कितना सुहाना होगा ………..
अपने अपने दंभों को समेटे
हम इक दूसरे की तरफ
पीठ करके चल दिए
बिना इसका अनुमान लगाये कि
मुंह मोड़ के हम
उन स्नेहिल पलों का
अनजाने में क़त्ल कर रहे हैं
जो हमने
तारों की छाँव में
चांदनी की बाहों में
नशीली निगाहों में
इक दूसरे के कन्धों पर सिर रख कर
इक दूसरे की उँगलियों में उंगलियाँ डालकर
इक दूसरे के केशों से खेलते हुए
निशा में अपने अस्तित्व को
इक दूसरे में विलीन करके संजोये थे
और हाँ…
Added by Sushil Sarna on May 20, 2015 at 2:17pm — 9 Comments
1222---1222---1222---1222 |
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करो मत फ़िक्र दुनिया की, जो होता है वो होने दो |
जिन्हें कांटें चुभोना है, उन्हें कांटें चुभोने दो |
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हमारी तिश्नगी नादिम, अजी ये चाहती… |
Added by मिथिलेश वामनकर on May 20, 2015 at 10:30am — 29 Comments
Added by Manan Kumar singh on May 20, 2015 at 6:59am — 4 Comments
प्रथम श्रेणी के रिजर्व कोच में अपनी नव परिणीता पत्नी को लाल जोड़े में लिपटी देखकर भी मैं उस एकांत में बहुत खुश नहीं था I नए जीवन की वह काली सर्द रात जो उस रेलवे कम्पार्टमेंट में थोड़ी देर के लिए मानो ठहर सी गयी थी I मेरे लिए नया सुख, नयी अनुभूति और नया रोमांच लेकर आयी थी I फिर भी मैं उदास, मौन और गंभीर था I ट्रेन की गति के साथ ही सीट के कोने में बैठी वह सहमी-सिकुड़ी, पतली किन्तु स्वस्थ काया धीरे-धीरे हिल रही थी I मैंने एक उचटती निगाह उसकी ओर डाली फिर अपनी वी आई पी अटैची के उस…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 19, 2015 at 6:39pm — 13 Comments
भूख और थकावट से चूर दोनों असहाय भाई-बहन एक-दूसरे से लिपट कर लेट गये.
आज सुबह के भूकम्प में अपने मां-पापा को खो देने के बाद से ये छः वर्षीय भाई ही तो उसका सम्बल था.
दो वर्ष छोटी बहन को ऐसा लग रहा था जैसे अपने भाई के सीने पर सर रख देने से ही उसकी सारी समस्याओं का निदान हो गया हो.
अचानक खयाल आया, उसके भाई के लिये आखिर सम्बल कौन है ?
उसके नन्हे हाथ अनायास भाई के गालों पर फैल गये आँसुओं को साफ़ कर उसके धूल भरे बालों को सहलाने लगे.
