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गजल- कोख में आने से साँसों के ठहर जाने तक

बह्र- 2122   1122   1122  112/22

कोख में आने से साँसों के ठहर जाने तक

ज़िन्दगी में सकूँ मिलता नहीं मर जाने तक

मुफ़लिसी नेक दिली और ज़माने का दर्द

ये सभी सिर्फ़ सियासत में उतर जाने तक

शादी लड्डू ही नहीं एक बला है इसका

होता अहसास नहीं पंख कतर जाने तक

यार बरसात किसे अच्छी नहीं लगती मगर

खेत खलियान नदी ताल के भर जाने तक

हर तरफ़ शह्र में ख़ूँख़ार दरिन्दे घूमें

बेटियाँ ख़ौफ़ज़दा लौट के घर जाने…

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Added by नाथ सोनांचली on August 4, 2020 at 6:11am — 10 Comments

ग़ज़ल

221 1221 1221 122

शतरंज में रिश्तों की मैं हारा नहीं होता 

अपनों को बचाने में जो उलझा नहीं होता

यादें तेरी ख़ुश्बू से न दिन रात महकतीं

लम्हा जो तेरे लम्स का ठहरा नहीं होता

भीतर न उसे आने कभी देता मेरा दिल

ख़ंजर पे तेरा नाम जो लिक्खा नहीं होता 

शाख़ों से कहीं उसकी तुम्हें झाँकता बचपन

आँगन का शजर तुमने जो काटा नहीं होता

नफ़रत के समर आयेंगे नफ़रत के शजर पर 

ऐ काश बशर बीज ये बोया नहीं होता

गर…

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Added by anjali gupta on August 4, 2020 at 12:30am — 5 Comments

उसने पी रखी है

2122 2122 2122 2122

वो न बोलेगा हसद की बात उसने पी रखी है

सिर्फ़ होगी प्यार की बरसात उसने पी रखी है

होश में दुनिया सिवा अपने कहाँ कुछ सोचती है

कर रहा है वो सभी की बात उसने पी रखी है

मुँह पे कह देता है कुछ भी दिल में वो रखता नहीं है

वो समझ पाता नहीं हालात उसने पी रखी है

झूठ मक्कारी फ़रेबी ज़ुल्म का तूफ़ाँ खड़ा है

क्या वो सह पायेगा झंझावात? उसने पी रखी है

जबकि सब दौर-ए-जहाँ में लूटकर घर भर रहे हों…

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Added by आशीष यादव on August 3, 2020 at 12:30pm — 4 Comments

शिवत्व

जब मन वीणा के तारों पर 

स्वर शिवत्व झन्कार हुआ

चिरकालिक,शाश्वत ,असीम

प्रकटा , अमृत संचार हुआ

निर्गत हुए भविष्य  , भूत

वर्तमान अधिवास हुआ

कालातीत, निरन्तर,अक्षय

महाकाल का भास हुआ

शव समान तन,आकर्षण से

मन विमुक्त आकाश हुआ

काट सर्व बन्धन इस जग के

परम तत्व , निर्बाध हुआ

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Usha Awasthi on August 3, 2020 at 10:30am — 4 Comments

लोग घर के हों या कि बाहर के...(ग़ज़ल : सालिक गणवीर)

(2122 1212 22/122)

लोग घर के हों या कि बाहर के

प्यार करिएगा उनसे जी भर के

जाने क्या कह दिया है क़तरे ने

हौसले पस्त हैं समंदर के

जिस्म पर जब कोई निशाँ ही नहीं

कौन देखेगा ज़ख़्म अंदर के

दोस्ती उन से कर ली दरिया ने

जो थे दुश्मन कभी समंदर के

एक शीशे से ख़ौफ़ खाते हैं

लोग जो लग रहे थे पत्थर के

एक बस माँ को बाँट पाए नहीं

घर के टुकड़े हुए बराबर के

गरचे हर घर की है कहानी…

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Added by सालिक गणवीर on August 2, 2020 at 3:30pm — 15 Comments

वो भी नहीं रही (ग़ज़ल - शाहिद फ़िरोज़पुरी)

