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आँगन वो चौड़ा खेत के छूटे रहट वहीं - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' (गजल)

२२१/२१२१/१२२१/२१२



पूछो न आप गाँव को क्या क्या हैं डर दिये

खेती को मार  खेत  जो  सेजों से भर दिये।१।

**

पाटे गये वो ताल भी पुरखों की देन जो

रख के विकास नाम ये अन्धे नगर दिये।२।

**

आँगन  वो  चौड़ा  खेत  के  छूटे  रहट  वहीं

दड़बों से आगे कुछ नहीं जितने भी घर दिये।३।

**

वो भी धरौंदे तोड़  के  हम  से ही  थे गहे

कहकर सहारा आप ने तिनके अगर दिये।४।

**

कोई चमन  के  फूल  को  पत्थर बना रहा

कोई था जिसने शूल भी फूलों से कर…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 12, 2020 at 6:30am — 5 Comments

मोहब्बत क्या है .......

मोहब्बत क्या है .......



तुम समझे ही नहीं

मोहब्बत क्या है

मेरी तरह

कुछ लम्हे

तन्हा जी कर देखो

दीवारों पर अहसासों के अक्स

रक्स करते नज़र आएंगे

दर्द के सैलाब

आखों में उतर आएंगे

लबों के साहिल पर

अलफ़ाज़ कसमसायेंगे

अंधेरों के कहकहे

रूह तक पसर जाएंगे

तब तुम जानोगे

मोहब्बत क्या है

उलझी लटों को सुलझाना

मोहब्बत नहीं है

ज़िस्मानी गलियों से गुजर जाना

मोहब्बत नहीं है

हिर्सो-हवस के पैराहन

पहने रहना

मोहब्बत नहीं…

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Added by Sushil Sarna on August 11, 2020 at 4:56pm — 2 Comments

३ क्षणिकाएँ : याद

३ क्षणिकाएँ : याद

आँच
सन्नाटे की
तड़पा गई
यादों का शहर

.......................

एक टुकड़ा
चमकता रहा
ख़्वाब का
मेरी खामोशियों में
तुम्हारी याद का

..........................

पिघलती रही
यादों की बारिश
बंद आँखों की
झिर्रियों से
दर्द बनकर
उल्फ़त का

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on August 11, 2020 at 4:50pm — 6 Comments

रस्ते की बात है न ये रहबर की बात है...(ग़ज़ल-सालिक गणवीर)

221 2121 1221 212

रस्ते की बात है न ये रहबर की बात है

पा लेना मंज़िलों को मुक़द्दर की बात है

ये बोरिया की है मिरे बिस्तर की बात है

फूलों की सेज मिलना मुक़द्दर की बात है

उस वाक़िआ का ज़िक्र मुनासिब नहीं यहाँ

चल घर पे चलके बात करें घर की बात है

कब कौन किसके शाने पे चढ़ जाए क्या पता

ऊपर पहुँचना भी तो सुअवसर की बात है

सब की क़लम से एक ही क़िस्सा निकलता था

आज़ादी छिन गई थी पिछत्तर की बात…

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Added by सालिक गणवीर on August 10, 2020 at 11:30pm — 12 Comments

मगर हड़का रहा है (गजल)

उसकी ना है इतनी सी औकात मगर हड़का रहा है

झूठे में ही खा जाएगा लात मगर हड़का रहा है

औरों की बातों में आकर गाल बजाने वाला बच्चा

जिसके टूटे ना हैं दुधिया दाँत मगर हड़का रहा है

जिसके आधे खर्चे अपनी जेब कटाकर दे रहे हैं

अबकी ढँग से खा जायेगा मात मगर हड़का रहा है

आदर्शों मानवमूल्यों को छोड़ दिया तो राम जाने

कितने बदतर होंगे फिर हालात मगर हड़का रहा है

उल्फत की शमआ पर पर्दा डाल रहा है बदगुमानी

कटना मुश्किल है नफरत की रात…

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Added by आशीष यादव on August 10, 2020 at 6:36pm — No Comments

मेरे ही प्यार में पगी आई. - ग़ज़ल

फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन

2122 1212 22 

मेरे ही प्यार में पगी आई. 

पास जब मेरी ज़िन्दगी आई. 

 

उनके हिस्से में कुछ नहीं आया,

जिनको करना न बंदगी आई. 

 

न किसी से लगा…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on August 10, 2020 at 11:03am — 10 Comments

एक नया दस्तूर (ग़ज़ल - शाहिद फिरोज़पुरी)

22 / 22 / 22 / 22 / 22 / 22

एक नया दस्तूर चलाया जा सकता है

ग़म को भी महबूब बनाया जा सकता है [1]

अपने आप को यूँ तड़पाया जा सकता है

बीती बातों पर पछताया जा सकता है [2]

यार की बाँहों में अब दम घुटता है मेरा

जन्नत से भी तो उकताया जा सकता है [3]

आशिक़ सा मासूम कहाँ पाओगे जिस से

अपना कह कर सब मनवाया जा सकता है [4]

पहली बार महब्बत छूती है जब दिल को

उस लम्हे को कैसे भुलाया जा सकता है [5]

