स्नेह का दीप चाहे विजन में जले किन्तु जलता रहे यह् बढे न कभी
जो हृदय शून्य था मृत्तिका पात्र सा
नेह से आह ! किसने तरल कर दिया ?
जल उठी कामना की स्वतः वर्तिका
शिव ने कंठस्थ फिर से गरल कर लिया
अश्रु के फूल हों नैन-थाली सजे स्वप्न के देवता पर चढ़े न कभी
आ बसी मूर्ति जब इस हृदय-कोश में
पूत-पावन वपुष यह उसी क्षण हुआ
रच गया एक मंदिर मुखर प्रेम का
साधना से विहित दिव्य प्रांगण हुआ
फूल ही सर्वथा एक शृंगार हो,…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 5, 2016 at 8:45pm — 1 Comment
ख़्वाबों के पैराहन से ....
कभी कभी ज़िंदगी
अपने फैसलों पर
खुद पशेमाँ हो जाती है
मुहब्बत के हसीं मंज़र
ग़मों की गर्द में छुप जाते हैं
थरथारते लबों पे
लफ्ज़ कसमसाते हैं
तल्खियां हर कदम राहों में
यादों के नश्तर चुभोती हैं
खबर ही नहीं होती
मौसम पलकों पे ही बदल जाते हैं
चार कदम के फासले
मीलों में बदल जाते हैं
हमदर्दियों के बोल
लावों में तब्दील हो जाते हैं
सांसें अजनबी बन जाती हैं
कोई अपना
कब चुपके से…
Added by Sushil Sarna on May 5, 2016 at 8:27pm — 4 Comments
22 22 22 22 22 22 22 2
राजनीति से जिन लोगों की, रोज़ी रोटी चलती है।
सच का करें विरोध अगर वो, तो उनकी क्या गलती है।।
किन्तु लेखनी वाले लोगों, से मेरा बस प्रश्न यही।
उनकी नैतिकता क्यों झूठे रंगों में हाँ ढ़लती है।।
वर्ग विभाजन लोकतंत्र में तो बस सत्ता की कुंजी।
किन्तु नीति यह सृजन क्षेत्र में आख़िर काहें मिलती है।।
यद्यपि आज़ादी से लेकर तुझसे नेता कई लड़े।
फिर भी अरे गरीबी तेरी चूल न काहें हिलती है।।
सोचो नफ़रत…
ContinueAdded by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 4, 2016 at 11:51pm — 9 Comments
जब मेरे ही पूजित पाषाण ने
मेरा उपहास किया,
तब मन मे बैराग्य हुआ
जब पुल्लवित बसंत मे,
फ़ूलो ने भवरो का हास किया
तब मन मे बैराग्य हुआ
…
ContinueAdded by arunendra mishra on May 4, 2016 at 11:05pm — 6 Comments
Added by दिनेश कुमार on May 4, 2016 at 7:19pm — 9 Comments
Added by दिनेश कुमार on May 4, 2016 at 7:11pm — 7 Comments
१२१२/११२२/१२१२/२२ (११२)
.
नए मिज़ाज के लोगों में तल्खियाँ हैं बहुत,
कई ख़ुदा से, कई ख़ुद से सरगिराँ हैं बहुत.
.
किसी के मिलने मिलाने का पालिये न भरम,
ज़मीं-फ़लक में उफ़ुक़ पर भी दूरियाँ हैं बहुत.
.
अभी ग़ज़ल में कई रँग और भरने हैं,
अभी ख़याल की शाख़ों पे तितलियाँ हैं बहुत.
.
सियासी चाल है हिन्दी की जंग उर्दू से,
सहेलियाँ हैं ये बचपन की; हमज़बाँ हैं बहुत.
.
परिंदे यादों के, आ बैठते हैं ताक़ों पर,
उजाड़ माज़ी के खंडर में खिड़कियाँ…
Added by Nilesh Shevgaonkar on May 4, 2016 at 5:42pm — 21 Comments
2122 - 2122 - 2122 - 212
सांस उनको देख कर के है इधर चलने लगी
कब मिले वो रोज मुझको आरजू रहने लगी
.
फ़िक्र में हर दम ये दिल डूबा मुझे अब है लगे
उनको अपना है बनाना सोच ये जगने लगी
.
प्यार की गलियाँ बड़ी बदनाम दुनिया में मगर
क्या करें अपनी तबियत जो अगर सजने लगी
.
आप तो हैं हुस्न की तस्वीर जो अनमोल है
ये करिश्मा देख कर दुनिया भी अब जलने लगी
.
ख़ुद खुदा भी सोच के अब है परेशां हो रहा
के बनाकर…
ContinueAdded by munish tanha on May 4, 2016 at 1:00pm — 3 Comments
तन्हा सफ़र ....
२ २ १ २ / २ १ २ २ /२ २ २ २ / २ १ २
तन्हा सफर और तेरी परछाईयाँ साथ हैं
तुमसे मिली संग मेरे तन्हाईयाँ साथ हैं !!१ !!//
अब तो हमें ज़िंदगी से नफरत सी हो ने लगी
यादें तुम्हारी और वही रुसवाईयाँ साथ हैं !!२!!//
भीगी हुई चांदनी में वो शोला सा इक बदन//
भीगे बदन की ज़हन में अँगड़ाइयाँ साथ हैं !!३!!//
लगने लगे मौसम सभी अब बेगाने से हमें
यादें वही और तेरी रुसवाईयाँ साथ हैं !!४!!//
लगने लगा है अब *हरीफ़…
ContinueAdded by Sushil Sarna on May 3, 2016 at 5:49pm — 6 Comments
Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on May 3, 2016 at 5:16pm — 41 Comments
कार से टकरा कर लहूलुहान हुए बासाहब से इंस्पेक्टर ने दोबारा पूछा , “ क्या सोचा है ? कार सुधराई के पैसा देना है या नहीं ?”
