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हिन्दी बोलने में ना सकुचेंगे

"हिन्दी बोलने में ना सकुचेंगे"

हिन्दी मातृभाषा है मेरी,

फिर क्यूं बोलने में शरमाऊं।

पट पट पट पट अंग्रेजी बोलना,

क्यूं ही मैं हरदम चाहूँ।।

हिन्दी बोलूं तो गंवार लगूं,

जो अंग्रेजी बोलूं तो शान।

क्यूं हम हिन्दी होकर भी,

नहीं करते हिन्दी का सम्मान।।

विदेशी भारत आकर भी,

इंग्लिश में ही बातें करता।

फिर भारतीय विदेश में जाकर ,

क्यूं हिन्दी बोलने में है कतराता ।।

गीता का उपदेश भी कृष्ण ने ,

हिन्दी में ही सुनाया है।…

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Added by Neeta Tayal on September 8, 2020 at 10:00am — 4 Comments

बिना दिल के ......

बिना दिल के ......

लहरों से टकराती

हवाओं से उलझती कश्ती को

आख़िरकार

किनारा मिल ही गया

मगर

अभी तो उसे जीना था

वो समंदर

ज़िंदा थीं जिसमें

उसकी बेशुमार ख्वाहिशें

उसके साथ जीने की

लगता था

उसके बिना

रेतीले किनारों पर

मेरा बदन मृत सा पड़ा जी रहा था

इस आस में

कि मेरा समंदर

मुझे नहीं छोड़ेगा

इन रेतीले किनारों में

दफन होने के लिए

वो जानता है

बिना दिल के भी

कहीं ज़िस्म…

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Added by Sushil Sarna on September 7, 2020 at 7:30pm — 8 Comments

अपना द्वार खुला अलबत्ता.- ग़ज़ल

मापनी २२ २२ २२ २२ 

है जिनके हाथों में सत्ता. 

उनका हर दिन बढ़ता भत्ता. 

छोड़ दिया जिसको डाली ने, 

इधर-उधर उड़ता वह पत्ता.

कीमत भारी होनी ही थी,

था पुस्तक पर…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on September 7, 2020 at 3:30pm — 12 Comments

क्या जाने किस जनम का सिला दे गया मुझे..( ग़ज़ल : सालिक गणवीर)

221 2121 1221 212

क्या जाने किस जनम का सिला दे गया मुझे

था बेगुनाह फिर भी सज़ा दे गया मुझे

कैसे यक़ीन कीजिए ग़ैरों की बात का

समझा था जिसको अपना दगा दे गया मुझे

लम्बी हो उम्र मेरी दुआ मांँगता रहा

मरने की मुफ़्त में जो दवा दे गया मुझे

उसके इशारों को मैं समझ ही नहीं सका

गूंँगा था आदमी जो सदा दे गया मुझे

ग़ज़लें पुरानी ले गया आया था ख़्वाब में

इनके इवज में घाव नया दे गया मुझे

भीगा था जिस्म…

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Added by सालिक गणवीर on September 6, 2020 at 10:00pm — 18 Comments

बोलो मैं कैसे बिकता

एक गजल तेरे होठों पर लिख सकता था

इसकी टपक रही लाली पर बिक सकता था

किंतु सामने जब शहीद की पीर पुकारे

जान वतन पर देने वाला वीर पुकारे

जिसने भाई, लाल, कंत कुर्बान किये हों

सूख चुकी उनकी आँखों का नीर पुकारे

कैसे उन क़ातिल मुस्कानों पर बिकता

कैसे कोमल नाजुक होठों पर लिखता



एक गजल तेरी आँखों पर लिख सकता था

चंचल चितवन सी कमान पर बिक सकता था

पर कौरव-पांडव दल आँखें मींच रहा हो

चीर दुःशासन द्रुपद-सुता की…

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Added by आशीष यादव on September 6, 2020 at 8:30pm — 8 Comments