जीत…

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Added by रवि भसीन 'शाहिद' on August 9, 2020 at 12:42pm — 17 Comments

है जो कुछ भी धरती का - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' ( गजल)

२२२२/२२२२/२२२२/२२२

अपना क्या है इस दुनिया में है जो कुछ भी धरती का

आग, हवा ये, फूल, समन्दर, चिड़िया, पानी धरती का।१।

**

क्या सुन्दरवन क्या आमेजन कोलोराडो क्या गौमुख

ये  हरियाली,  रेत  के  टीले,  सोना, चाँदी  धरती  का।२।

**

हिमशिखरों  की  चमक  चाँदनी  बारामूदा  का जादू

पीली नदिया,  हरा समन्दर  ताजा  बासी  धरती का।३।

**

बाँध न गठरी लूट धरा को अपना माल…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 9, 2020 at 4:20am — 7 Comments

ग़ज़ल-चाँद के चर्चे आसमानों में

लंबे अंतराल के बाद एक ग़ज़ल के साथ
2122 1212 22

चाँद के चर्चे आसमानों में
और मेरे सभी फसानों में

अय हवा बख्श दे अभी ये लौ
हैं अँधेरे गरीबखानों में

हम सुख़नवर से पीर ज़िंदा है
दर्द का मोल क्या दुकानों में

आँखों में आँसुओं का डेरा है
ख्वाब हैं क़ैद मर्तबानों में

पंछियों के लिए सदा रखना
कोई उम्मीद आबदानों में

दिल जला 'ब्रज' जरा सुकूँ आये
रौशनी भी रहे मकानों में
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 8, 2020 at 3:16pm — 2 Comments

गजल(मूंदकर आंखें.....)

2122 2122 2122
मूंदकर आंखें अंधेरा वह कहेगा
भौंकना तारी नहीं वह चुप रहेगा।1

आदमी को बांटता है आदमी से
बर्फ की माफिक हमेशा वह ढहेगा।2

आप शीतल होइए, उसको नहीं गम
आग का दरिया बना वह, फिर बहेगा।3

नाज़ नखरे आपने उसके सहे हैं
जुंबिशें कुछ आपकी वह क्यूं सहेगा?4

खा रहा कबसे मलाई मुफ्त की वह
आपका मट्ठा अभी भी वह महेगा।5
"मौलिक व अप्रकाशित"

Added by Manan Kumar singh on August 8, 2020 at 10:23am — 3 Comments

अहसास की ग़ज़ल :मनोज अहसास

221  2121   1221    212

क्या है मेरे होठों की दुआ मैं भुला चुका.

किस तरह मानता है ख़ुदा मैं भुला चुका.

मेरे सभी गुनाहों को अब तू भी भूल जा,

तुझसे हुई है जो भी खता मैं भुला चुका.

असली खुशी दबी पड़ी है गर्त में कहीं,

अब उसको ढूंढने की अदा मैं भुला चुका.

नज़दीक से गुज़र के मेरे देख ले कभी,

वो तेरी रहबरी की हवा मैं भुला चुका.

मुझको पुकार ने की तो आदत सी हो गई,

पर किसको दे रहा हूँ सदा मैं भुला…

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Added by मनोज अहसास on August 8, 2020 at 9:30am — No Comments

नौ दो ग्यारह ...(लघुकथा)

" काल सुबह कु तैयार हो जाना! हमलोगा को लेने बस आवेगी।"

" किधर कु जाना है? मुकादम जी!" 

" अरे! उवा पिछली बेर गए थे न, मकान बनाने..."

" ओह! उधर कु तो मेरी लुगाई नही जावेगी।"

"कीयों?"

" बस ! मेरी मरजी... मेरी लुगाई है ... वो हरामी ठेकेदार और वाके आदमी... मेरी लुगाई पर..."

"अबे साले! तू क्या खुद को सलमान खान समझता है? तेरी लुगाई को संग लाना होगो वरना..." मुकादम ने जर्दा थूकते हुए अपने करीब खड़े अपने दोस्त से कहा," साला! हरामी! समझता नही यह, इसको…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 7, 2020 at 12:20pm — No Comments

महज चाहत का रिस्ता है - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'( गजल)

१२२२/१२२२/१२२२/१२२२



जमाने की नजर में यूँ बताओ कौन अच्छा है

भले ही माँ पिता  के  वास्ते हर लाल बच्चा है।१।

**

हदों में झूठ बँध पाता  नहीं  है आज भी लोगों

जुटाली भीड़ जिसने बढ़ लगे वो खूब सच्चा है।२।

**

लगे बासी भरा जो भोर को घर में जिन्हें सन्ध्या

मगर बोतल में जो पानी कहा करते वो ताजा है।३।

**

महज चाहत का रिस्ता है यहाँ हर चीज से मन का

सुना है नेह से  मिलता …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 6, 2020 at 5:11pm — 2 Comments

अहसास की ग़ज़ल :मनोज अहसास

2×15

एक ताज़ा ग़ज़ल

लाखों ग़म की एक दवा है, सोचो ! कुछ भी याद नहीं.

