पल्लू लहरा देते हैं वो हवा का रूख़ देख कर
बीमार हो जाते हैं हम भी हसीं दवा देख कर !
यूँ तो हम तुम्हारे सिवा किसी और पे मरते नहीं
महफ़िल हसीनाओं की हो तो शिरकत से डरते नहीं !
तूने अगर दिल में अपने मुझे घर दिया होता
तन्हाईओं की बारिशों से मैं ना गल गया होता !
सुना है मिजाज़ गर्म और नज़र तिरछी है उनकी
'इंतज़ार' हम कहाँ मरते हैं हसीं बद दुआओं से उनकी !
तुम बिन ख़त्म हो जायेगी तिलस्मी दुनियाँ मेरी
अधभरे पन्नों में…
Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on June 2, 2015 at 11:30am — 19 Comments
अब चुनावों की आती बारात देखिये,
लुटता है कौन अब इस रात देखिये।
जात-पाँत की चर्चा जोरों की होगी,
पहले देखी,फिर से यह बात देखिये।
क्या होगा,न होगा, है सब गाछ पर,
है नमूनों की बनती जमात देखिये।
सहेजने में लगे हैं छितराई छतरी,
बातों की तो इनकी बिसात देखिये।
कन्हुआ-कन्हुआ गिनते सब कुर्सी,
दिखा रहे, इनकी औकात देखिये।…
Added by Manan Kumar singh on June 2, 2015 at 10:00am — 4 Comments
"पहले तो हमें नौकरी ही नहीं मिलती। अगर मिल भी जाए तो सालों साल रगड़ते रहो, कोई प्रमोशन नहीं। और एक ये हैं ?"
"और लो जन्म ऊँची जात में।"
पिघले हुए सीसे की तरह ये शब्द उसके कानों में उतर रहे थे ।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on June 2, 2015 at 1:00am — 17 Comments
मैं नहीं लिखता ;
कोई मुझसे लिखाता है !
कौन है जो भाव बन ;
उर में समाता है !
....................................
कौंध जाती बुद्धि- नभ में
विचार -श्रृंखला दामिनी ,
तब रची जाती है कोई
रम्य-रचना कामिनी ,
प्रेरणा बन कर कोई
ये सब कराता है !
मैं नहीं लिखता ;
कोई मुझसे लिखता है !
.........................................................
जब कलम धागा बनी ;
शब्द-मोती को पिरोती ,
कैसे भाव व्यक्त हो ?
स्वयं ही शब्द…
Added by shikha kaushik on June 1, 2015 at 11:00pm — 11 Comments
१२२२ १२२२ १२२२ १२
तेरी तहरीर में हर्फ़े वफ़ा है क्या नहीं
कहीं दिल में मेरी कोई जगा (जगह )है क्या नहीं
पँहुचते ही नहीं मुझ तक कभी तेरे ख़ुतूत
लिखा उन पर मेरे घर…
ContinueAdded by rajesh kumari on June 1, 2015 at 9:30pm — 21 Comments
Added by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on June 1, 2015 at 6:51pm — 10 Comments
मैं यहां पर रहूँ या वहां पर रहूँ
ऐ खुदा तू बता मैं कहां पर रहूँ ?
एक साया मुझे आपका जो मिले
फ़िक्र क्या फिर कहाँ किस मकां पर रहूँ I
जिन्दगी आज तो है तिजारत हुयी
फर्क ये है कि मैं किस दुकां पर रहूँ I
हो रहम मालिकों की मयस्सर मुझे
पंचवक्ता तेरी मैं अजां पर रहूँ I
याद तेरी करूं …
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 1, 2015 at 11:00am — 24 Comments
Added by Samar kabeer on June 1, 2015 at 11:00am — 29 Comments
" अरे छोटका क माई , देख तो तनिख । काम भर का पत्तल बन गया है न की अउर बनायें "। मुसहराने का दुखिया बहुत खुश था , आखिरकार गाँव में शादी थी और पत्तल उसी के यहाँ से जाती थी ।
" काल तनिक अउर पत्तल बना लेना , कहीं कम न पड़ जाये । याद है न पिछले बियाह में घट गया था पत्तल , केतना गाली सुनाये थे हमको अउर पइसो पूरा नहीं मिला था "। दुखिया ने हामी में सर हिलाया , कइसे भुला सकता था उसको ।
अगले दिन भिन्सहरे ही वो लग गया अउर पत्तल बनाने में , इस बार कम न पड़े । छोटका भी लगा हुआ था उसके साथ और…
ContinueAdded by विनय कुमार on June 1, 2015 at 10:30am — 18 Comments
२१२२/१२१२/२२ (११२)
या ख़ुदा ऐसी ला-मकानी दे
अब ख़लाओं की मेज़बानी दे.
