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यदि ये बर्फ़ पिघलती है-ग़ज़ल

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राजनीति से जिन लोगों की, रोज़ी रोटी चलती है।
सच का करें विरोध अगर वो, तो उनकी क्या गलती है।।

किन्तु लेखनी वाले लोगों, से मेरा बस प्रश्न यही।
उनकी नैतिकता क्यों झूठे रंगों में हाँ ढ़लती है।।

वर्ग विभाजन लोकतंत्र में तो बस सत्ता की कुंजी।
किन्तु नीति यह सृजन क्षेत्र में आख़िर काहें मिलती है।।

यद्यपि आज़ादी से लेकर तुझसे नेता कई लड़े।
फिर भी अरे गरीबी तेरी चूल न काहें हिलती है।।

सोचो नफ़रत से कुछ हासिल, कौन यहाँ पर कर पाया।
ईर्ष्या वाली आग हृदय में, फिर बोलो क्यों जलती है।।

सरकारों नें अगर बख़ूबी, अपना फ़र्ज़ निभाया तो।
आज तलक भारत की जनता, सिर्फ़ हाथ क्यूँ मलती है।।

थोड़ा सा हम बदल रहे हैं थोड़ा सा तुम भी बदलो।
शीतल मन्द बयार बहेगी, यदि ये बर्फ पिघलती है।।

मौलिक-अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 7, 2016 at 12:55pm
आदरणीय समर कबीर सर, सादर प्रणाम। ग़ज़ल की तारीफ के लिए बहुत बहुत शुक्रिया।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 7, 2016 at 12:52pm
आदरणीय गोपाल सर सादर प्रणामआभार और तरफ के लइये बहुत बहुत आभार
Comment by Samar kabeer on May 6, 2016 at 10:53pm
जनाब पंकज कुमार मिश्रा जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई भाई,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ।
जनाब मिथिलेश जी का सुझाव उत्तम है ।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 6, 2016 at 5:38pm
पंकज जी बेहतरीन गजल कही आपने .
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 6, 2016 at 10:01am
आदरणीय मिथिलेश सर सादर प्रणाम। ग़ज़ल पर सार्थक प्रतिक्रिया के लिए सादर आभार। समुचित सुझाव के लिए बहुत बहुत आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 6, 2016 at 12:58am

आदरणीय पंकज जी, बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने. हार्दिक बधाई. थोड़ी सी गुंजाइश वाक्य विन्यास की लग रही है. यदि उचित लगे तो इस पर विचार कीजियेगा. जैसे -

सोचो नफ़रत से कुछ हासिल, कौन यहाँ पर कर पाया।

सोचो कौन यहाँ कर पाया, नफरत से कुछ भी हासिल ?

सोचो कौन यहाँ नफरत से, कुछ भी हासिल  कर पाया ?

Comment by Ram Ashery on May 5, 2016 at 2:35pm

आपने को बड़े ही सहज धग से प्रस्तुत किया अप को बहुत बहुत बधाई स्वीकार हो 

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 5, 2016 at 1:31pm
आदरणीय सुशील सरना सर बहुत बहुत आभार आपका। सादर प्रणाम
Comment by Sushil Sarna on May 5, 2016 at 1:09pm

थोड़ा सा हम बदल रहे हैं थोड़ा सा तुम भी बदलो।
शीतल मन्द बयार बहेगी, यदि ये बर्फ पिघलती है।।

वाह आदरणीय पंकज जी बहुत ही सुंदर और यथार्थपरक अशआर कहे हैं आपने। हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय इस प्रस्तुति पर।

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