड़े थे।
और फिर चंद हफ्तो बाद ही मैं दुल्हन बनी तुम्हारे घर आ गयी। उसके बाद जब भी तुमने ये सवाल किया मैं चुप रही, अब मन की बात नही बोल सकती थी न। और फिर एक दिन निकल गयी तुम्हारे जीवन से। 'उसी के' साथ जिससे 'मैं' प्यार करती थी।............
..........जल्दी ही लौट आयी थी मैं, उसके प्यार का जहर पीकर पर देर हो चुकी थी उसने मुझसे 'मनचाहा' पा कर मुझे छोड़ दिया…
Added by VIRENDER VEER MEHTA on May 23, 2015 at 10:00am — 10 Comments
"एइ जे ! हाजरा मोड़ जाएगा ? "
"हाँ साहेब, जाएँगे ।"
"किराया कितना ?"
"बीस टाका !"
"गला काटता है रे ...!! "
"नहीं साहेब , ऑटो तो पचास टाका लेगा ।"
"ओ ले शकता है, पेट्रोल से जो चलता है ना ।"
"ठीक है साहेब ...जो मर्जी दे दीजिएगा ।" पेट्रोल का कीमत सब को पता है, खून का कीमत? सोचता रिक्शा खींचने लगा ।
"बस बस ...! यहीं रोको ...!" दस रूपये रख कर चलता बना ।
जेब से दिन भर की कमाई निकाल कर हिसाब लगा रहा था बुधिया... रिक्शा का किराया देने…
ContinueAdded by sunanda jha on May 23, 2015 at 9:30am — 10 Comments
थोड़ा-थोड़ा तुझसे अटकने लगा हूँ,
थोड़ा-थोड़ा अब मैं भटकने लगा हूँ।
छोटी-छोटी बातें न समझा कभी,
थोड़ा-थोड़ा अब मैं समझने लगा हूँ।
गरजा हूँ बहुत पहले बातों पे मैं,
थोड़ा-थोड़ा अब मैं सरसने लगा हूँ।
बदली वह लदी कब से ढोये चला ,
थोड़ा-थोड़ा अब मैं बरसने लगा हूँ।
शुकूं में था प्यासा,नजर तेरी पी के ,
थोड़ा-थोड़ा अब मैं तरसने लगा हूँ।
कहाँ-कहाँ अबतक अटकता रहा था,
थोड़ा-थोड़ा अब मैं झटकने लगा हूँ।
भटकता फिरा हूँ मैं ,तेरी नजर में
थोड़ा-थोड़ा अब मैं…
Added by Manan Kumar singh on May 23, 2015 at 7:00am — 3 Comments
" मैंने तो बिना पैसे दिए ही शॉपिंग कर ली | वो बाजार में एक छोटी सी किराने की दुकान है न , आज वहां चली गयी थी | सामान लेने के बाद उसने पैसे लेने से इंकार कर दिया, बोला कि वो आपको जानता है और इसलिए पैसे नहीं लेगा "|
वो सोच में पड़ गया , अपने गाँव का छोटी जात का दुकानदार , जिसकी बेटी की शादी में १०१ रुपये देकर उसने अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली थी |
आज वो अपने आप को बहुत छोटा महसूस कर रहा था |
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on May 22, 2015 at 9:48pm — 12 Comments
वार्तायें ,
किसी सर्व समावेशी बिन्दु की तलाश में
अपने अपने वैचारिक खूँटे से बंधे बंधे क्या सँभव है ?
आँतरिक वैचारिक कठोरता
क्या किसी को विचारों के स्वतंत्र आकाश में उड़ने देता है ?
सोचने जैसी बात है
वार्तायें अपने अपने सच को एन केन प्रकारेण स्थापित करने के लिये नहीं होतीं
न ही लोट लोट के किसी भी बिन्दु को स्वीकार कर लेने लिये ही होती हैं
वार्तायें होतीं है
अब तक के अर्जित सब के ज्ञान को मिला के एक ऐसा मिश्रण…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on May 22, 2015 at 4:36pm — 6 Comments
चटक धूप. आसमान में उड़ते-उड़ते गला सूख गया था. पानी की एक बूँद कहीं नजर नहीं आ रही थी. पानी या तो बोतलों में बन्द था या वहाँ स्वीमिंग पूल में था , लेकिन स्वीमिंग पूल के ऊपर लगी जाली के कारण पाना सम्भव नहीं था.