मेरे ख़त

221 2122 221 2122

ये मामला है दिल का फैला ले पर मेरे ख़त/1

जाना पड़ेगा तुझको उड़कर शहर मेरे ख़त

इस बार लिखना तय था वरना तो जाने कब से/2

आ जा रहे थे ख़्वाबों में उनके घर मेरे ख़त

अनपढ़ गंवार पागल थी इश्क़ क्या ही करती/3

चूल्हा जला रही थी वो फाड़ कर मेरे ख़त

सर्दी की रात थी जब उनको क़मर कहा था/4

उड़ कर के खुद गए थे उनके शहर मेरे ख़त

होठों की लाली होती थी जिन ख़तों पे पहले/5

अब रद्दी बन रहे थे बस उनके घर मेरे ख़त

इनकार लिखना…

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Added by Dimple Sharma on September 6, 2020 at 3:07pm — 10 Comments

शिक्षक

शिक्षक है एक कुम्भकार और शिल्पकार 

हम गीली मिट्टी देता हमे वो आकार

उसने ही अच्छे बुरे का ज्ञान करवाया

जीवन रूपी भंवर में कैसे है  तैरना  

ये मेरे गुरु ने मुझे सिखलाया

जैसे नदी में एक नाव माझी बिना 

वैसे ही अज्ञानी हम शिक्षक बिना 

जिंदगी में उसने हमें सही मुक़ाम पर पहुंचाया

जीवन रूपी भंवर में कैसे है तैरना  

ये मेरे गुरु ने मुझे सिखलाया 

उसने कभी कुछ नहीं हमसे माँगा 

आगे बढ़ता देख हमें वो फूला न समाया …

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Added by Madhu Passi 'महक' on September 4, 2020 at 11:00am — 6 Comments

ज़िंदगी ........

ज़िंदगी ........

झड़ जाते हैं

मौसमों की मार सहते सहते

एक एक करके सारे पात

किसी वयोवृद्ध वृक्ष के

भ्रम है उसकी अवस्था

क्योँकि

उम्र के चरम के बावज़ूद

रहती है ज़िंदा

अपने मौसम की प्रतीक्षा में

आदि किरण

ज़िंदगी की



लौट आते हैं उदास विहग

ज़िंदगी के

पुनः उन्हीं पर्ण विहीन शाखाओं पर

अंकुरित होती है जहाँ

फिर से शाखाओं की कोरों पर

पीत पुष्पों से

लौटे मौसम का अभिनन्दन करती…

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Added by Sushil Sarna on September 3, 2020 at 9:30pm — 6 Comments

देह पर कुछ दोहे, ,,,,,,

देह पर कुछ दोहे, ,,,,,,

देह धरा में खो गई, शून्य हुए सम्बंध ।

तस्वीरों में रह गई, रिश्तों की बस गंध ।।



देह मिटी तो मिट गए, भौतिक जग के दंश ।

शेष पवन में रह गए, कुछ यादों के अंश ।।



देह छोड़ के उड़ चला ,श्वास पंख का हंस ।

काल न छोड़े जीव को ,होता काल नृशंस ।।



आती -जाती देह में , सांसे हैं आभास ।

एक श्वास का भी नहीं, जीवन में विश्वास ।।



देह दास है श्वास की, श्वास देह की प्यास ।

श्वास देह की जिंदगी, श्वास देह की आस…

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Added by Sushil Sarna on September 3, 2020 at 8:35pm — 10 Comments

आए , तोड़े गर्व

धरणी को बरबाद कर

चन्द्र करो जा नष्ट

फिर ढूँढो घर तीसरा

जहाँ न कोई कष्ट

यह क्रम चलता ही रहे

मानव ही जब दुष्ट

आपस में लड़ कर करे

सर्व विभूति विनष्ट

समझे मालिक स्वयं को

बन बैठा भगवान

हिरनकशिपु सम सोच रख

औरों का अपमान

करते बम के परीक्षण

खुशी मने ज्यों पर्व

राम , कृष्ण सदृश कोई

आए , तोड़े गर्व

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Usha Awasthi on September 3, 2020 at 7:26pm — 3 Comments

गुरू नमन

कच्ची मिट्टी का ढेला था,

छोटा सा जीव नादान था।

क्या सही और क्या गलत,

इस सबसे अनजान था।।



प्रथम गुरु मेरे मात पिता हैं,

चरणों में उनके नमन करूं।।

ज्ञान दिया है मुझको इतना,

शब्दों में कैसे बयां करूं?