बह्रे मज़ारे मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ महज़ूफ़

221  /  2121 /  1221  /  212



मुहलत जो ग़म से पाई थी वो भी नहीं रही

इक आस जगमगाई थी वो भी नहीं रही [1]

देकर लहू जिगर का मसर्रत जो मुट्ठी भर

हिस्से में मेरे आई थी वो भी नहीं रही [2]

शाहाना तौर हम कभी अपना नहीं सके

आदत में जो गदाई थी वो भी नहीं रही [3]

दुनिया घिरी है चारों तरफ़ से बुराई में

बंदों में जो भलाई थी वो भी नहीं रही…

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Added by रवि भसीन 'शाहिद' on August 2, 2020 at 3:25pm — 12 Comments

राखी

राखी

"अभी आ जाएगी तुम्हारी लालची बहन हमारा बजट ख़राब करने,क्या उसे नही पता? लोकडाउन के कारण हमारी आर्थिक हालत ठीक नहीं है? अब उसका बोझ भी उठाना पड़ेगा और राखी का उपहार भी देना पड़ेगा ,"भाभी मेरे भाई से कह रही थी।

"अरे मीनू ऐसे क्यों बोल रही हो? दीदी बहुत समझदार हैं ।इस बार उन्हें हम कोई घर में रखा कोई सूट या साड़ी दे देंगे।"

"मेरी बात ध्यान से सुन लो ! मैं अपना कोई सूट उन्हें नहीं देने वाली,वो मुझे अपने मायके से मिले हैं।" मेरा भाई लाचार सा खड़ा ये सब सुन रहा था। मैं दरवाजे…

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Added by Madhu Passi 'महक' on August 2, 2020 at 3:16pm — 6 Comments

मारे गए गुलफाम(लघुकथा)

फिर कौवा पहचान लिया गया ', वृद्ध काक अपने साथियों से बोला।

' उस मूर्ख काक की दुर्दशा - कथा शुरू कैसे हुई?' काक मंडली ने सवाल उछाला।

' वही रंग का गुमान उसको ले डूबा।कोयल अपने सुमधुर सुर के चलते पूजी जाती।लोग उसे सुनने का जतन करते।यह देख वह ठिंगना कौवा कोयल बनने चला।रंग कोयल जैसा था ही।बस मौका देखकर कोयलों के समूह में शामिल हो गया। उनके साथ लगा रहता। उसे गुमान हो गया कि अब वह भी कोयल हो गया। वह अन्य कौवों को टेढ़ी नजर से देखता।'

'फिर क्या हुआ दद्दा?'…

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Added by Manan Kumar singh on August 2, 2020 at 6:30am — No Comments

हौंसला बुलंद कर

मुँह लटकाए बैठा है क्यूँ

हौंसला अपना बुलंद कर

गोर्वित वंश का वंशज है तू

निडर होकर आगे बढ़ ||

 

कदम चूमेगी मंजिल एक दिन

अनिश्चितता ना हृदय धर

कट जायेगी दुख की घड़ियाँ

इसकी ना तू चिंता कर ||

 

हर पल हर क्षण वक़्त बदलता

इसके संग तू खुद को बदल

 कर्तव्य धर्म की पुजा कर

कर्मठता संग तू आगे बढ़ ||

 

स्वर्ण इतिहास है तेरे वंश का

उसकों तू ना कलंकित कर

समस्याओ से यदि टूट जाएगा…

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Added by PHOOL SINGH on August 1, 2020 at 1:30pm — 2 Comments

तो कोई  करे भी तो क्या करे

अनगिन हों सूरज दहकते हों तारे 

पर साँसों में भी घुल जाए अँधियारा 

तो कोई  करे भी तो क्या करे  

प्रहरी हों रक्षक पति ही पति हों 

पर फांसी हो जाये निज साड़ी किनारा 

तो कोई  करे भी तो क्या करे …

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Added by amita tiwari on August 1, 2020 at 5:30am — 3 Comments

