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गुमनाम होता बचपन (लघुकथा)

प्रकाशक को उपन्यास की पाण्डुलिपि थमाकर लौटी, तो आज उसका मन फूल सा हल्का हो गया। पूरे छः माह की मेहनत साकार हुई थी।पुस्तक विमोचन, सम्मान,रॉयल्टी प्रसिद्धि ये सब बारी -2 से उसकी आँखों में कौंध गए। घर पहुंची तो देखा पाँच वर्षीय बेटा बड़ी बहन की गोद में सो रहा था।उसकी आँखों में सूखे अश्रु चिन्ह,तप्त शरीर,तोड़े मरोड़े गए खिलौने,अधूरा होमवर्क,डायरी में टीचर की शिकायत ।

उफ़...ये क्या कर बैठी मैं ? अपनी महत्वाकांक्षा में अपने बच्चे के बचपन को ही गुमनामी के अंधेरों में धकेल दिया।

ज्योत्स्ना !!
( मौलिक एवम् अप्रकाशित )

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Comment by Saurabh Pandey on July 9, 2015 at 1:36am

सिद्धसिद्धौ निर्विकारः .. समत्वं योग उच्यते..

इस निभाते हुए कई दायित्वों को निभाना होता है. प्रस्तुति केलिए हार्दिक शुभकामनाएँ

Comment by jyotsna Kapil on July 7, 2015 at 10:42pm
आदरणीय महाऋषि त्रिपाठी जी एवम् आदरणीय विजय निकोर जी आपकी तारीफ का एक एक शब्द मेरे लिए अनमोल है।आपको सादर नमन एवम् आभार।
Comment by jyotsna Kapil on July 7, 2015 at 10:39pm
आदरणीय कांता रॉय जी एवम् आदरणीय सीमा सिंह जी आपको सादर नमन एवम् आभार मेरी कथा की सराहना करने और मेरा उत्साह बढ़ाने हेतु।
Comment by jyotsna Kapil on July 7, 2015 at 10:37pm
बहुत आभार एवम् सादर नमन आदरणीय विनय सिंह जी कथा को पसन्द करने हेतु।आपकी सराहना ने मेरा लेखन सफल कर दिया।
Comment by vijay nikore on July 6, 2015 at 2:52am

कम शब्दों में सुन्दर संदेश देने में आपकी लघु कथा सफ़ल हुई है। हार्दिक बधाई, आदरणीया ज्योत्सना जी।

Comment by maharshi tripathi on July 5, 2015 at 10:02pm

बहुत सटीक वार किया है आपने ,,आजकल लोग ,,पैसे से जितना लगाव रखते हैं उतना खुद के संतान से भी नही ,,ऐसे बच्चों का बचपन गुमनाम हो जाता है ,,,एक बेहतरीन सन्देश देती लघुकथा पर आपको बधाई |

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on July 4, 2015 at 9:54pm

बहुत ही बेहतरीन लघुकथा! आपकी लघुकथा ने ऐसे अनछुए पहलू  को छुआ है जो मेरे ख्याल से हर महत्वाकांक्षी व्यक्ति के जीवन में आती ही है क्युकी जूनून और आत्ममुघ्धता में उसे और दुनिया बस फौरी तौर से जीन ही पड़ता हैं...जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए सब काम को सुनोयोजित तरीके से करना बेहद जरूरी होता है..पर मेरे ख्याल से खासतौर पे रचनाकार के लिए रिदम या लय में लिखना बहुत जरूरी होता है, और इसे बरकरार रखने के लिए अन्य चीजों को अवहेलना करनी ही पड़ती है!..हालांकि  सामंजस्य बैठना बहुत जरूरी है खासकर जब ऐसा महत्वपूर्ण मुद्दा हो!

आपको तहदिल से बहुत बहुत बधाई आ० इस लाजव़ाब लघुकथा के लिए!

Comment by Seema Singh on July 4, 2015 at 5:32am
स्त्री का जीवन कठिन डगर है जिस पर सामंजस्य बैठकर चलना ही एक बड़ी कला है ।ज़रा सी चूक पछतावे का कारण बन जाती है । बधाई आपको इसी भाव का सफल चित्रण करने की ज्योत्सना जी..
Comment by kanta roy on July 3, 2015 at 7:31pm
जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए सब काम को सुनोयोजित तरीके से करना बेहद जरूरी होता है । बहुत ही सार्थक संदेश के साथ बढिया लघुकथा ज्योत्सना जी ... बधाई
Comment by विनय कुमार on July 3, 2015 at 12:32pm

सुन्दर लघुकथा हुई है आदरणीया ज्योत्स्ना जी | कहीं न कहीं संतुलन बनाना जरुरी है , बधाई इस लघुकथा के लिए ..

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