इस प्रचंड गर्मी में सजे-धजे साफ़-सूथरे शहर में प्यास से व्याकुल चिडियों को खसर-खसर करते वो चापाकल, उनके किनारे की खुली नालियाँ, लगातार टपकती म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन की टोटियों की बहुत याद आ रहीं थी.
(मौलिक और अप्रकाशित)
Added by Shubhranshu Pandey on May 22, 2015 at 3:00pm — 14 Comments
Added by मनोज अहसास on May 22, 2015 at 5:30am — 4 Comments
चकोर सवैया (7 भगण +गुरु लघु ) 23 वर्ण
चाबुक खा कर भी न चला अरुझाय गया सब घोटक साज
अश्व अड़ा पथ बीच खड़ा न मुड़ा न टरा अटका बिन काज
सोच रहा मन में असवार यहाँ इसमे कछु है अब राज
बेदम है यह ग्रीष्म प्रभाव चले जब सद्य मिले जल आज
मत्तगयन्द (मालती) सवैया (7 भगण + 2 गुरु) 23 वर्ण
बीत बसंत गयो जब से सखि तेज प्रभाकर ने हठि…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 21, 2015 at 9:17pm — 5 Comments
Added by Manan Kumar singh on May 21, 2015 at 8:38pm — 2 Comments
Added by विनोद खनगवाल on May 21, 2015 at 1:12pm — 4 Comments
आज नयी बहू ने नौकर को बड़ी बहू के कमरे से रात में निकलते देख लिया । रात आँखों आँखों में बीत गयी , किससे क्या पूछे | अगली सुबह बड़ी बहू ने उसके चेहरे को पढ़ लिया और उसे अपने कमरे में बुलाया ।
" मेरे चरित्र के बारे में कुछ धारणा बनाने से पहले मेरे पति को भी जान लो , कई कई महीने घर नहीं आता है और वहाँ क्या क्या करता है , ये सबको पता है "।
छोटी बहू स्तब्ध , कुछ कहे उससे पहले ही वो फिर बोली " और हाँ , जब शरीर को ज़रूरत होती है तो सही गलत कुछ नहीं होता "।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on May 21, 2015 at 12:28am — 6 Comments
भूकम्प....
यादों के शहर में
मुॅह बिचकाती सड़कें
दरक कर उलाहना देतीं ....दीवारें खिसियाती
जमीं पर भटकते अबोध सितारे
औंधें मुॅह धूल चाटतीं ऐतिहासिक धरोहरें
झुके वृक्ष कुछ और झुक कर पूछना चाहते....कैसे हो?
भूकम्प के झटकों से टेढ़ा हुआ चॉद
चॉदनी धू-धूसरित....
मलबे के नीचे दबे विदीर्ण स्वर अतिशांत
प्रकृति भी सहम उठती।
अडिग अट्टालिकाएं चकनाचूर
बिछड़े आँखों के नूर
भाग्य स्वयं को कोसते.....तो, संवेदनाएं मूक।
मैदानों…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 20, 2015 at 8:00pm — 8 Comments
Added by मनोज अहसास on May 20, 2015 at 4:48pm — 3 Comments
1222 1222 1222 1222
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मुहब्बत है कभी जिसने मुझे कहला दिया साहिब
मगर फिर घाव उसने ही बहुत गहरा दिया साहिब
जरूरत ही नहीं होती मुहब्बत में व़फाओं की
के बच्चों की तरह उसने मुझे बहला दिया साहिब
सड़क पर भूख से बेचैन माँ आँसू बहाती है
निवाला बेटे को जिसने ,कभी पहला दिया साहिब
मुहब्बत मिट नहीं पायी दीवारों में चुनी फिर भी
रक़ीबों ने जमाने से बहुत पहरा दिया साहिब
बहुत छेड़ा है दुनिया ने खुदा की पाक…
Added by umesh katara on May 20, 2015 at 4:47pm — 10 Comments
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