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ग़ज़ल - गीत कविता ग़ज़ल रुबाई क्या ? // --सौरभ

२१२२ १२१२ २२

साफ़ कहने में है सफ़ाई क्या ?

कौन समझे पहाड़-राई क्या ?



चाँद-सूरज कभी हुए हमदम ?

ये तिज़ारत है, ’भाई-भाई’ क्या ?



सब यहाँ जी रहे हैं मतलब से

मैं…

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Added by Saurabh Pandey on May 25, 2015 at 11:00am — 52 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल -- एक प्रयास (मिथिलेश वामनकर)

मुफ़तइलुन / मफ़ाइलुन/  मुफ़तइलुन / मफ़ाइलुन  (इस्लाही ग़ज़ल)

2 1 1 2 /  1 2 1 2 /  2 1 1 2 /  1 2 1 2

 

गम दे, ख़ुशी दे ज़िन्दगी, कितनी किसे हिसाब क्या              

दरिया फ़ना हयात का,   मुझसा वहां हुबाब क्या                    …

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Added by मिथिलेश वामनकर on May 25, 2015 at 9:30am — 39 Comments

विवाह(कविता)

जरुरी है क्या कि प्रेम हो तो विवाह भी हो?
गर कहीं हो जाये तो आगे निर्वाह भी हो?
आज का प्रेम है,पुरखों की बात पुरानी हुई,
जरुरी है क्या सबके मन में उछाह भी हो?
साथ का सिलसिला चलता रहेगा आगे भी,
जरुरी है क्या तेरे लिए मन में कराह भी हो?
जरूरतों का कुछ भी तो नाम होना चाहिए,
ढेर-सारी जरूरतों के आगे तो विवाह भीहो!
प्रेम हो,फिर विवाह,चाहे विवाह हो तब प्रेम,
प्रेमपूर्ण हो,फिर वही विवाह तो विवाहभी हो!
'मौलिक व अप्रकाशित'@मनन

Added by Manan Kumar singh on May 25, 2015 at 6:59am — 7 Comments

ग़ज़ल

रफ्ता रफ्ता जिंदगी की आरजू जाती रही ।

दरमियाँ तन्हाइयों के मौत कुछ गाती रही ।।



मत कहो वो बेवफा थी आसनाई में मिरे।

वो खयालो में मेरे यूँ रात भर आती रही।।





बारिशें मुमकिन कहाँ जो भीग जाते हम कभी ।

बनके सावन की घटा ता उम्र वो छाती रही ।।





रोज़ रुसवाई की चर्चा फ़िक्र का अपना शबाब।

मैं जलूँगी ख़ाक होने तक कसम खाती रही ।।





फिर समंदर ने गुजारिश की है लहरो से यहां।

साहिलों की तश्नगी पर जुल्म क्यों ढाती रही ।।…



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Added by Naveen Mani Tripathi on May 25, 2015 at 1:30am — 15 Comments

स्वप्न-भाव

             स्वप्न-भाव

मुझको सपने याद नहीं रहते

दर्द की कोख से जन्मे एक सपने के सिवा

आत्मीय पहचान का गहरापन ओढ़े

बार-बार लौट आता है वह

पलकों के पीछे के अंधेरों से धीरे-धीरे

जीवन के अंगारी तथ्यों की…

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Added by vijay nikore on May 24, 2015 at 8:30pm — 16 Comments

औरत(कविता)

मजदूर कह औरत की तौहीन मत कर,
गम हैं बहुत उसे,और गमगीन मत कर।
उसके आँसू लबरेज हैं तीखी कथाओं से,
अब उन्हें देख,ज्यादा नमकीन मत कर।
खूब धुली अबतक कलम उसकी धार में,
लेखनी को देख,ज्यादा हसीन मत कर।
अर्थ की माफिक उसकी हकीकत कब ?
अर्थ वह खुद, खुद को जहीन मत कर।
नूर बख्शती रही वह ज़माने को कबसे,
छोड़ फिकरे,फिर पर्दानशीन मत कर।
'मौलिक व अप्रकाशित'@मनन(01/05/2015)