.
कितना आवारा हो गया हूँ मैं
ज़िन्दगी को कोई मआनी दे.
.
यूँ न भटका मुझे सराबों में
अपने होने की कुछ निशानी दे.
.
सच मेरा कोई मानता ही नहीं
सच लगे ऐसी इक कहानी दे.
.
मेरी ग़ज़लों की क्यारी सूख गयी
मेरी ग़ज़लों को थोडा पानी दे.
.
“नूर” को फ़िक्र दे नई मौला
पर नज़र उस को तू पुरानी दे.
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित
Added by Nilesh Shevgaonkar on May 31, 2015 at 9:30pm — 27 Comments
एकदम उसके ज़बान पर चढ़ गया था ये शब्द " काना ", हंसी मज़ाक में किसी को भी बोल देता था वो ।
आज भी वही हुआ जब बचपन का एक मित्र आया और उसके साथ मज़ाक चल रहा था । अचानक किसी बात पर उसने बोल दिया " क्या यार काने हो क्या , इतना भी नहीं दिखता "।
और फिर वो एकदम से खामोश हो गया , दरअसल उसका बचपन का दोस्त वास्तव में काना था । उसे उस शब्द की पीड़ा का एहसास हो गया था ।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on May 31, 2015 at 6:46pm — 10 Comments
बेचारा ...बेबस... लाचार दिल
आँखों से कितनी दूर है
जो बस गए हैं सपने
उन्हें सच समझने को मजबूर है
आँखों की कहानी अपनी है
जो देखा बस वोही खीर पकनी है
छल फ़रेब की चाल रोज़ बदलनी है
क्या करे दिल की दुनियाँ का
वहाँ तो सिर्फ़ दिल की ही दाल गलनी है
हाँ ....बंद आंखें दिल को देखती हैं
मगर आँखों को
बंद आँखों से देखने पर भरोसा ही नहीं
क्यूंकि वो जानती हैं कि दिल मजबूर है
और सच्चाई सपनों से कितनी दूर है
यूँ हर किसी का दिल आँखों से दूर…
Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on May 31, 2015 at 2:36pm — 9 Comments
Added by babita choubey shakti on May 30, 2015 at 11:56am — 8 Comments
“सुनो, याद है न यह जगह!”
“जी याद है ,यहीं तो माँ जी की उनके इच्छा के अनुसार हमने अस्थि विसर्जन किया था !”
“और वो दुर्घटना ?”
“कैसे भूल सकती हूँ ,आज भी याद है वो दुर्घटना ,हम दोनों तो कार के नीचे दबे हुए थे ,और उसके बाद दोनों के ही एक –एक पैर काटकर किसी तरह डाक्टरों ने हमारी जान बचाई, और मां जी ने अपना सब रुपया –पैसा और जेवर हमारे इलाज में लगा दिया और उनकी दी हुई ये अंतिम निशानी ,ये बैसाखी हम दोनों का सहारा बन गयीं !”
“तुम्हें पता है मैं बार –बार यहाँ क्यों आता…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on May 30, 2015 at 1:32am — 3 Comments
"अरी भागवान ! तुम इस तरह क्यूँ देख रही हो बेटे को ?"
" देख रही हूँ कहीं लडखडाया तो हम झट से सहारा दे देंगे ."
