Added by सतविन्द्र कुमार राणा on April 16, 2017 at 10:00pm — 16 Comments
Added by Arpana Sharma on April 16, 2017 at 7:41pm — 11 Comments
आदतन हर रोज़ सवेरे-सवेरे
बुझते विश्वास की गहरी पीर
मौन विवशता के आवेशों में
बहता मन में निर्झर अधीर
आस-पास लौट आता है उदास
अकस्मात अनजाने तीखा गहरा
गहरे विक्षोभों का सांवला
देहहीन दर्दीला उभार
ज़िन्दगी के अब ढहे हुए बुर्जों में
विद्रोही भावों के अवशेष धुओं में
है फिर वही, फिर वही असहनीय
अजीब बदनसीब अनथक तलाश
नियति के नियामक चक्रव्यूहों में
पुरानी पड़ गई बिखरती लकीरों…
ContinueAdded by vijay nikore on April 16, 2017 at 5:28pm — 9 Comments
Added by बृजमोहन स्वामी 'बैरागी' on April 16, 2017 at 8:45am — 5 Comments
2122/1212/22
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जब नज़र से उतर गया कोई,
यूँ लगा मुझ में मर गया कोई.
.
इल्म वालों की छाँव जब भी मिली
मेरे अंदर सँवर गया कोई.
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उन के हाथों रची हिना का रँग
मेरी आँखों में भर गया कोई.
.
बेवफ़ाई!! ये लफ्ज़ ठीक नहीं,
यूँ कहें!!! बस,…
Added by Nilesh Shevgaonkar on April 16, 2017 at 8:00am — 16 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on April 15, 2017 at 11:56pm — 5 Comments
माना ये गलती मेरी थी पर
थोड़ी थोड़ी तेरी थी
ये दिल जो तेरा हो बैठा
कल तक ये जो मेरा था
तेरी वो बातूनी बातें
जैसे हो बरसात बिना छाते
होगा पश्चाताप तुम्हें तब
जिस दिन सोचे गलती तेरी थी
तुझसे महोब्बत कर बैठे
यही तो गलती मेरी थी
मेरी बातें तुम समझ ना पायी
यही तो गलती तेरी थी
यही तो गलती मेरी थी
मौलिक व अप्रकाशित
Added by रोहित डोबरियाल "मल्हार" on April 15, 2017 at 8:49pm — No Comments
बस चला जा रहा हूँ ...
मैं
समय के हाथ पर
चलता हुआ
गहन और निस्पंद एकांत में
तुम्हारे संकेत को
हृदय की
गहन कंदराओं में
अपने अंतर् के
चक्षुओं में समेटे
बस चला जा रहा हूँ
मैं
समय के हाथ पर
मधुरतम क्षणों का आभास
स्वयं का
अबोले संकेत में
विलय का विशवास
अपने अंतर् के
चक्षुओं में समेटे
बस चला जा रहा हूँ
मैं
समय के हाथ पर
वाह्य जगत के
कल ,आज और कल के
भेद…
Added by Sushil Sarna on April 15, 2017 at 7:16pm — 12 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on April 15, 2017 at 1:00pm — 8 Comments
कारपोरेशन की गाड़ी का हूटर बजा और लड़के ने गाड़ी से उतर कर डोर बैल बजाईं, जब मैं घर से बाहर आया तो मल्होत्रा साहिब अपने घर में रखा कूड़ेदान लेकर बाहर आ उस लड़के की तरफ बढ़ रहे थे ।
"हमारा कूड़ा सुबह सुबह पुराना रेहड़ी वाला ही उठा कि ही ले जाता है" ।
क्योंकि आप तो बहुत देर से आते हैं ।
जब आते हैं तब कोई भी घर नहीं होता "मैने कहा, बच्चे स्कूल व् हम दोनों ड्यूटी जा चुके होते हैं ।
पर वह लड़का अभी भी गेट के पास ही…
ContinueAdded by मोहन बेगोवाल on April 15, 2017 at 11:00am — 3 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 14, 2017 at 5:17pm — 12 Comments
अभिलाषाओं के ...