नमन मेरा सभी गुरुओं को,

वंदन बारंबार है।

अज्ञानता के अन्धकार को मिटा,

फैलाया जीवन में प्रकाश है।



धन्यवाद उन मित्रों का भी,

जो हरदम मुझको ज्ञान हैं देते।

खेल खेल में सहज भाव से,

मुझमें नई ऊर्जा भर… Continue

Added by Neeta Tayal on September 3, 2020 at 3:27pm — 4 Comments

नाम आपका रोशन कर दूं

शिक्षा देने वाले हे गुरुजनों,

कैसे आपका बखान करूं।

सूरज को दिया दिखाने जैसा,

कैसे ये तुच्छ काम करूं।।

ज्ञान शस्त्र जो मिला आपसे,

फिर दुनियां से क्यूं डरूं।

अज्ञानता के अन्धकार को,

जन जन के जीवन से दूर करूं।।

शिक्षक दिवस पर सभी गुरुजनों को,

हाथ जोड़ वंदन करूं।

बिना रुके बिना झुके,

आपके प्रशस्त मार्ग पर बढ़ती रहूं।।

किताबी ज्ञान को व्यवहारिक कर

जीवन में कूट कूट कर भर लूं।

समानता का अधिकार दिलाने,

दुनियां से भी मैं लड़…

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Added by Neeta Tayal on September 3, 2020 at 8:20am — 7 Comments

बदल रहा है तेरा शह्र पैरहन मेरा (ग़ज़ल)

1212 1122 1212 22  

बदल रहा है तेरा शह्र पैरहन मेरा/1

ख़ुदारा खैर है बदला नहीं है तन मेरा

तेरा यूँ ख्वाब-ओ-ख्यालों में आना जाना/2

रखेगा कौन बता यार यूँ जतन मेरा

तू लड़ मगर तोड़ मत ये आईना इकलौता/3

जो टूटा कौन निहारेगा फिर बदन मेरा

मुझे ख़बर हुई है तेरे आने की जबसे/4

महक रहा है तेरे ख्याल से बदन मेरा

था खुबसूरत मेरा भी एक आशियाना सुन/5

उजाड़ा है मेरे अपनों ने ही चमन मेरा

जो इन्तजार मेरी मौत का सभी को था/6

तो लो खरीद लिया…

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Added by Dimple Sharma on September 2, 2020 at 4:00pm — 7 Comments

दण्ड ये कैसा मिला

दमन कर अपनी खुशियों का,

फर्ज पर अपने डटी रही।

एक बार नहीं दो बार नहीं,

बार बार करती रही।।

समझ ना सके फिर भी मुझे क्यूं,

क्यूं बार बार झकझोर दिया।

फर्ज निभाने का मुझे,

दण्ड ये कैसा मिला?

बहु बनकर जब कभी भी,

सासु मां का साथ दिया।

रूढ़िवादी हो अम्मा की तरह,

बच्चों ने झट से कह दिया।

क्यूं समय के साथ नहीं हो,

आज समय है बदल गया।

फर्ज बहु का निभाने का,

दण्ड ये कैसा मिला?

माँ बनकर जब कभी भी,

अपने बच्चों का साथ दिया।

सर पर…

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Added by Neeta Tayal on September 2, 2020 at 1:48pm — 5 Comments

ये तितलियाँ ये फूल भी सकते में आ गए..( ग़ज़ल :- सालिक गणवीर)