"क्या वाकई तुम्हे लगता है कि उसे तुम्हारे सहारे की जरूरत है ?"
" शायद नहीं , बड़ा हो गया है अब जीवन साथी भी मिल गयी है ."
"हमने अपना फ़र्ज़ पूरा किया ,अब उसे हमारे सहारे की जरूरत नहीं है .
,जीवन पथ पर चलना सीखा दिया है हमने "
"पर अब हम असक्त हो गएँ हैं ,उसके प्यार की बैसाखी की जरूरत अब हमें है ."
@मौलिक व् अप्रकाशित
Added by Rita Gupta on May 29, 2015 at 11:00pm — 16 Comments
आज फिर आँधियाँ उठीं दिल में
आज फिर नज़र , आप आये हैं !
खाक़ हो जाते ,ग़र नहीं मिलते
खत्म अब , गर्दिशों के साये हैं !
सोचते रहते जिनको शामो सहर,
ख्वाबों में भी , कब वो आये हैं !
खिल उठी है ये सारी कायनात,
मन ही मन जब वो मुस्कुराएं हैं!
शायद करेंगे ,आज वादे वफ़ा,
फिर से पहलू में आज आये हैं!
आज फिर आँधियाँ उठीं दिल में
आज फिर नज़र , आप आये हैं !!
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on May 29, 2015 at 10:30pm — 16 Comments
अटका मन भटका मन
आज मैं सुदूर विदेश में अपने कमरे में आँख बंद कर लेटी हूँ पर मन मुझसे निकल उड़ा जा रहा है .थामने की बड़ी कोशिश की इस बेकाबू घोड़े सदृश्य मन को, पर असफल अशक्त हो निढाल हो गयी .सात समुन्दर पार कर , बिन पंखों का ये बावरा मन जा पहुंचा उस गाँव जहाँ मेरा बचपन बीता था .ऊँचे पहाड़ी पर जा टिका जहाँ से बचपन का वो जहाँ अपने विस्तारित रूप में दृगों में समाहित होने लगा .बाबूजी संग इस पहाड़ी पर ,इसी पेड़ के नीचे कितने रविवार मनाये होंगे .मन की आँखों से सारा…
ContinueAdded by Rita Gupta on May 29, 2015 at 4:03pm — 15 Comments
हिंदी-साहित्य
साहित्य,
दर्पण सा मजबूर
इसका अपना कोई अक्स नहीं होता
रूप-रंग, वेष-भूषा, आकार-प्रकार
सब शून्यवत
अदृश्य आत्मा सा भाषा हीन
भावनाओं की आकृतियां अनुभव से सराबोर
आंसुओं में दर्द के बीज
संगठित मोतियों का वजूद
दफ्न हो जाते होंठो के कोर पर
संवेदनहीनता के मरूस्थल गढ़ते नई भाषा
साहित्य की आत्मा
पत्रकारिता की देह में ऐंठती मूॅछ
उगलती भाषाओं की जातियां, भ्रम....क्लीष्टतम रस
क्षेत्रीयता के कलश हवाओं में लटके
मुंह…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 29, 2015 at 12:22pm — 13 Comments
Added by Manan Kumar singh on May 29, 2015 at 10:15am — 10 Comments
" ज़रा इसको सिल कर बढ़िया पॉलिश कर देना "।
उसने सर हिला कर जूता ले लिया और साहब ने बड़े अनमने मन से वहाँ रखी टूटी चप्पल पैर में डाल ली ।
" लीजिये साहब , जूता ठीक हो गया ", पर उन्होंने जैसे ही पैर निकाला , मोज़ा चप्पल में लगी कील में फंस गया।
" कैसी चप्पल रखते हो तुम लोग ", नाराज़गी दिखाते हुए उन्होंने उसके बताये पैसों का आधा दिया और चल दिए।
वो अपनी टूटी चप्पल की कील दुरुस्त करते हुए सोच रहा था कि छेद मोज़े में हुआ था या नीयत में।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on May 29, 2015 at 2:09am — 18 Comments
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