“साहब ! बहुत दर्द हो रहा है. अस्पताल ले चलिए.” वह घुटने संहाल कर बोला तो इंस्पेक्टर ने डपट दिया,“अबे साले ! मैं जो पूछ रहा हूँ, उस का जवाब दे ?” कहते हुए जमीन पर लट्ठ दे मारा.
“साहब ! मेरा जुर्म क्या है ? मैं तो रोड़ किनारे बैठा था. गाड़ी तो लड़की चला रही थी. उसी ने मुझे टक्कर मारी है. साहब मुझे छोड़ दीजिए. ” वह हाथ जोड़ते हुए धीरे से विनय करने लगा.
“जानता…
ContinueAdded by Omprakash Kshatriya on May 3, 2016 at 12:30pm — 14 Comments
फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन/फ़ेलान
ओज पर तुझको देखना है मुझे
पत्र में उसने ये लिखा है मुझे
नस्ल-ए-नव से मदद का तालिब हूँ
बुर्ज नफ़रत का तोड़ना है मुझे
क्या कहूँ ,कब मिलेगा मीठा…
Added by Samar kabeer on May 2, 2016 at 6:30pm — 43 Comments
2122 1212 22/112
ग़ज़ल
=====
आओ चेहरा चढ़ा लिया जाये
और मासूम-सा दिखा जाये
केतली फिर चढ़ा के चूल्हे पर
चाय नुकसान है, कहा जाये
उसकी हर बात में अदा है तो
क्या ज़रूरी है, तमतमा जाये ?
फूल भी बदतमीज़ होने लगे
सोचती पोर ये, लजा जाये
रात होंठों से नज़्म लिखती हो,
कौन पर्बत न सिपसिपा जाये ?
रात होंठों से नज़्म लिखती रही
चाँद औंधा पड़ा घुला…
Added by Saurabh Pandey on May 2, 2016 at 5:30pm — 44 Comments
जब से पिया गए परदेस ...
प्रेम हीन अब
इस जीवन में
कुछ भी नहीं है शेष
जब से पिया गए परदेस//
नयन घट
सब सूख गए
बिखरे घन से केश
जब से पिया गए परदेस//
दर्पण सूना
हुआ शृंगार से
सूना हिया का देस
जब से पिया गए परदेस//
लगे दंश से
बीते मधुपल
दीप जलें अशेष
जब से पिया गए परदेस//
बिरहन का तो
हर पल सूना
रहे अश्रु न शेष
जब से पिया गए…
Added by Sushil Sarna on May 2, 2016 at 4:54pm — 14 Comments
Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on May 2, 2016 at 4:30pm — 6 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on May 2, 2016 at 8:22am — 14 Comments
मज़दूर दिवस – ( लघुकथा ) -
कारखाने में मज़दूर दिवस मनाया जा रहा था! मंच पर केंद्रीय शिक्षा मंत्री मुख्य अतिथि के रूप में विराजमान थे! उनके दायीं ओर प्रदेश के मुख्य मंत्री और बायीं तरफ़ कारखाने के मालिक सेठ धनपति लाल मौज़ूद थे!
कारखाने के चुंनिंदा कामगारों को सम्मानित किया जाना था! सर्वश्रेष्ठ कामगार का पुरुस्कार सुखराम को मिलना था! सेठ जी ने माइक पर जैसे ही संबोधित करना शुरू किया! तभी सेठ जी के सैक्रेटरी ने सेठ जी के कान में बताया “आपके कार्यालय के ए सी को जांच करते समय…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on May 1, 2016 at 3:00pm — 28 Comments
Added by शिज्जु "शकूर" on May 1, 2016 at 1:00pm — 21 Comments
१२१२ /११२२ /१२१२ /२२ (११२)
.
कोई चराग़ जला कर खुली हवा में रखो,
जो कश्तियाँ नहीं लौटीं उन्हें दुआ में रखो.
.
ग़ज़ब सितम है इसे यूँ अलग थलग रखना,
शराब ज़ह’र नहीं है इसे दवा में रखो.
.
इधर हैं बाढ़ के हालात और उधर सूखा,
हमारी दीदएतर अब, उधर फ़ज़ा में रखो.
.
शबाब हुस्न पे आया तो है मगर कम कम,
है मशविरा कि हया भी हर इक अदा में रखो.
.
तमाम फ़ैसले मेरे तुम्हे लगेंगे सही,
अगर जो ख़ुद को कभी तुम मेरी क़बा में रखो.
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ज़बां…
Added by Nilesh Shevgaonkar on May 1, 2016 at 12:28pm — 20 Comments
ग़ज़ल (उल्फत का रंग है )
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221 --2121 --1221 ---212
ऐसा लगे है चढ़ गया उल्फत का रंग है ।
जो कल मेरे ख़िलाफ़ था वह आज संग है ।
वह मेरे पास बैठ गए सब को छोड़ के
यूँ हर कोई न देख के महफ़िल में दंग है ।
तरके वफ़ा का मश्वरा मत दीजिये हमें
सब जानते हैं आपका ये सिर्फ ढंग है ।
जिस दिन से जायदाद गए बाप छोड़ कर
घर तब से बन गया मेरा मैदाने जंग है ।
मैं एक क़दम…
ContinueAdded by Tasdiq Ahmed Khan on May 1, 2016 at 9:37am — 16 Comments
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