Added by Manan Kumar singh on May 24, 2015 at 8:00pm — 6 Comments

ग़ज़ल बतौर-ए-ख़ास ओबीओ की नज़्र

फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन



कहूँ,ओबीओ से में क्या चाहता हूँ

ग़ज़ल की सुहानी फ़ज़ा चाहता हूँ



यही आरज़ू लेके आया हूँ यारो

मैं इस मंच को लूटना चाहता हूँ



ये समझो,मुझे कुछ भी आता नहीं है

मैं सब कुछ यहाँ सीखना चाहता हूँ



'मिथिलेश' ही सब से पहले जुड़े थे

मैं उनसे ग़ज़ल की अदा चाहता हूँ



'गिरिराज' तो मेरे हम अस्र ठहरे

मैं उनसे भी लेना दुआ चाहता हूँ



बहुत कुछ मुझे उनसे करना है साझा

मैं 'सौरभ' से इक दिन मिला चाहता… Continue

Added by Samar kabeer on May 24, 2015 at 6:30pm — 67 Comments

लधुकथा

"बेमेल रिश्ता"
_______________________

सुशील के लेखन में निहित नकारात्मक सोच ने सुमन को आज फिर दुविधा में डाल दिया।
जब लेखन में इतना कठोर तो वास्तव जीवन में .....!!!!

उसने तय कर लिया मुझे भविष्य की रूदाली नहीं बनना ।

"तुम्हारा लेखन महिला विरोधी और मैं महिला सम्मान की पुजारी । हमारा मेल नामुमकिन है सुशील जी । "
एक म्यान में दो तलवार भला कैसे रह सकती है।



नीता कसार
जबलपुर

मौलिकअप्रकाशीत

Added by Nita Kasar on May 24, 2015 at 4:10pm — 6 Comments

ग़ज़ल -नूर - कुछ और मुझ में जीने की हसरत बढ़ा गया

गागा ल/गा लगा/लल गागा/ लगा लगा   



कुछ और मुझ में जीने की हसरत बढ़ा गया

वादा किया था आने का, सचमुच में आ गया.

.

इक रोज़ मुझ से कहते हुए “ख़ूब लगते हो”

वो अपनी आँख का मुझे काजल लगा गया.

.

काफ़िर अगर जो मैं न बनूँ  और क्या बनूँ ?

दिल के हरम को छोड़ के मेरा ख़ुदा गया.

.

उट्ठा मैं हडबड़ा के टटोला इधर उधर,

ख़्वाबों में कौन आया, जगाया, चला गया. 

.

पत्ते झडे जो पक के करे उन का सोग कौन  

अफ़सोस है खिज़ा को... कि पत्ता हरा…

Continue

Added by Nilesh Shevgaonkar on May 24, 2015 at 1:30pm — 22 Comments

तू कितनी अजीज है(कविता)

तू कितनी अजीज है!(ककिता)
कैसे कहें ये दास्ताँ कि तू कितनी अजीज़ है
क्या पता कबआया दिल आजाने की चीज है
उड़ने लगीं हवाएँ जब तेरी जुल्फों से टकरा
तब लगा हर शय तुम्हारे सामने नाचीज है।
दिल को रहें सँभालते दिललगी से डर जिन्हें
लगता हर बंदा जहाँ में हुश्न का मरीज है।
कितनी कलाएँ चाँद की तेरे मुखड़े की बला,
चूमती हो गैर को,देख मुझको तो खीज है।
गड़ गयीं नजरें जहाँ की देख तेरी हर लहर,
भीड़ से रौंदा गया मैं,फट गयी कमीज है।
'मौलिक व अप्रकाशित'

Added by Manan Kumar singh on May 24, 2015 at 11:00am — 3 Comments

एकान्त की काकी....

एकाकीपन

उदासियां--!