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मौलिक…
ContinueAdded by Shubhranshu Pandey on May 19, 2015 at 5:18pm — 19 Comments
२१२२ २१२२ २१२२ २१२२ - रमल मुसम्मन सालिम |
ज़िंदगी कैसे चले जब साथ कोई छोड़ जाये | |
जब खुशी हो पास आये ग़म पड़े दिल तोड़ जाये | |
दूर का जब हो सफर तब आसरा सब ढूढ़ते हैं… |
Added by Shyam Narain Verma on May 19, 2015 at 3:47pm — 10 Comments
Added by Manan Kumar singh on May 19, 2015 at 7:17am — 7 Comments
" पापा , आपने अगर मुझे बेटी माना है तो मुझे इस अधिकार से कभी वंचित मत कीजियेगा ", विदा होते समय वो उनसे लिपट कर रो पड़ी थी और वहाँ मौज़ूद लोगों की आँखें नम हो गयी थीं ।
वो अपने एकलौते पुत्र को खो बैठे थे जिसकी नयी नयी शादी हुई थी , और हर उस आवाज़ के सामने चट्टान बन कर खड़े हो गए थे जो उनकी बहू को इस हादसे के लिए दोषी ठहरा रहे थे । फिर उन्होंने बहू को धीरे धीरे सँभाला और उसे अपनी बेटी का दर्ज़ा दे दिया । उसके अपने माता पिता भी संतुष्ट थे कि वो अब उस घर की बेटी बन गयी थी ।
आजीवन उनका…
Added by विनय कुमार on May 19, 2015 at 2:47am — 14 Comments
विकासवाद का चरित्र
सड़क, गली, कूचों व मैदानों में
उन्मादी संक्रमण मस्ती करते
विकल, प्राण पखेरू
समूहों में फड़फडाते- गिड़गिडाते
गगन, हवा, दीवारों में सिर मार कर डूब जाते
सागर, सरोवर, ताल, नदी, झीलों में
बजबजाता विकासवाद
अशिष्ट पन्नियों से ।
दलदल में कमलदल, दलगत उन्मुक्त पर
स्थिर, मूक, भावहीन संज्ञाएं
क्रियाशील भौंरे सब हवा हो गए
गुम गयीं - तितलियॉं
सौन्दर्य निगलती- वादियॉं
दिशाएं- दिशाहाीन, पूर्णत: शुष्क पछुवा पर निर्भर…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 18, 2015 at 9:08pm — 16 Comments
“सुनो ! अमर से बात हुई क्या ?”
“नहीं, क्या बात करूँ , कुछ सुनता ही नहीं ,अब तो लगता है दिन में भी पीने लगा है ?”
“पर अमर की माँ मैं तो समझ ही नहीं पा रहा की वो ऐसा क्यों करने लग गया ? बाहर तो लोग उसकी तारीफ़ करते नहीं थकते !”
“अरे आप भी ना , जानकर भी अनजान क्यों बन जातें हैं ? वही उस लड़की का चक्कर है सारा, मैं कहे देती हूँ, ये लड़का हमारी परम्परा को संस्कारों को मिट्टी में मिला देगा एक दिन, इकलौता ना होता तो कसम से इसका गला दबा देती !”
“कौन, अरे वो बेबी ,…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on May 18, 2015 at 8:44pm — 9 Comments
वो कहना चाहती थी कि वो देवी नही है वो तो मुन्नी है । उसे रानो और शन्नो के साथ खेलने जाना था बाहर ।
"ये लोग चुनरी ओढाय उसे कहाँ बिठाय दिये हैं । माँ , मै देवी नही रे , तेरी मुन्नी हूँ .. काहे ना चिन्हत मोरा के । "
दर्शन की रेलम पेल , मां -बापू चढावे के रकम की खनक समेटने में लगे हैं । गाँव के माइक वाले ,पंडित ,हलवाई सबके भाग सँवर गये ।
"अब तो देवी का समाधिस्थ होना परम जरूरी हो गया है ।" -बिसेसर गहरी सोच में डूबा हुआ था ।
मौलिक और अप्रकाशित
कान्ता राॅय
भोपाल
Added by kanta roy on May 18, 2015 at 5:30pm — 2 Comments
“ओय! रितु.. अब बता कैसी लग रही हूँ...?” सोनिया ने पूरा ट्रडिशनल श्रृंगार करके, अपनी फ्रेंड से पूछा
“अरे! सोनिया. तू तो बिलकुल अबला लग रही है यार. भारतीय नारी..हा हा हा हा”
“हाँ! यार..अबला ही तो दिखना होगा. ऐसा मेरे वकील का कहना है, ताकि कल कोर्ट में जज सहानुभूति के तौर पर जल्दी से मेंटेनेंस बना देगा तो मुझे अपने हसबेंड के घिसे-पिटे विचारों और बूढ़े सास-ससुर की खांसी-खुजली से छुटकारा मिल जाएगा.”
"उफ्फ!! बड़ी दूर की सोच होती है यार, वकीलों की.. अब चल ये पकड़ तेरे जींस-टॉप,…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on May 18, 2015 at 9:30am — 26 Comments
तेरी चाहत में
सारी उम्र गलाना अच्छा लगा !
ना पा कर भी
तुझे चाहना अच्छा लगा !