कोई शिकायत करने आए,कह दो कुछ भी याद नहीं.

हमने उसकी यादें जीकर उसकी याद के गीत लिखे,

उसने पढ़कर लिख भेजा है, उसको कुछ भी याद नहीं.

मेरी कहीं इक बात पे मेरा साथी रूठ गया मुझसे,

मैंने वफ़ा की याद दिलाई,वो तो कुछ भी याद नहीं!

मेरी तड़प तो भूलना बेहतर था तेरे जीने के लिए,

तुमने काटी थीं जो रातें रो-रो,कुछ भी याद नहीं?

सारे कागज़ के…

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Added by मनोज अहसास on August 6, 2020 at 12:12am — 2 Comments

ग़ज़ल को सँवारा है इन दिनों.- ग़ज़ल

मापनी 221 2121 1221 212 

 

हर आदमी ही वक़्त  का मारा है इन दिनों.  

प्रभु के सिवा न कोई सहारा है इन दिनों.  

 

फिरते सभी नक़ाब में चेहरा छुपा-छुपा, 

चारों तरफ अजीब नज़ारा है इन दिनों. 

 

मिलना गले न हाथ मिलाना किसी…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on August 5, 2020 at 5:30pm — 10 Comments

अछूतों सा - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' (गजल)

१२२२/१२२२/१२२२/१२२२



अछूतों से भी मत करना कभी व्यवहार अछूतों सा

समय तुम को न इस से दे कहीं दुत्कार अछूतों सा।१।

**

कहोगे भार जब उनको तुम्हें कोसेगा अन्तस नित

कहोगे तब स्वयम् को ही यहाँ पर भार अछूतों सा।२।

**

करोना  वैसा  ही  लाया  करें  व्यवहार  जैसा  हम

उसी का भोगता अब फल लगे सन्सार अछूतों सा।३।

**

पता पाओगे  पीड़ा  का  उन्हें  जो  नित्य  डसती है

कहीं पाओगे…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 5, 2020 at 6:30am — 10 Comments

ग़ज़ल

212 1212 1212 1212



ख़ाक हो गयी खुशी, था आग का पता नहीं ।

ख़्वाब सारे जल गए, मगर धुआँ उठा नहीं ।

पूछिये न हाले दिल यूँ बारहा मेरा सनम ।

ये हमारे दर्दोगम का सिलसिला नया नहीं ।।

इक नज़र से दिल मेरा वो लूट कर चला गया ।

इस सितम पे क्यूँ अभी तलक कोई खफ़ा नहीं ।।

रूबरू था हुस्न …

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Added by Naveen Mani Tripathi on August 4, 2020 at 11:31pm — 7 Comments

वक़्त ने हमसे मुसल्सल इस तरह की रंजिशें (११९ )

एक ग़ैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल 

(2122 2122 2122 212 )

वक़्त ने हमसे मुसल्सल इस तरह की रंजिशें

ख़ुदक़ुशी को हो गईं मज़बूर अपनी ख़्वाहिशें

अजनबी जो भी मिले सारे मुहब्बत से मिले

और की हैं ख़ास अपनों ने हमेशा साज़िशें

क्या ख़ुदा नाराज़ है कुछ आदमी से इन दिनों

गर्मियोँ के बाद आईं थोक में हैं बारिशें

क्यों नुज़ूमी को दिखाता हाथ है तू बार बार

क्या लकीरें हाथ की रोकेंगीं तेरी…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on August 4, 2020 at 9:30pm — 6 Comments

ग़ज़ल

2212 2212 2212 2212

मैं ठोकरें खाता रहा मुझ पर तरस आता था कब ।

इस ज़िंदगी पर सच बताएं आपका साया था कब ।।1

जीता रहा मैं बेखुदी में मुस्कुरा कर उम्र भर।

अब याद क्या करना कि मैंने होश को खोया था कब ।।2

वो कहकशां की बज़्म थी, उन बादलों के दरमियां ।

मुझको अभी तक याद है वो चाँद शर्माया था कब ।।3

जलते रहे क्यूँ शमअ में परवाने सारी रात तक ।

तू वस्ल के अंज़ाम का ये फ़लसफ़ा समझा था कब ।।4

जो अश्क़ में डूबा मिला था…

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Added by Naveen Mani Tripathi on August 4, 2020 at 5:44pm — 4 Comments

कितना मुश्किल होता है - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' (गजल)

२२२२/२२२२/२२२२/२२२



रात से बढ़कर दिन में जलना कितना मुश्किल होता है

सच कहता हूँ निज को छलना कितना मुश्किल होता है।१।

**

जब रिश्तों के बीच में ठण्डक हद से बढ़कर पसरी हो

धूप से बढ़कर छाँव में चलना कितना मुश्किल होता है।२।

**

पेड़ हरे में जो भी मुश्किल सच में हल हो जाती पर

ठूँठ बने तो धार में गलना कितना मुश्किल होता है।३।

**

साथ समय तो लक्ष्य सरल पर समय हठीला होने से

सच में धारा संग भी चलना कितना मुश्किल होता है।४।

**…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 4, 2020 at 5:00pm — 8 Comments

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