मन के कोनो अतरों में जीती

सुबह -दोपहर-सायं

एकान्त की काकी, एकाकी

क्यों ? न पालती अपने नौलिहाल

रस-छन्द-अलंकारों को

अलसाई तन्द्रा

इन्द्रधनुषी रंग में रॅगती- कोरी चुनरी

ईर्षा,-द्वेष, छल-कपट से टॉकती

अहं के चमकते सितारे

अति निष्ठुर ।

हथेली की उॅगलियों में फॅसी ध्रुम द-िण्डका

रह-रह कर जलती- बुझती.....कुढ़ती

आवारा काले बादलों सा उगलती ....धुआँं

कलेजों के टुकड़ाें की धौंकनी बढ़ जाती…

Continue

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 24, 2015 at 9:30am — 5 Comments

अनुभव (दोहे)

जीवन के जिस राग  का अनुभव में था ताप l  

बिन उसके जीवन वृथा, धन-वैभव या शाप ll 

 

भय वश मैं झिझका रहा प्रेम न फटका पास l 

गहरी नदिया पास थी अमिट और भी प्यास ll

 

मैं क्या जानूं उसे जो,   छिप कर करता वार  l

जीवन-रस अमृत सही,  छलक रहा हो सार  ll

 

कुछ तो फूटा है यहाँ, फैला है अनुराग l

बिन बदली भीगा बदन, ठंढी-ठंढी आग ll

 

यह सुगंध अनुराग की बढ़ा रही है चाह…

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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on May 24, 2015 at 6:00am — 8 Comments

दाँव--

गाँव में एक नयी बीमारी का प्रकोप फैला और लगातार कुछ बच्चों की मौत हो गयी । एक तरफ जहाँ लोग भयभीत थे वहीँ दूसरी तरफ ठाकुर के चेहरे पर मुस्कान खिल उठी ।
अगले दिन उसके कोठी के पास अपनी कोठरी में रहने वाली अकेली विधवा को लोगों के हुजूम ने डायन कह कर गाँव से बाहर खदेड़ दिया ।
बच्चों की मौत का सिलसिला तो नहीं रुका लेकिन वो ज़मीन अब ठाकुर की थी ।
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on May 24, 2015 at 2:34am — 12 Comments

चेहरे

'''''''''''''''''चेहरे '''''''''''''''

गिरगिट का रंग का पहचानना.......

बिलकुल कठिन नहीं.....................

समंदर की गहरे नापना ...............

उसकी हलचल जान पाना ............

बड़ा ही सरल है यह सब................

बादलों की रंगत को...........................

उठने वाले तूफ़ान को.........................

आकलन कर लेना भी सरल है.............

पर कठिन है तो

किसी के चेहरे को पहचान पाना...........

उसे पढ़ पाना...............

उसे जान… Continue

Added by Sahil verma on May 23, 2015 at 11:40pm — 2 Comments

मां सरस्वती - वन्दना...

गीतिका छंद......गीतिका छ्न्द में 14-12 के क्रम में कुल 26 मात्राएं होती हैं.  इस छंद की प्रत्येक पंक्ति की तीसरी, दसवीं, सत्रहवीं व चौबिसवी मात्राएं अनिवार्य रूप से लघु ही होती हैंं.

मां सरस्वती - वन्दना

शारदे मां वर्ण-व्यंजन में प्रचुर आसक्ति दो।

शब्द-भावों में सहज रस-भक्ति की अभिव्यक्ति दो।।

प्रेम का उपहार नित संवेदना से सिक्त हो।

हर व्यथा-संघर्ष में भी क्रोध मन से रिक्त हो।।1

वृक्ष सा जीवन हमारा हो नदी की भावना।

तृप्त ही…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 23, 2015 at 11:00pm — 4 Comments