लिख लिख के अशआर
तुझे सुनाना अच्छा लगा !
सच कहूँ तो मुझे
ये जीने का बहाना अच्छा लगा !!
दुप्पट्टा खिसका कर
चाँद की झलक दिखाना अच्छा लगा !
पास से निकली तो
हलके से मुड़ के तेरा मुस्कुराना अच्छा लगा !
बदली से निकल कर आज
चाँद का सामने आना अच्छा लगा !!
मिलने नहीं आयी मगर
रात सपनों में तेरा आना अच्छा लगा !
ला इलाज ही सही मगर
प्रेम का ये…
Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on May 18, 2015 at 8:04am — 13 Comments
" हेलो , पापा , आप समय से अपनी दवा खा लेना "| बेटी के शब्द सुनकर उन्होंने सुकून की सांस ली | अभी कल ही उसने फोन नहीं किया तो एकदम परेशान हो गए और वापस आते ही पूरा लेक्चर दे डाला |
आज भी हड़बड़ी में वो भूल ही गयी थी पर एक बुज़ुर्ग को सामने देखते ही याद आ गया | पता तो उसको भी है और पापा को भी है , फोन तो सिर्फ बहाना है ये बताने के लिए कि आज भी वो सकुशल पहुँच गयी है |
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on May 18, 2015 at 2:04am — 20 Comments
“हैलो माँ ! कैसी हो ? खाना खा लिया ? भाभी का क्या हाल है?” माला ने फ़ोन पर अपनी माँ से सवालों की झड़ी लगा दी.
“कहाँ खाया है बेटा? एक तू है जो रोज़ फ़ोन करके आधा-एक घंटा बात कर मन हल्का कर देती है. वर्ना तेरी भाभी को तो हमसे कोई मतलब ही नहीं. बस लगी रहती है अपने कमरे में.. फ़ोन पर.. जब खाना बन जायेगा तो खा ही लूँगी..”, माँ का शिकायत भरे लहजे में जबाब आया.
“ऐसे थोडे ही चलेगा, माँ !“
तभी अन्दर के कमरे से माला की सास की आवाज आयी, “ बहूऽऽ, दोपहर होने को आयी, सुबह का नाश्ता भी…
ContinueAdded by Shubhranshu Pandey on May 17, 2015 at 11:30pm — 27 Comments
Added by दिनेश कुमार on May 17, 2015 at 9:34pm — 22 Comments
Added by babita choubey shakti on May 17, 2015 at 5:54pm — 3 Comments
२१२२/१२१२/२२ (११२)
जब भी लफ़्ज़ों का काफ़िला निकले
ये दुआ है, फ़कत दुआ निकले.
.
कोई ऐसा भी फ़लसफ़ा निकले
ख़ामुशी का भी तर्जुमा निकले.
.
सुब’ह ने फिर से खोल ली आँखें
देखिये आज क्या नया निकले.
.
हम कि मंज़िल जिसे समझते हैं
क्या पता वो भी रास्ता निकले.
.
लुत्फ़ जीने का कुछ रहा ही नहीं
क्या हो गर मौत बे-मज़ा निकले?
.
रोज़ चलता हूँ मैं, मेरी जानिब
रोज़ ख़ुद से ही फ़ासला निकले.
.
गर है कामिल^,…
Added by Nilesh Shevgaonkar on May 17, 2015 at 5:42pm — 25 Comments
न स्याम भई न श्वेत भयी …
न स्याम भई न श्वेत भयी
जब काया मिट के रेत भयी
लौ मिली जब ईश की लौ से
भौतिक आशा निस्तेज भयी
यूँ रंग बिरंगे सारे रिश्ते
जीवन में सौ बार मिले
मोल जीव ने तब समझा
जब सुख छाया निर्मूल भयी
सब थे साथी इस काया के
पर मन बृंदाबन सूना था
अंश मिला जब अपने अंश से
तब तृषा जीवन की तृप्त भयी
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on May 17, 2015 at 12:30pm — 16 Comments
Added by Samar kabeer on May 17, 2015 at 11:19am — 39 Comments
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