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भूख(लघु कथा, मनन कु॰ सिंह)

भूख(लघु कथा)
आखिरी बस जा चुकी।सन्नाटा पसर चला।उसे चूल्हे की आग बुझती-सी लगी,पर यूँ ही बैठी रही।अचानक उसका ध्यान भंग हुआ,
--बस छूट गयी क्या?
दूकान बंद करते पानवाले ने पूछा।
-नहीं,बस यूँ ही---उसने मुड़कर पीछे देखा।पानवाला उसे अंदर तक घूरता-सा लगा।
--अब कोई नहीं आयेगा,चल न मेरे यहाँ आज।
--नहीं,घर में बच्चे भूखे होंगे,और फिर तेरी घरवाली.........?
-मैके चली गयी है।बगल के बटोही के साथ धर लिया था उसे एक दिन।
फिर नजरें मिलीं।लगा रोशनी फैलने लगी, अब चूल्हे जल जायेंगे।उसने अपना आँचल सहेजा।दोनों अँधेरे में गुम हो गये।
'मौलिक व अप्रकाशित'

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Comment by Manan Kumar singh on July 26, 2015 at 8:23am
सीखना तो हर उम्र पर लागु है और शब्दों को उनकी सीमा में रहने देना शायद या निश्चित तौर पर आदमी क व्यक्त करता है।मेरी समझ में शब्द सार्थक अभिव्यक्ति हेतु उद्भुत हुए थे न कि वैसे ही फेंककर चल देने के लिए।जहाँ तक इग्नोर करने की बात है तो मैं कहूँगा कई यह आत्म केंद्रित हो जाने की वैसी स्थिति है जहाँ व्यक्ति कभी कभी स्वयं भी इग्नोर होने की दशा प्राप्त कर लेता है,इग्नोरेंस की तरफ भी यह व्यक्ति ओ घसीटता है।और कुछ भी कहने मेंभाषागत शुद्धि तो ललाजिमी है ही,हम-आप कितना जानते हैं,इससे ज्यादा जरुरी है कि जो लिख रहे हैं वह कम से कम भाषा की गरिमा में हो,सादर।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 20, 2015 at 11:51am

सभी सचेत रचनाकारों की प्रस्तुतियों और टिप्पणियों पर हमारी (प्रबन्धन की) यथोचित दृष्टि रहती है. आपकी रचनाओं और टिप्पणीयों पर, विश्वास करें, अब विशेष दृष्टि रहेगी.

आप रचनाकर्म के मर्म को, भाईजी, समझना चाहते हैं तो समझें और सीखें कोई उज़्र नहीं है. लेकिन यह भी मान कर चलिये कि यह साहित्यिक मंच होने के साथ-साथ एक पारिवारिक एवं सर्वसमाही मंच है और हर उम्र और समझ के रचनाकार सीखते-समझते हैं. साहित्य और सामाजिक-पारिस्थिक दशा के अंतर्गत एक सीमा तक हर तरह के मनोवैज्ञानिक व्यवहार को शाब्दिक करना अनुमन्य है. इसके आगे बहुत कुछ देखना अनिवार्य हो जाता है.  इसे कोई (आप भी) व्यक्तिगत आग्रह न समझ कर मंच के वातावरण की आवश्यकता समझें.

विश्वास है, मेरे कहे के प्रति संवेदनशील मंथन करेंगे. ऐसी  ’फ्लैशी’ टिप्पनियाँ हमने इन पाँच वर्षों में सैकड़ों की संख्या में.. खूब.. देखी हैं और बेहतर ढंग से इग्नोर किया है.
सादर

Comment by Manan Kumar singh on July 20, 2015 at 9:23am
टिप्पणियों पर.......सही होगा,टिप्पणियाँ पर में कारक दोष आ गया है और दूसरी बात है कि जो चीज औरों को जरुरी लगती है वह किसीको गैर जरुरी लग सकती है,इसमें कोई अचरज भी नहीं।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 19, 2015 at 11:56pm

किसकी कैद ?

जब कायदे से प्रस्तुतियाँ आने लगे तो टिप्पणियों पर हवाबाज़ी अच्छी लगती है..

Comment by Manan Kumar singh on July 19, 2015 at 8:38pm
अभी तक शायद विषयों का सीमांकन नहीं हुआ है और आवश्यक/अनावश्यक की परख तो अब जैसे कैद होकर रह गयी हो,सादर।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 7, 2015 at 11:59pm

भूख की बेबसी में उठे कदम को कोई और क्या शब्द दे ?  वैेसे इतनी बार इतने अच्छे ढंग से इन्हीं परिस्थितियों को ’पढ़’ चुका हूँ कि इसके अलावा किसी शीर्षक और कथ्य पर अभ्यासरत होते देखना अच्छा लगता. यों भी अनावश्यक एडल्ट कथ्य बहुत आकर्षित नहीं करता.

धन्यवाद ..


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 28, 2015 at 3:58am

मजबूरी को अभिव्यक्त करती प्रभावकारी और सफल लघुकथा 

हार्दिक बधाई आदरणीय मनन जी 

Comment by Manan Kumar singh on June 26, 2015 at 11:58pm

आभार गिरिराज भाई। 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 25, 2015 at 12:20pm

हाय री इंसान की मज़बूरियाँ !! बहुत सुन्दर , लघुकथा के लिये बधाई ।

Comment by Manan Kumar singh on June 25, 2015 at 5:45am

आदरणीय हरि भाई, मुकेश भाई,विनय भाई एवं वीरेंद्र भाई, आप सबने लघु को मान दिया इसके लिए आप सबका ढेर -सा आभार।

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