देशभक्ति

छोटी सी इस बात पर ,

हुजूर जरा गौर करें।

देश के लिए कुछ करना हो तो,

खुद से ही शुरुआत करें।।

ना सोचें कौन साथ देगा,

फर्ज अपना अदा करें।

देश के लिए,देश की खातिर,

खुद को ही अर्पण करें।।

हर जरूरतमंद के लिए ,

मसीहा बन खड़े रहें।

गर जरूरत आन पड़े तो,

जान भी कुरबां करें।।

देशभक्ति दिल में जगाकर,

खुद में परिवर्तन करें।

स्वदेशी को अपनाएं और

विदेशी का बहिष्कार…

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Added by Neeta Tayal on July 31, 2020 at 1:30pm — 2 Comments

तू अपने आप को अब मेरे रू ब रू कर दे(११८ )

(1212 1122 1212 22 /112 )

तू अपने आप को अब मेरे रू ब रू कर दे

बहुत दिनों की मेरी पूरी आरज़ू कर दे

**

वबा के वार से दुश्वार हो गया जीना

ख़ुदाया अम्न को तारी तू चार सू कर दे

**

बता मैं दश्त में पानी कहाँ तलाश करूँ

चल अपनी चश्म के अश्कों से बा-वज़ू कर दे

**

ख़ुदा किसी को न औलाद ऐसी अब देना

जो वालिदेन की इज़्ज़त लहू लहू कर दे

**

मैं जानता हूँ सदाओं की भीड़…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on July 30, 2020 at 4:00pm — 6 Comments

ग़ज़ल -दौर वह यारो गया और उसके दीवाने गए

बह्र- 2122  2122  2122  212

मीडिया की फ़ौज लेकर रह्म कब खाने गए

झोपड़ी में सिर्फ़ वे दिल अपने बहलाने गए

रेडियो से ही हुआ करती थी सुब्ह-ओ-शाम जब

दौर वह यारो गया और उसके दीवाने गए

नीम पीपल छाँछ लस्सी बाजरे की रोटियाँ

ज़िन्दगी से गाँव की ये सारे अफ़साने गए

जोड़ते थे जो दिलों को अपनी माटी से यहाँ

फ़ाग चैता और कजरी के वे सब गाने गए

पूछने पर लाल के माँ ने कहा पापा तेरे

ओढ़कर प्यारा तिरंगा चाँद को लाने…

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Added by नाथ सोनांचली on July 30, 2020 at 11:16am — 13 Comments

पानी गिर रहा है

2122 2122 2122 2122

इश्क बनता जा रहा व्यापार पानी गिर रहा है 

हुस्न रस्ते में खड़ा लाचार पानी गिर रहा है

चंद जुगनू पूँछ पर बत्ती लगाकर सूर्य को ही

बेहयाई से रहे ललकार पानी गिर रहा है 

टाँगकर झोला फ़कीरी का लबादा ओढ़कर अब

हो रहा खैरात का व्यापार पानी गिर रहा है 

बाप दादों की कमाई को सरे नीलाम कर वह

खुद को साबित कर रहा हुँशियार पानी गिर रहा है 

झूठ के लश्कर बुलंदी की तरफ बढ़ने लगे हैं

साँच की होने लगी…

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Added by आशीष यादव on July 30, 2020 at 5:21am — 8 Comments

उनके ख़्वाबों पे ख़यालात पे रोना आया.(ग़ज़ल : सालिक गणवीर)

(2122 1122 1122 22/112)

उनके ख़्वाबों पे ख़यालात पे रोना आया

अब तो मत पूछिये किस बात पे रोना आया

देखता कौन भरी आँखों को बरसातों में

फिर से आई हुई बरसात पे रोना आया

आप चाहें तो जो दो दिन में सुधर सकते हैं

उन बिगड़ते  हुए हालात पे रोना आया

मुद्दतों जिनके जवाबात को तरसा हूँ मैं

आज कुछ ऐसे सवालात पे रोना आया

मुझको मालूम था अंजाम यही होना है

जीत रोने से हुई मात पे रोना आया

दिन…

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Added by सालिक गणवीर on July 29, 2020 at 12:00pm — 13 Comments

अहसास की ग़ज़ल :मनोज अहसास

2122   2122  2122   212

.

अपनी धुन में सब मगन हैं किससे क्या चर्चा करें.