221 2121 1221 212

ये तितलियाँ ये फूल भी सकते में आ गये

जब पेड़ चल के ख़ुद ही बगीचेे मेंं आ गए

कल तक मिरे अज़ीज़ अंँधेरों में क़ैद थे

आंँखें रगड़ - रगड़ के उजाले में आ गये

नीलाम हो रही है ख़ुशी सुन रहे थे कल

हम भी थे बेवक़ूफ़ जो झांँसे में आ गये

मारा गया गली में उसे सब के सामने

दर पर खड़े थे लोग दरीचे में आ गये

कह कर गए थे है ये मुलाक़ात आख़िरी

जैसे ही आँख झपकी वो सपने में आ…

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Added by सालिक गणवीर on August 31, 2020 at 10:00pm — 14 Comments

आती है जब शमीम-ए-सदाक़त ज़बान से(१२२ )

( 221 2121 1221 212 )
आती है जब शमीम-ए-सदाक़त ज़बान से
तो क्यों चले न हम जहाँ में यार शान से
जैसे बदलती रुख़ है सबा अपना यक ब यक
वैसे कभी पलटते नहीं हम बयान से
कार-ए-जियाँ में कट रही कैसे है ज़िंदगी
पूछेगा दर्द कौन किसी नौ-जवान से
मेरी सलामती है सुबूत-ए-शिक़स्त-ए-ज़ुल्म
ख़ाली गया है तीर जो निकला कमान…
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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on August 31, 2020 at 7:00pm — 6 Comments

सृष्टि का चलन

सृष्टि का चलन

चाँद चमकता

सूर्य की ही रोशनी से

हर दिन,

एक दिन क्यों आ जाता

सूर्य और पृथ्वी के बीच,

लगाता सूर्य को ग्रहण

बहुत पास जाकर

रोकता उसका प्रकाश, 

बना देता है उसे

अपने ही जैसा,

यह प्यार है चाँद का

या जलन,

नहीं नहीं....

चन्द्र किरणों की तो

शीतल है छुअन

यह तो है बस

रचयिता की लीला

और सृष्टि का चलन !…

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Added by Dr Vandana Misra on August 31, 2020 at 4:12pm — 4 Comments

आलस करैं न नेक

कपड़ा-लत्ता बाँधि कै

जावैं अपने देस

कितने दिनन बिता गए

तबहुँ लगै परदेस

पहुचैं अपने द्वार-घर

लक्ष्य यही बस एक

जा खेती - बाड़ी करैं

आलस करैं न नेक

धूप - ताप मा बिन रुके

चले जाँय सब गाँव

सोचत जात , थमें नहीं

मिले जो चाहे छाँव

नदियन नाला केर सब

कचरा देब हटाय

लहर-लहर बहियैं सबै

धरती पियै अघाय

बबुआ से कहिबै चलौ

गइया लेइ खरीद

दूध, दही , मट्ठा…

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Added by Usha Awasthi on August 30, 2020 at 11:27pm — 2 Comments

दोहा त्रयी : गरीबी

दोहा त्रयी : गरीबी

दृगजल से रहते भरे, निर्धन के दो नैन।
दर्द सुनाए लोरियाँ, भूखी बीते रैन।।

बिखरे बाल गरीब के, आँसू शोभित गाल।
उदर क्षुधा जीवित रहे, बन कर सदा सवाल।।

आँसू गिरा गरीब का, कोई न समझा दर्द।
संग श्वास लिपटी रही, सदा भूख की गर्द।।

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on August 30, 2020 at 6:23pm — 2 Comments

नहीं आया फिर वो बुला कर मुझे..( ग़ज़ल :- सालिक गणवीर)

122 122 122 12

नहीं आया फिर वो बुला कर मुझे

मज़ा ले रहा है सता कर मुझे

अगर मेरे अंदर समाया है तू

कभी आइने में दिखा कर मुझे

हमेशा मिला है तू रोते हुए

मिला कर कभी मुस्कुरा कर मुझे

सदा बस मुझे हुक्म देता है क्यूँ

सलाह मशवरा भी दिया कर मुझे

है डर कुर्सियों के नगर में यही

न वो बैठ जाए उठा कर मुझे

धड़कता हूँ मैं शोर करता नहीं

मैं दिल हूँ तेरा ही सुना कर…

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Added by सालिक गणवीर on August 30, 2020 at 5:30pm — 9 Comments

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