थक जाते हैं
कदम
ग्रीष्म ऋतु की ऊषणता से
मगर
तप्ती राहें
कहाँ थकती हैं
अभिलाषाओं की तृषा
पल पल
हर पल
ग्रीष्म की ऊषणता को
धत्ता देती
अपने पूर्ण वेग से
बढ़ती रहती है
ज़िंदगी
सिर्फ़ छाँव की
अमानत नहीं
उस पर
धूप का भी अधिकार है
जाने क्यूँ
धूप का यथार्थ
जीव को स्वीकार्य नहीं
भ्रम की छाया में
यथार्थ के निवाले
भूल जाता है…
Added by Sushil Sarna on April 14, 2017 at 3:44pm — 4 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on April 13, 2017 at 10:13pm — 11 Comments
Added by बृजमोहन स्वामी 'बैरागी' on April 13, 2017 at 3:01pm — 10 Comments
१२२२/१२२२/१२२२/१२२२
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हमारा साग बांसी है तुम्हारी भाजी ताजी है
जो इस में ऐब ढूँढेगा तो वो आतंकवादी है.
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गजल के पाँव दाबे हैं तभी कुछ सीख पाये हैं
इसे पाखण्ड कहना आप की जर्रानवाजी है.
.
तलफ्फुज को लगाओ आग, है ये कौन सी चिड़िया
हमारा राग अपना है हमारी अपनी ढपली है.
.
बहर पर क्यूँ कहर ढायें लिखे वो ही जो मन भाये
मगर इतना समझ लें, ये अदब से बेईमानी है.
.
शहर भर का जहर पीने के आदी हो चुके हैं…
Added by Nilesh Shevgaonkar on April 13, 2017 at 11:18am — 12 Comments
22 22 22 22 22 22 ( बहर ए मीर )
कटे हाथ लेकर बे चारे घूम रहे हैं
मांग रहे हैं, कहीं सहारे, घूम रहे हैं
कर्मों का लेखा उनका मत बाहर आये
इसी जुगत में डर के मारे, घूम रहे हैं
हाथों मे पत्थर हैं जिनके, उनके पीछे
छिपे हुये अब भी हत्यारे घूम रहे हैं
अँधियारा अब भी फैला है आंगन आंगन
क्यों ये सूरज, चंदा, तारे घूम रहे हैं
शब्द भटक जाते हैं उनके, अर्थ हीन हो
जिनके घर के अब चौबारे घूम रहे…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on April 13, 2017 at 11:01am — 9 Comments
मैं , ओ बी ओ हूँ ...
***************
मैं , ओ बी ओ हूँ ...
मेरी छाया में हर विधा प्राण पाती रही ..
कितने ही शून्य आये
रहे
सीखे
और शून्य से अनगिनत हो गये
फर्श अर्श हुये
पर, मैं नहीं बदली , वही हूँ
वही रहूँगी
यही तो तय किया था मैंने
लेकिन, क्या ये सच नहीं
कि साज़िन्दे अगर सो जायें
बेसुरे हो ही जाते हैं गवैये ?
कितने भी सुरीले हों..
आज
मुझे सोचना पड़ रहा है ..
शब्द…
Added by गिरिराज भंडारी on April 13, 2017 at 6:30am — 2 Comments
Added by शिज्जु "शकूर" on April 12, 2017 at 7:44pm — 8 Comments
लम्हों की कैद में ......
लम्हे
जो शिलाओं पे गुजारे
पाषाण हो गए
स्पर्श
कम्पित देह के
विरह-निशा के
प्राण हो गए
शशांक
अवसन्न सा
मूक दर्शक बना
झील की सतह पर बैठ
काल की निष्ठुरता
देखता रहा
वो
देखता रहा
शिलाओं पर झरे हुए
स्वप्न पराग कणों को
वो
देखता रहा
संयोग वियोग की घाटियों में
विलीन होती
पगडंडियों को
जिनपर
मधुपलों की सुधियाँ
अबोली श्वासों…
Added by Sushil Sarna on April 12, 2017 at 6:00pm — 6 Comments
2122 2122 2122 212
जाग गहरी नींद से औ देख अपना ये चमन
ये हमारी शान है औ ये हमारा है वतन|
भोली सूरत देखकर या फिर किसी भी लोभ में
जो जलाते घर हमारे दो न तुम उनको शरण |
धर्म के जो नाम पर हमको लड़ाते आ रहे
आ गए फिर वोट लेने सोच कर करना चयन|
आदमी की शक्ल में जो हैं सरापा भेड़िये
कब तलक जुल्मों सितम उनके करेंगे हम सहन|
गर बचाना देश है तो मार दो गद्दार को
झट मिटा दो नाम अब तो मत करो…
ContinueAdded by DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU' on April 11, 2017 at 8:30pm — 6 Comments
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