मन ने सुना

धीरे से कहा जो तुमने,

वो मेरे मन ने सुन लिया।

तुम नहीं थे समीप मेरे,

फिर भी मैंने तुम्हें देख लिया।

अधरों पर थी बात ही और,

जिसका अर्थ हृदय ने समझ लिया।

तुम भूले नहीं थे मुझे,फिर भी

तुमने भूलने का-सा अभिनय किया।

है निवास हृदय में मेरा ही,

किन्तु कुछ और ही दिखला दिया।

सोचा करते हो केवल मुझे,

पर काम कुछ और बता दिया।

कहते हो कि कुछ भी नहीं,

पर अधिकार अपना जता दिया।

मेरी समीपता से ही होते हो

विचलित,स्वभाव इसे…

Continue

Added by Savitri Rathore on May 23, 2015 at 7:30pm — 3 Comments

कविता

नव - स्पंदन

____________





मृगतृष्णा कैसी यह

कौन सी चाह है

दिनमान हैै जलता हुआ

ये कौन सी राह है



चल रही हूँ मै यहाँ

एक छाँह की तलाश में

मरू पंथ में यहाँ

कौन सी तलाश है



बाग वन स्वप्न सरीखे

कलियाँ कहाँ कैसी भूले

मन की तलहटी में

प्रिय का निवास है



सुरम्य वादी है वहां

छुपी हुई एक आस है

मुँद कर पलकों को

प्रिय दर्शन की आस है



प्राण की सुधी ग्रंथी में

आजतक हो बसे

जलती रही… Continue

Added by kanta roy on May 23, 2015 at 6:36pm — 15 Comments

कोशिश______मनोज कुमार अहसास

122 122 122 122









हक़ीक़त नहीं मैं धुँआ चाहता हूँ

तिरी ओर से बस दगा चाहता हूँ



तु मुझको सफ़र में कही छोड़ देना

फकत दो कदम को सना चाहता हूँ



जहाँ तक मुझे तोड़ देगा ज़माना

वहीँ तक सदा की हवा चाहता हूँ



नहीं साथ तेरा अगर ज़िन्दगी में

तिरी रहगुजर में कज़ा चाहता हूँ



ज़रा तोड़कर ये परत बेबसी की

कहीं दूर अब मै उड़ा चाहता हूँ



फ़क़ीरी मेरी वो कदम से लगा लें

अमीरी का उनकी नशा चाहता हूँ



बहुत… Continue

Added by मनोज अहसास on May 23, 2015 at 4:30pm — 3 Comments

ठूंठ होते गांव - लघुकथा

"ठीक है पिताजी। मान लो आप कि मैं नास्तिक हूँ और रीति रिवाज नही मानता।" बेटे ने सजल आँखो से कहा।

"बेटा। एक तुम्हारे ना मानने से समाज के रिवाज खत्म नही हो जायेगें।" व्यथित मन से पिता ने जवाब दिया।

"जानता हूँ नही खत्म होगें। लेकिन इस कठोर परम्परा के लिए हर दिन पेड़ो से काटी जाने वाली लकड़ी के कारण ठूंठ होते गांव में एक नई परम्परा की शुरूआत तो हो सकती है।" कहते हुये बेटे ने रूंधे लेकिन कड़े मन से गांव में पहली बार मगांयी गयी बिजली शव दाह घर की गाडी में अपनी पत्नि के शव को ले जाने की तैयारी…

Continue

Added by VIRENDER VEER MEHTA on May 23, 2015 at 4:18pm — 3 Comments

पगली बदली चाँद को ही खा गयी

2122 2122 212

चाँदनी बदली को इतना भा गयी 

पगली बदली चाँद को ही खा गयी 

जिसको रोता देख हमने की मदद

वो ही बिपदा बन मेरे सर आ गयी 

हक़ की मैंने की यहाँ है बात जब 

गोली इक बन्दूक की दहला गयी 

जिस घड़ी लव पे हँसी आयी मेरे 

वो उसी पल अश्क से नहला गयी 

जान से मारा मगर जब बच गया 

आ मेरे घावों को वो सहला गयी 

Added by Dr Ashutosh Mishra on May 23, 2015 at 1:43pm — 12 Comments

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