किसको अपना दिल दिखायें किसके ग़म पूछा करें.

अब हमारी धडकनों का मोल कुछ लग जाये बस,

चल चलें मालिक के दर पर और कोई सौदा करें.

ज़िन्दगी इस खूबसूरत जाल में लिपटी रही,

रात में लिक्खें ग़ज़ल दिन में तुझे सोचा करें.

दे सके तो दे हमें वो वक़्त फिर मेरे ख़ुदा,

रात भर जागा करें और खत उन्हें लिक्खा करें.

सारा जीवन एक उलझन के भँवर में फँस…

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Added by मनोज अहसास on July 29, 2020 at 1:30am — 5 Comments

अपने हिसार-ए-फ़िक्र से बाहर बशर निकल (११७ )

(221 2121 1221 212 )

अपने हिसार-ए-फ़िक्र से बाहर बशर निकल

दुनिया बदल गई है तू भी अब ज़रा बदल

**

रफ़्तार अपनी वक़्त कभी थामता नहीं

अच्छा यही है वक़्त के माफ़िक तू दोस्त ढल

**

पीछे रहा तो होंगी न दुश्वारियां ये कम

चाहे तरक़्क़ी गर तो ज़माने के साथ चल

**

रिश्ते निभाने के लिए है सब्र लाज़मी

रखना तुझे है गाम हर एक अब सँभल सँभल

**

तूफ़ान में चराग़ की मानन्द क्यों…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on July 27, 2020 at 10:30pm — 6 Comments

झूलों पर भी रोक लगी -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'( गजल )

२२२२/२२२२/२२२२/२२२



सुनो सखी इस सावन में तो झूलों पर भी रोक लगी

जिससे लगता नेह भरी सब साँसों पर भी रोक लगी।१।

**

घिरघिर बदली कड़क दामिनी मन को हैं उकसाती पर

भरी  उमंगों  से  यौवन  की  पींगों  पर  भी  रोक लगी।२।

**

कितने मास  करोना  का  भय  देगा  कारावास हमें

मिलकर हम सब कैसे गायें गीतों पर भी रोक लगी।३।

**

सूखी तीज  बितायी  सब  ने  कैसी  होगी  राखी रब

कोई कहे…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 27, 2020 at 1:15pm — 8 Comments

मक़ाम ऐसे चाहत में आने लगे हैं (ग़ज़ल - शाहिद फ़िरोज़पुरी)

122 / 122 / 122 / 122

मक़ाम ऐसे चाहत में आने लगे हैं

अब उनके सितम दिल को भाने लगे हैं [1]

मज़े वस्ल में पहले आते थे जो सब

हमें अब वो फ़ुर्क़त में आने लगे हैं [2]

उन्हीं का तो ग़म हमने ग़ज़लों में ढाला

ये एहसाँ वो हम पर जताने लगे हैं [3]

नया जौर का सोचते हैं तरीक़ा

वो उँगली से ज़ुल्फ़ें घुमाने लगे हैं [4]

मुझे लोग दीवाना समझेंगे शायद

मेरे ख़त वो सबको सुनाने लगे हैं [5]

हुए इतने बेज़ार ज़ुल्मत से…

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Added by रवि भसीन 'शाहिद' on July 27, 2020 at 9:59am — 13 Comments

ग़ज़ल (यहाँ तनहाइयों में क्या रखा है....)

1222 1222 122

यहाँ तनहाइयों में क्या रखा है

चलो भी गाँव में मेला लगा है

तुझे मैं आज पढ़ना चाहता हूँ

मिरी तक़दीर में अब क्या लिखा है

किनारे पर भी आकर डूब जाओ

नदी है,नाख़ुदा तो बह चुका है

निकलना चाहता है मुझसे आगे

मिरा साया मिरे पीछे पड़ा है

ज़रा आगे चलूँ या लौट जाऊँ

गली के मोड़ पर फिर मैक़दा है

उसी पर मर रहे हैं लोग सारे

जो अपने आप पर कब से फ़िदा है

सितारों चैन से…

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Added by सालिक गणवीर on July 27, 2020 at 8:00am — 13 Comments

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